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शुक्रवार, 19 जून 2015

यादें

किसी नए सिले कोट पर
गिरी चिनगारी सी
रफ़ू के दाग़
छोड़ जाती हैं यादें.

एक खूबसूरत मकान की
दरकी दीवार में
गारे की लकीर सी
पड़ी  रहती हैं यादें

अनजाने ही
पुरवाई सी
किसी पुराने दर्द को
छेड़ जाती हैें यादें

ढलती रातों में
अलाव की आंच सी
पोर पोर
सहला जाती हैं यादें ॉ.

चिलचिलाती दोपहरी में
चक्कर काटती हैं चीलों सी
कहीं ना कहीं कुछ
ढूंढती रहती हैं यादें.

समय की पीठ पर
भागते सवार सी
धुंध और दूरियों में
सिमटती जाती हैं यादें.