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रविवार, 21 फ़रवरी 2016

अंधेरा या फिर अंधेरगर्दी ! सच क्या है भाई ?


देश में मीडिया पर गंभीर सवाल उठ रहे हैं. कुछ पत्रकार स्वंयभू देशभक्त होने का दम भर रहे हैं तो कुछ कह रहे हैं कि अगर इस विरोध को देशद्रोह कहते हैं तो आप मान लीजिए हम देशद्रोही हैं.

मामला - जेएनयू विवाद है औऱ इस विवाद से उठे कुछ बड़े सवाल हैं, जिनका लोकतंत्र से गहरा रिश्ता है. दरअसल, देश में पत्रकारों के दो तरह के गुटों ( आप चाहें तो गिरोह भी कह लें) का बोलबाला सा हैं. एक वो हैं जो सावन के अंधे हैं. मतलब ये कि उनको सरकार औऱ व्यवस्था में सब हरा दिखता है. दूसरे जेठ के अंधे हैं. इनलोगों को सरकार और व्यवस्था में सब झुलसा-जला ही दिखता है. जो लोग इन दोनों खेमों के विचारों ( वैसे विचार की परिभाषा कुछ अलग ही होती है) से सहमत नहीं हैं- वे दोनों के निशाने पर आते हैं.

ऐसे में सवाल ये है कि आप किसकी चिंता करेंगे?  इस देश की , समाज की, नागरिक की या फिर वामपंथ की, संघवाद की, मनुवाद की, सेक्यूलरिज्म की ? सवाल का जो दूसरा हिस्सा है और उसकी चिंता जो  पत्रकार करते हैं वे संक्रामक, समाजतोड़ू और भयानक हैें. इस पूरे समुदाय में तीन तरह की प्रजातियां हैं. एक मैकॉले स्कूलवाले, दूसरे मार्क्स स्कूल वाले और तीसरे संघ स्कूल वाले. तीनों एजेंडा सेटर हैं, तीनों हिपोक्रैट हैं और मज़ेदार बात ये कि तीनों सबसे कमजोर के हक के लिए छाती पीटनेवाले भी. लोकतंत्त में विरोध, विवाद , संवाद की पैरवी तीनों करते हैं लेकिन आप उनसे सहमत नहीं तो आप गलत हैं. वे सड़क पर उतर जाएं तो इंसानियत का तकाज़ा और आप अपने देश-समाज के लिए आवाज थोड़ी ऊंची कर दें तो इंसाफ, इंसानियत औऱ पत्रकारिता के दुश्मन हैं. साहब, दूसरा आपकी राय से अपनी राय जोड़े ही, इसतरह का रवैया तो दबंगई ही है ना ?

मेरी राय में देश के खिलाफ कोई भी ऐसी बात जो उसकी एकता, अखंडता और संप्रभुता को ललकारती है, चुनौती देती है - उसपर कोई बहस होनी ही नहीं चाहिए. विरोध और आजादी तभीतक अपना मतलब रखते हैं जबतक वो अपनी हद में रहते हैं. पिता का विरोध बेटा कर तो सकता है लेकिन ऐसा वो पिता को चार तमाचे मारकर करे तो फिर ये खांटी बदतमीज़ी है. कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि कश्मीर की आज़ादी बंदूक की नोक पर लेने की बात आप देश के अंदर करें और कहा जाए कि लोकतंत्र की यही खूबी है कि कोई भी अपनी बात रख सकता है तो ऐसा लोकतंत्र नहीं चाहिए.

आप आतंकवादियों की फांसी के खिलाफ देश की न्याय व्यवस्था को हत्यारा बताएं और कहें कि लोकतंत्र की तासीर यही है कि ये हर विरोध को जगह देता है तो फिर ऐसा लोकतंत्र नहीं चाहिए. अदालत के परिसर में कन्हैया पर और पत्रकारों पर वकील हमला बोल दें, विधायक टूट पड़े और सत्ता में बैठे या फिर उनसे जुड़े लोग इसलिए चुप रहे कि यह लोकतंत्र का राष्ट्रवाद है तो फिर ऐसा भी लोकतंत्र नहीं चाहिए. आप अपना मतलब बताओ कॉमरेड . आप अपना एजेंडा बताओ मैकॉलेमैन. और आप अपना अभिप्राय बताओ संघपुरुष. आप तीनों अपने-अपने चश्मे उतारो तो फिर आंखों में आंखें डालकर बात की  जाए.


कन्हैया कुमार पर देशद्रोह का मुकदमा है. कन्हैया के पास पूरा अधिकार है कि वो इंसाफ की लड़ाई लड़ें. लेकिन इससे पहले कन्हैया को बेकसूर साबित करने की कोशिश में कुछ लोग लग गए हैं. कन्हैया के खिलाफ अगर कुछ रखा जाता है तो उनको उसमें साजिश दिखती है. फिर वो दिखाई गई चीजों में ही मिलावट ढूंढने की कवायद में लग जाते हैं. मुद्बई भी आप, गवाह भी आप और अदालत भी आप. आप ये तय करेंगे कि बड़ा घालमेल है और बड़ा धोखा हो रहा है! मगर सवाल तो आपसे होना चाहिए कि आप इतना कुछ किस मंशा और मकसद से कर रहे हैं. यह सवाल इसलिए भी बनता है क्योंकि आपने पहले ही ऐसा कर रखा है . इस बार कम से कम गिरबान में झांकने की छटांक भर ही नैतिकता रख लेके.

मुजफ्फरनगर दंगों में फर्जी स्टिंग चलाने और माहौल बिगाड़ने का दोषी उत्तर प्रदेश की विधानसभा ने आपको माना है. अगल-अलग धाराएं आप पर लगी हुई हैं और उनमें क्या सजा हो सकती है - अगर नहीं पता है तो जांच समिति के अध्यक्ष एस के निगम की रिपोर्ट पढ लीजिए. मैं कभी फटे में हाथ डालने के हक में नहीं रहा लेकिन जब कोई कॉलर टाइट करके सीना तानता हो तो बताना पड़ता है भाई साहब आपकी जिप खुली हुई है.

एक भाई साहब हैं. अंधेरे हैं चले आओ कहां हो-  टाइप स्टाइल में - कहां आवाज़ दें तुमको वाले इंटेलेक्चुअल रोमांटिसिज्म का मज़ा लेने से ही नहीं आघाते. सारा अंधेरा है, काले सवाल है, सवालों के घेरे में सब हैं और आप भी. अपने को तो आप सवालों में खुद ही लाने की दरियादिली दिखाते हैं. वैसे, खुद को सवालों में ला देने से बचाव का सबसे मजबूत रास्ता निकल आता है. है ना ? फिर, आप मनमाफिक चीजें करने-कहने के लिए आज़ाद हो जाते हैं. आज़ादी के नियम आप तय करेंगे और आज़ाद मुल्क में जनता की परेशानी आपकी पेशानी पर ना झलके तो फिर लहू क्या है! मीडिया पर हमला हो तो आप सड़कों पर उतर आएं और किसी की पत्रकारिता को कंठलंगोट तक पकड़ लें . लेकिन, कोई कश्मीर की आजादी के खिलाफ बात ऊंची आवाज में कर ले तो वो अंधेरगर्दी है. जवाबदेही तय करने की जगह निशानदेही है.

आप लोकतंत्र के नाहक वाहक बन जाएं तो अच्छा और कोई देश की अखंडता को लेकर तैश में आ जाए तो गुस्ताखी. साहब, कभी ईडी की रिपोर्ट भी तो पढ लीजिए. सैकड़ों करोड़ रुपए जो कंपनी ने बाहरी देशों से गलत तरीके से अपने यहां ले आई, कई तरह का तिकड़म करके- वहीं आप काम करते हैं. ये गरीब गुरबों की ही तो पैसा होगा जिसको काले से सफेद करने का खेल आपके यहां खेला गया. आप कहें तो आरबीआई की वो रिपोर्ट भी रख दूं जिसमें उसने कई बार ये कहा है कि फलां कंपनी जिस तरीके से इतनी बड़ी रकम बाहर से अपने यहां ले आई उसमें बहुत कुछ काला लग रहा है.

नीरा राडिया की कंपनी वैष्णवी कम्यूनिकेशन का ही एक हिस्सा विट्कॉम आपकी कंपनी के एक चैनल का कारोबार देखता रहा . उसके बारे मेें भी पता करना चाहिए. नीरा राडिया और ए राजा की खास मित्र जो आप ही के यहां हैं, उनके साथ चाय तो पीते ही होंगे. उनसे भी पूछते कि कई तरह के प्रायोजित इंटरव्यू किस लिए किए गए. निशानदेही की बात तो मैं कर ही नहीं रहा, बस जवाबदेही के लिहाज से ही कभी ऊपरवालों से पूछ लेते - ये क्या कर रखा है ? बौद्धिक विलाप करके बौद्दिक विलास का सुख उठाने की लत खराब ही नहीं होती, खतरनाक भी होती है. टीवी के सामने बैठा दर्शक अगर ज़हर उगल रहा है तो उसकी वजहें भी थोड़ा ठीक से टटोलनी चाहिए.

मैं ठेंठ गांव से हूं और इस बात का दावा नहीं करता कि आखिरी पायदान पर खड़े आदमी का दर्द पूरी तरह महसूस करता हूं, मगर किसी से कम समझता हूं, ऐसा भी नहीं है.  उस आम आदमी के सवाल को किसी एजेंडे के तहत देखूं ऐसा गुनाह ना कभी किया और ना कर सकता हूं. दादरी मेरे लिए सवाल है तो मालदा भी है. गुजरात दंगा है तो सन ८४ औऱ भागलपुर भी दंगा ही है. सेक्यूलरिज्म के लिए गुजरात दंगे की लग्गी गिराऊं और ८४-भागलपुर को भूल जाऊं, मैं ऐसा नहीं कर सकता.

पत्रकार भला गरम क्यों नहीं होगा? क्या वो इस देश का नागरिक नहीं?  इस देश में होनेवाले भेदभाव, अन्याय, अत्याचार, लूट-खसोट, सांठगांठ, दंगा-फसाद पर वो क्यों बौखलाए नहीं?  वो माटी का माधव तो है नहीं!  इंसान है औऱ इस देश के प्रति उसकी भी कुछ तो नैतिक जिम्मेदारी है ही.
एक साहब हैं जिनको बोलने की आजादी औऱ विचारों की स्वतंत्रता से इतना लगाव है कि वो कश्मीर की आजादी औऱ पूर्वोत्तर राज्यों के संघर्षों की तरफदारी लोकतांत्रिक मर्यादा से जुड़े लगते हैं. मैं फिर कहता हूं संवाद के  लिये लोकतंत्र में किसी भी हद तक की गुंजाइश मांगना या पैदा करना जायज़ है लेकिन विरोध और आजादी की लक्ष्मणरेखा राष्ट्र और राज्य की प्रभुता के लिये जरुरी है. हां, तो उन साहब को बतौर पत्रकार और जिम्मेदार-ईमानदार पत्रकार कैश फॉर वोट वाली खबर के मामले पर देश के सामने असली तस्वीर रखनी चाहिए. आपने वो खबर दबा क्यों दी थी. राज-पथ पर किसी खास के लिए दीप जलाने से सर-देशवासियों का झुकाते हैं आप.

मैं आपकी इस बात से पूरी तरह सहमत हूं कि इस देश में एक कौम के लिए नारे लगानेवालों से समझौता नहीं किया जा सकता और राष्ट्रभक्ति का कोई सर्टिफिकेट दे ये भी बर्दाश्त नहीं किया जा सकता. लेकिन, बस इसी नाते मैं आपकी ईमानदारी पर यकीन कर लूं, ऐसा भी तो नहीं हो सकता. क्योंकि , मुझे ये पता है कि आपको एक खास दल में कभी कुछ अच्छा नहीं दिखता और एक खास परिवार में कभी कुछ खराब नजर नहीं आता. कभी परिवार, पार्टी, पक्षपात के लबादे उतारकर कैमरे का सामना कीजिए- हिंदुस्तान ज्यादा सराहेगा.

मीडिया के सामने संकट है. संकट ये है कि ज्यादातर तुर्रम खां पूंछ में आग लेकर अपनी अपनी लंका पर खड़े हैं और सोच ये रहे हैं कि आग दूसरे के यहां लगानी है. अपनी अपनी अंधेरगर्दी में ये लोग अंधे हुए पड़े हैं. ये कैसे हो सकता है कि आप इस देश की अखंडता की बात करें और भारत के टुकड़े करनेवालों ( भले ही मुट्ठीभर हों) की तरफदारी करें.  जो भागे हुए हैं उनकी तरफदारी भी करें. वे भगत सिंह या चंद्रशेखर आजाद तो है! हां, उनको इस देश की अदालतों में अपने लिये इंसाफ की खातिर लड़ने का पूरा अधिकार है. कन्हैया, मुमकिन है बेकसूर हो. लेकिन उसको अदालत से रिहा होने से पहले क्रांतिकारी का तमगा तो मत दीजिए.

एक मैडम ने शुक्रवार रात को लिखा कि आज देश को नींद कैसे आ सकती है- कन्हैया जेल में है. मैडम एक किसान अपनी झुलसी हुई फसल देखकर घर आता है, सामने जवान बेटी को देखता है, उसके हाथ पीले करने के सपनों को मरते देखता है औऱ फांसी लगा लेता है. उस खबर पर आपको नींद नहीं आती और आप उसपर कुछ लिखी होतीं तो मुझे लगता कि हिंदुस्तान का पत्रकार आपको मान जाना चाहिए. मुझे आप पर और आप जैसे उन तमाम पत्रकारों पर तरस आता है जो चमचमाती गाड़ियों में, ल्यूटियन जोन्स की तमाम तरह की बैठकों-दावतों में जाकर और अंग्रेजी में फांय फूंयकर हिंदुस्तान की समझ रखने का दावा करने लगते हैं. वैसे, तरस उन तमाम लोगों पर भी आता है जिनको हिटलर-मुसोलनी से नफरत है और स्टालिन-माओ के जुल्म सर्वाहारा की खातिर इंसाफ का तकाजा दिखते हैं.

हंगरी, पोलैंड, रोमानिया में मार्क्सवाद के नाम पर जो कुछ हुआ उसको कौन सही ठहरा सकता है. नक्सलियों का आतंकवाद अगर आपको बराबरी के हक के लिये सशस्त्र विद्रोह लगता है तो लानत है आपपर. जो गलत है वो गलत है. इंसान को दबाने कुचलने की परंपरा हो या फिर उसे दुत्कारने-फटकारने वाली मनुवाद सरीखी व्यवस्था या फिर जाति-धरम के नाम पर वोट का खेल खेलनेवाली सियासत तीनों को खुले मन से खारिज करने का साहस और नैतिकता मीडिया में जरुरी है.

अदालत में कन्हैया पर हमला हो या कारखाना मालिक के बेटे पर, आवाज दोनों के लिेये बराबर उठनी चाहिए. दिल्ली में पत्रकारों पर हमला हो तो सड़कों पर उतर आएं और देश के दूसरे हिस्सों में उनको पुलिस दौड़ा दौड़ाकर दोहरा कर दे तो महज खबर. इसलिए कि दिल्ली में प्वायंट जिसतरीके से बढ जाता है वैसा कहीं और के मामले पर नहीं बन सकता ? ये मेरा आरोप नहीं है, बस एक अदना-सा सवाल भर है.
कोई जातिवादी संज्ञा से चुनावी शो चलाए तो वो समाज का आईना है, बहन के नाम के आगे डॉट डॉट छोड़ दे तो बोल्ड एक्सपेरिमेंट है और कोई ऊंची आवाज में सवाल कर दे, एक वाजिब वीडियो दिखा दे तो मर्यादा और नैतिकता की सरेआम हत्या हो जाती है! हाहाकार मच जाता है. मैंने खबरों को तय करते समय, उनपर राय रखते समय, बहस के लिए उन्हें चुनते समय या फिर किसी मुद्दे के खिलाफ अभियान छेड़ते समय सिर्फ औऱ सिर्फ इंसान को देखा है. ना जात को ना कौम को ना पार्टी और ना पक्ष को. पक्षपात और पक्षधरता का अंतर हमेशा बनाए रखने में यकीन रखा. किसी के साथ गलत हो तो उसके साथ खड़ा होना पत्रकार का भी नैतिक धर्म है लेकिन उसके साथ इसलिए खड़ा हों कि उससे किसी का बनता या फिर किसी और का बिगड़ता है - तो ये पक्षपात है.

वक्त देश के पत्रकारों औऱ मीडिया के लिए चुनौती भरा है. खुद की धूल और गंध को झाड़कर खुले दिमाग और बड़े दिल से इस देश और समाज के लिये चलने-सोचने का है. मैंने जो विरोध किया, उसकी वजहें मुझे दुरुस्त लगीं. मुमकिन है आप मेरा भी करो. विरोध, विरोध के दायरे में ही अपनी पहचान रखता है जैसे आजादी, आजादी के दायरे में ही अपना मतलब रख पाती है.

बुधवार, 10 फ़रवरी 2016

जेएनयू बज़रिए राष्ट्रद्रोह

जेएनयू में कल पाकिस्तान जिंदाबाद और कश्मीर को चाहिए आजादी के नारे लगे. अफज़ल गुरु की तीसरी बरसी पर कुछ छात्रों ने एक सांस्कृतिक शाम रखी. जो पर्चा तैयार किया गया उसमें सबसे ऊपर लिखा गया- मकबूल बट्ट और अफजल गुरु की न्यायिक हत्या के खिलाफ, कश्मीरियों के संघर्ष के समर्थन में आप आमंत्रित हैं. इस जमावड़े में पाकिस्तान जिंदाबाद और हमें चाहिए आजादी, कश्मीर को चाहिए आजादी के नारे पूरे उबाल के साथ लगाए गए. इसका विरोध एबीवीपी वालों ने किया और फिर बवाल बढता चला गया. आज इस मामले पर तमाम न्यूज चैनलोंं पर लंबी बहसें हुईं. जिन छात्रों ने जेएनयू में सांस्कृतिक शाम रखी थी उन्होंने न्योते में यह भी लिखा था कि-यहां एक कला प्रदर्शनी भी होगी जिसके ज़रिए कश्मीर के अधिग्रहण और वहां के लोगों के संघर्ष को बताया जाएगा. कश्मीर की आज़ादी औऱ अफज़ल-मकबूल की हिमायत करनेवाले, लोकतांत्रिक मूल्यों और नागिरक की आज़ादी के अधिकार का हवाला दे रहे हैं. ये वही छात्र हैं जिनके नाम न्योते में छपे हैं. सवाल ये है कि क्या लोकतांत्रिक मूल्यों और आजादी के अधिकार की अवधारणा में नागरिक के किसी भी हद तक जाने की छूट है ? क्या राष्ट्र की अखंडता और राज्य की प्रभुता से स्वतंत्र और स्वैच्छिक हैं लोकतांत्रिक मूल्य और आजादी के अधिकार ? मैं हमेशा से नागिरक के अधिकारों का मजबूत समर्थक रहा हूं और रहूंगा. उसे अपने हक और अपनी बेहतरी के लिये हर वाजिब आवाज उठाने, धरना देने, प्रदर्शन करने , आंदोलन तक करने का अधिकार है. उसे हक है कि वह देश के सबसे बड़े ओहदे पर बैठनेवाले यानी प्रधानमंत्री और मौजूदा व्यवस्था की नीतियों की धज्जियां उड़ा दे अगर - उसके या फिर जिन समुदायों-समूहों-वर्गों के हक की वो लड़ाई लड़ रहा है - उनके हितों का ख्याल नहीं रखा गया है. लोकतांत्रिक व्यवस्था में दुनिया का विश्वास इसलिए है कि वो नागरिक के कल्याण के सिद्दांत पर खड़ी होती है. देश के साधन-संसाधन का इस्तेमाल आखिरी पायदान पर खड़े आदमी के लिये ज्यादा करने का नैतिक और नीतिगत विचार इस व्यवस्था में निहित है. आरक्षण, संरक्षण, प्रोत्साहन, समायोजन के लिये जरुरी नीतियां इसी व्यवस्था में संभव हो पाती हैं. और सबसे बड़ी बात, नागरिक की आज़ादी की गारंटी लोकतंत्र ही देता है. लेकिन यह गारंटी सापेक्ष होती है. किसी भी शब्द का अर्थ निरपेक्षता में होता ही नहीं. अगर बेईमानी का संदर्भ नहीं हो तो ईमानादारी को स्थापित नहीं किया जा सकता, बुरा का भाव नहीं हो तो अच्छा को समझा ही नहीं जा सकता, ऐसे ही आजादी का मतलब तभी समझ में आ सकता है जबतक बंधनों को आपके सामने नहीं रखा जाए. परिंदे को कुदरत ने उड़ने के लिए पूरा आसमान दे रखा है, लेकिन उसकी हद वहीं तक है जहां तक हवा है. उसके आगे कुदरत भी उसकी मदद नहीं करती. अब कुछ उदाहरण देखिए- पाकिस्तान में भारत का झंडा लहराया गया, लहरानेवाले को गिरफ्तार किया गया और मुकदमा चल रहा है. जुर्म साबित होने पर दस साल की कैद मुकर्रर है. अब एक सभ्य मुल्क की मिसाल लीजिए. फ्रांस में आतंकवादी गतिविधि के चलते नागरिकता जा सकती है. हमारे यहां क्या है? जेएनयू जैसे प्रतिष्ठित संस्थान में पाकिस्तान के नारे लग रहे हैं और कश्मीर की आजादी की अंगराइयां ली जा रही हैं. देखिए कैसे तालियां बज रही हैं और हलक में जितनी ताकत है, उससे नारे लग रहे हैं- सुन लो मोदी, सुन लोग मुफ्ती - हम कश्मीर लेकर रहेंगे. इस पूरे आयोजन में राष्ट्र के खिलाफ तीन अपराध हैं, जिनपर बहसों के आगे बात जा ही नहीं रही है. कल बहसें रुक जाएंगी और ये नीम हकीम जम्हूरियत के नए उस्ताद और खतरनाक हो जाएंगे. पाकिस्तान के नारे हिंदुस्तान की ज़मीन पर जिस तरीके से लगाए जा रहे थे, वो पाकिस्तानपरस्ती की गवाही दे रहे थे. हमारा नागिरक, दुश्मन देश या पड़ोसी देश के नाम पर अपनी छाती चौड़ी कर रहा है. दूसरा, अफजल गुरु और मकबूल बट्ट की फांसी को न्यायिक हत्या बताया गया. यानी हमारे देश की सर्वोच्च न्यायालय पर आप हत्या का आरोप लगा रहे हैं. जिस सुप्रीम कोर्ट ने उन दोनों को लंबी कानूनी लड़ाई के बाद आतंकवादी साबित होने पर फांसी दी - उसके फैसले को हत्या मान रहे हैं? इसी देश में यह हुआ कि याकूब मेमन जैसे आतंकवादी की फांसी रोकने के लिए आधी रात अदालत लगवाई गई और कोर्ट ने बाकायदा याकूब की पैरवी करनेवालों को सुना. तीसरा, आप भारत मे कश्मीर के शामिल होने को कश्मीर का अधिग्रहण कह रहे हैं और उसके खिलाफ संघर्ष में देश के लोगों को ही लामबंद कर रहे हैं. ये तीनों बाते देशद्रोह के दायरे में आती हैं. ऐसे लोगों के खिलाफ सख्त से सख्त कार्रवाई होनी चाहिए. जिन लोगों ने देश को बनाने में दो पाई की भूमिका नहीं निभाई, समाज में किसी तरह का सहयोग नहीं दिया वे महज नागिरक होने के नाते मौलिक अधिकार और मानवाधिकार के नाम पर देश के वजूद को ही आंखें दिखा रहे हैं. हनुमंथप्पा अभी जीवन और मौत के बीच जंग लड़ रहे हैं. उनके साथियों को सियाचन की बर्फ लील गई. अभी जब मैं लिख रहा हूं- जम्मू कश्मीर से लेकर अरुणाचल तक हमारे जवान संगीन की तरह सीधे और सतर्क खड़े होंगे. दुश्मन की गोली कभी भी चल सकती है, उन्हें पता है लेकिन मुल्क की खातिर हर वक्त जान को जोखिम में डालकर सीमा की रक्षा करते हैं. उन जवानों के बारे में कितना जानते हैं ये लोग ? देश का किसान मरता है , उसके लिये कब नारे लगाए ? महिलाओं पर अत्याचार की हाड़ कंपा देनेवाली घटनाएं सामने आती हैं- कितनी बार इनलोगों का गुस्सा फूटा ? देश के आम आदमी के पैसे पर पलने-पढनेवाली ये जमात देश की एकता-अखंडता को ही चुनौती देगी ? और हम इन्हें उदारवादी, मानवतावादी , प्रगतिशील और नवोत्थानवादी कहकर इनको अगरबत्ती दिखाएंगे. इनको भारत माता की जय कहने में वैचारिक संकट लगता है, कश्मीरी पंडितो की पीड़ा पर बोलने में पहचान का संकट लगता है और कोई फिर ये कहे कि खुले दिमाग से हम देश और समाज के बारे में सोचनेवाले लोग है तो लगता है कि खुलेपन का इससे भद्दा मज़ाक नहीं हो सकता. आधे-अधूरे पढे, आठ-दस लाइनें रटे , दस-बारह बयानों को बटोरे ये ऐसी जमात है जिसको देश दुनिया की ढेले भर की समझ नहीं है. उसूल और नजरिए से ऐसी उखड़ी-उजड़ी जमात है जिसको कथित बुद्दिजीवी होने का चस्का लगा रहता है. झोलाझापों की नस्ल खत्म हो गई लेकिन ये उनके खतरनाक हो चले खंडहरों की तरह बचे हुए हैं. इस देश में विरोध की वजहें बहुत हैं और विरोध के नायक भी . दादरी की घटना पर देश का बड़ा वर्ग और खासकर मीडिया अखलाक के साथ खड़ा हुआ. लेखकों-साहित्यकारों ने अखलाक के साथ कन्नड़ लेखक कलबुर्गी की हत्या को जोड़कर अपने पुरस्कार लौटाए. मालदा पर भी विरोध हुआ. अन्ना हजारे की अगस्त क्रांति हुई- पूरी व्यवस्था हिल गई, मेधा पाटेकर ने सरदार सरोवर योजना के खिलाफ लंबी लड़ाई लड़ी , मणिपुर में सेना के असीमित अधिकारों के खिलाफ एरोम शर्मिला पिछले १५ साल से अनशन पर हैं और इस देश के बुद्दिजीवियों-नागरिकों का एक तबका उनके साथ खड़ा रहता है. इसी देश का सु्प्रीम कोर्ट नक्सलियों के लिये काम करने के आरोप में गिरफ्तार डाक्टर विनायक सेन को जमानत देता है और सर रिचर्ड एटनबरो उनको गांधी शांति पुरस्कार देत हैं. विरोध डाक्टर सेन की गिरफ्तारी के खिलाफ भी खूब हुआ और मैने खुद भी किया. हाल के वर्षों का सबसे अच्चा उदाहरण अरविेंद केजरीवाल हैं. अन्ना की अगस्त क्रांति के रास्ते चलकर राजनीति में उतरने और फिर सड़क पर सत्ता को सीधी चुनौती देने में अरविंद ने बेहिसाब ताकत लगाई. लोगों का भरोसा जीता और दिल्ली की सत्ता बदल दी. सारे के सारे विरोध राष्ट्र की एकता-अखंडता के दायरे में अपनी-अपनी तरफ से पूरी ताकत के साथ हुए. लेकिन जेएनयू में जो हुआ उसमें देश, समाज , परिवार या व्यक्ति के अधिकार की लड़ाई नहीं है बल्कि संप्रभु राष्ट्र भारत को सीधी चुनौती है. कुछ लोगों का तर्क है कि दरअसल अफजल गुरु या फिर मकबूल बट्ट महज नाम हैं , लड़ाई तो फांसी की सजा के खिलाफ है. ऐसे लोगों से सवाल ये होना चाहिए कि फांसी के खिलाफ खड़ा होने के लिये अफजल और मकबूल का नाम ही क्यों. आजाद हिंदुस्तान में अबतक जितनी फांसी हुई है उनमें से सिर्फ ५-७ फीसदी ही मुसलमान थे. बाकियों में से किसी का भी नाम आपको याद नहीं. दो ऐसे लोग जिनको इस देश की सबसे बड़ी अदालत ने आंतकवादी माना उनको आप अपनी क्रांति का नायक बनाना चाहते हैं? आप नारा लगाते हैं कि एक अफजल मारोगे, हर घर से अफजल निकलेगा! इस देश की नई नस्ल में आप अफजल की फसल काटना चाहते हैं? याद रखिए, ये वो विश्वविद्यालय है जिसके हर छात्र पर तीन लाख रुपए सरकार के खर्च होते हैं और वो रकम आम आदमी के टैक्स से आती है. यानी जिनके पैसों पर आप पढ रहे हैं उन्हीं के खिलाफ आप आग बो रहे हैं. इस देश के आम विश्विद्यालयों में पैसे के संकट के चलते बच्चे दर-दर की ठोकरें खाते हैं, कक्षाओं में फटेहाली पसरी रहती है, साधन-संसाधन का टोटा रहता है और आप मज़े में पढते हैं. इसलिए कि इस देश के कल को आप संवार सकें, इसलिए नहीं कि कल होकर इस देश को आपसे ही खतरा हो जाए. वैसे ऐसे छात्रों की संख्या जेएनयू में भी ज्यादा नहीं है लेकिन जितनी भी है इस चिंता के लिये काफी है कि देश के सर्वोत्तम शिक्षण संस्थानों में आजादी और मानवाधिकार के नाम पर भारत का भविष्य अपनी ही आस्तीन में सांप पाल रहा है.