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शनिवार, 20 जून 2015

मां


रात उतरते ही से
लड़ती पिसती
थकी हारी मां
लेटी है.
इस निपट रात में 
एकटक ताकती है आकाश
क्या सोचती होगी
नहीं कह सकता
रह रहकर रोज गुनगुनाती है एक ही गीत -
बबुनी मोरी बइठी राजपलंग पर
बबुआ मोर पइहन इनरासन हो
रामा हम पहिनब धानी रंग साड़ी
दुलहनिया उतारब सुलाछन हो.
मैं सिर्फ इतना जानता हूं
उसकी रातें यूं ही कटती हैं
मां किस्तों में सोती है .
19 साल का था जब मैंने ये कविता लिखी थी। मैं अपने जीवन में शायद मां को ही जीता हूं।
 मां एक संपूर्ण शब्द है, एक संपूर्ण संसार, समय की अविरल प्रेम धारा।