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शनिवार, 20 जून 2015

बिरहा वाले केदार पांडे


कांपती सी आवाज़ उठती थी
आधी रात
केदार पांडे के गले में 
गोल गोल चक्कर लगाता था अंधेरा
दालानों में ताखों पर लहराती रहती थी
दिए की लौ
और घरों के बीच हांय हांय कर
दौड़ती रहती थी हवा
समूचे जवार में इकलौते बचे थे
बिरहा गानेवाले केदार पांडे
आधी रात जब धड़धड़ करती
एक बजिया ट्रेन जाती
बिरहा पर सारा आसमान तन जाता
क्वार का चांद खेतों में
देह फैलाए लेटा रहता
और नींद को करवट छोड़
कुछ आंखें पनीली हो जाती
पिछली बार जब गांव गया था
तो अचानक उन रातों के रेले आए
पता चला अब ना तो एक बजिया ट्रेन आती है
ना चांदवाला आसमान तनता है
केदार पांडे को गुजरे सालों हो गए
बिरहा सीवान पर खड़े
ग्राम देवी के पताके सा है
अगले साल भगत जब
खौलते दूध में उतारेंगे देवी
तब ढूंढे जाएंगे उसके चीन्ह-पहचान.

एक दिन और गुज़रा


एक दिन और गुज़रा
सूरज फिर ढला 
जिंदगी से समय कुछ और रीता 
ढलता सूरज कहीं उगा होगा 
चढती रात कहीं ढली होगी 
धरती पर दिन रोज रहता है
रात रोज रहती है
आधा दिन आधी रात की है दुनिया
जिंदगी भी कुछ ऐसी ही
और तुम्हारे साथ रिश्ता भी .

फरेबी

बस यही कि सच की सूरत नहीं होती 
वर्ना तुम गुनाह के इल्ज़ाम से बरी होते.
चलो चलें बहुत हुआ कहना सहना अब 
मस्त होते गर तुम भी यार फरेबी होते.

आधी रात


आधी रात टहलता रहता है सन्नाटा आसपास 
जैसे उफ्फ भी करो तो पूछने आ जाएगा पास - क्या हुआ?
पसरी रहती है रात अलमस्त आधी रात 
कमरे की मद्दिम रौशनी धकेले रखती है बाहर मनभर 
आधी रात सपने जोहते रहते हैं नींद की बाट 
दूर पगडंडी पर ज्यों तकता है कोई मेहमान की राह
आवाज की टोह लेनी पड़ती है कभी कभी आधी रात
अपना दरवाजा बजा या पड़ोस में कोई आया
अचकचा कर लपकता हूं जब फोन बजता है
कहीं किसी को कुछ हुआ तो नहीं आधी रात
रात भारी हो तो भोर कितनी सुस्त चलती है
महीनों की रात में पूरी होती है आधी रात
आधी रात कुछ आवारा ख्याल भी घूमते रहते हैं
चाय की ठेली पर सिगरेट सुलगाकर पूछता है कोई - अब कहां चला जाए?
आधी रात तुम्हारी सांसे डोलती रहती है कहीं आसपास
कुछ उतरता रहता है सीने में आहिस्ता आहिस्ता आधी रात 

रात भर


रौशनी की बस्तियां अंधेरों की झीलें भागती रहीं
सफ़र में तुम्हारे साथ यादें जागती रहीं रात भर.
रात भर खिड़कियाँ शोर मचाती जगाती रहीं मुझे
तुम्हारे तकिये पर मेरी नींद बैठी रही रात भर.
भूले हुए गीतों के भटके काफिले होंगे शायद
गलियां वीरानों में राह बताती रहीं रात भर.
लो नीम की फुनगी पर चाँद फिर अटका
तेरी शैतानियाँ याद आती रहीं रात भर.
बरसों हुए गाँव से शहर आये हुए मुझको
बरसों तक कोई चोट रुलाती रही रातभर.

ज़िंदगी

कभी कभी लगता है गोया ज़िंदगी में क्या नहीं है
कभी कभी लगता है गोया ये भी क्या ज़िंदगी है.

मां


रात उतरते ही से
लड़ती पिसती
थकी हारी मां
लेटी है.
इस निपट रात में 
एकटक ताकती है आकाश
क्या सोचती होगी
नहीं कह सकता
रह रहकर रोज गुनगुनाती है एक ही गीत -
बबुनी मोरी बइठी राजपलंग पर
बबुआ मोर पइहन इनरासन हो
रामा हम पहिनब धानी रंग साड़ी
दुलहनिया उतारब सुलाछन हो.
मैं सिर्फ इतना जानता हूं
उसकी रातें यूं ही कटती हैं
मां किस्तों में सोती है .
19 साल का था जब मैंने ये कविता लिखी थी। मैं अपने जीवन में शायद मां को ही जीता हूं।
 मां एक संपूर्ण शब्द है, एक संपूर्ण संसार, समय की अविरल प्रेम धारा।

बदायूं की बेटियां


उस पेड़ की शाखाओं के नीचे
जो खाली जगह है उधर
दिनभर उंगिलयां फेरते रहते हैं लोग 
एक अभी जहां िचडिया बैठी है वहां टंगी थी
दूसरी उस लाल गमछेवाले के िसर के ठीक ऊपर
बदायूं के इस बदकिस्मत गांव में
दिनभर तमाशा लगा रहता है
दिल्ली से लखनऊ से रोज फेरे हो रहे हैं
लोग बताते रहते हैं -
पहले उन दोनों का बलात्कार किया
फिर इसी पेड़ पर टांग दिया
धूल सनी गरम हवा में
लोगों की गोलबंदी चलती रहती है
वो कांग्रेसवाले नेताजी हैं, अभी आए हैं
कल बहनजी आएंगी , मीडियावाले कल भी रहेंगे
वो मैडम जो पीड़िता के पिता से बतिया रही हैं
महिला आयोग से आई हैं
और खाट पर बैठे लोग एनजीओवाले हैं.
सांझ तक टंगी धूल में
फुसफुसाहटें तैरती रहती हैं
कैमरे और कलम सरकते रहते हैं
काफिले दिल्ली, लखनऊ लौट जाते हैं
इंसाफ की लड़ाई का खम ठोंककर
अंधेरा होते होते बस पेड़ रह जाता है
निपट अकेला
और उन दो खाली जगहों पर
एक तूफान डेरा डाल रहा है
धूलें, सारी फुसफुसाहटें लेकर वहां जमा हो रही हैं
कैमरे और कलम की सारी तस्वीरें, सारे बयान
दर्ज हो रहे हैं वहां
उन खाली जगहों पर बदायूं की बेटियों की
आखिरी चीखें और सांसें जिंदा हैं
वहां जिंदा हो रहा है
बेटियों की आखिरी चीखों और सांसों का विद्रोह
पेड़ के शरीर की खाली जगहें जानलेवा हैं
पेड़ की खाली जगहों की तरफ
उठती उंगलियों का खून जम चुका है
दिल्ली, लखनऊ के फेरेवालों का फरेब
खतरनाक हो चला है
पेड़ की खाली जगहों पर
तूफान को जिंदा होने दो
सवा सौ करोड़ के इस खाली मुल्क को एकदिन
वही जिंदा करेगाा
पेड़ की खाली जगहों में तब खुली हवा तैरेगी निडर
जैसे अभी टहल रहा है चांद ।

ये कैसी जम्हूरियत



मेरे दौर में ये कैसी राज़दारी है
ज़मीन हल्की है, हवा भारी है
गोलियों पर उसी ने नाम लिखा था
भीड़ में आज जिसकी तरफदारी है
तोड़ डाले बुतखाने के सारे खुदा जिसने
बुतपरस्तों से अब उसी की यारी है
इंसां जब से मौत का सामान बन गया
मुंबई तो कभी रावलपिंडी,धमाका जारी है
दिहाड़ी से दोगुनी थाली हो गयी है
ये कैसी जम्हूरियत कितनी मक्कारी है

फितरत

फितरत है, ठहरने से कोई मरता नहीं 
तालाब सड़ते हैं झीलें नहीं

शुक्रवार, 19 जून 2015

नींद


नींद भी ज़माने के निकम्मो सी हो गई है            
न आने के न जाने कितने बहाने ढूंढती है.

अच्छा लगता है

कभी यार, कभी फरिश्ता, कभी खुदा लगता है
गाढे वक्त में मददगार, क्या क्या लगता है
अपना सुना औऱ लिहाज भी नहीं रखा आपने
फरेब औरों का सुनना तो बड़ा अच्छा लगता है
अपने पसीने की पूरी कीमत मांगते हैं
हमारा ख़ून भी उन्हें सस्ता लगता है
शहर में सबकुछ मिलेगा,बोलिये क्या चाहिये
बाजार को मोटी जेबवाला अच्छा लगता है
साथ जीने मरने की कसमें पुरानी हो गयीं
लैला को मजनूं कहां अब अच्छा लगता है

शामें


पीली सी धूप भाग रही है 
बांस के सूखे पीले पत्ते उड़ाती 
कुछ धूल दूब भी 
कभी दालान कभी खेत 
कभी दीवार कभी पेड़
टकराती लड़खड़ाती दौड़ती है
बेवजह बेचैन सी
ना ठौर ना ठिकाना
ना पराया ना अपना
कुछ शामें यूं भी होती हैं
अनाम सी उचाट सी
नामुराद नाकाम सी .

रात अभी बाकी है


रात जब चमचम चांद 
निहारती है देर तक 
गुज़रे दिनों के परिंदे 
उड़ते हैं झुंड में 
अधूरी मुरादों के सूखे पत्ते 
झड़ते हैं दूर कहीं
धुंध सी लटकी रहती हैं 
हमारी बातें आसमान में
नदी की देह पर चांदी के डोरे 
पिरो जाता है कोई 
तुम्हारी सांसो के गुलाब 

महकते हैं चारों ओऱ
और मुलायम सी हंसी के रेशे 

उड़ते हैं बादलों तक
सर्द रातों के काफिलों की 

आहट अब आने लगी है
कि चलो अलाव जलाएं 

रात अभी बाकी है

लो आया मन-सावन


चारों पहर कोई बोलता है
पल छिन डोलता है 
मंदिर की आरती
सांझा-बाती
पहली बारिश की सोंधी खुशबू 
फुनगी पर डोलती सिंदूरी बूंद
कतरा कतरा रस-जीवन
लो आया मन-सावन.

रेखा


भोर का तारा-
गहरी रात में उतरती संतरी सुबह
कोहरे की नशीली महक
आदि और अंत के बीच खड़ा
दमकता लपकता प्रकाशपुंज.
एक अबूझ पहेली-
अनाम रिश्ता ढोता सिंदूर
दूर तक पसरा अकेलापन
अचानक से टपके कुछ बेनाम आंसू
और नरगिसी हंसी में लिपटे कुछ धूप से सवाल.
एक सरगम -
संदल का लहराता जंगल
दर्द गाता-गुनगुनाता दरिया
नीले आसमान को थपकियां देती रात
उमराव के अंजुमन का तराना अधूरा .
एक अदाकारा-
चांद से बेहतर ज़मीं की तामीर
इश्क को सलाम भेजती नज़र
लौ सी लपकती देह की लहराती कलाइयां
और चूड़ियों के बाज़ार का सबसे चमकदार रंग
एक अफसाना-
बंद दरवाज़ों के बाहर ठहरी राह
तिलिस्म में लिपटे दरो-दीवार
महफिलों में अदब से झुकती जवां सुरीली रात
और दूर आसमान में भटकते चांद का अमिताभ.

चुप्पियां

बहुत कमज़ोर करती हैं 
चुप्पियां जब शोर करती हैं.

पहेली


आधी रात ठेला खींचता
सरपट भागता वह
थोड़ी ही देर में ओझल हो गया.
श्मशान में खड़े आदमी
या फिर बहुत डरे आदमी की तरह था वह
लेकिन बहुत बेचैन
जैसे कर्ज में डूबा आसमान ताकता किसान
नौकरी ढूंढता डिग्रीधारी नौजवान.
बस दो मिनट के लिये मोड़ पर रुका था
पहले पीछे देखा
दूर तक रोशनी के खंभे सड़क पर
फिर आगे देखा
दूर तक रोशनी के खंभे सड़क पर
उसने फिर आसमान देखा
और देर तक देखता रहा.
एक बड़ी पहेली है
आखिर वो इतनी देर तक
क्यों ताकता रहा
अमावस का खाली काला अंधा आसमान.

बात बात बतरस है


वर्तनी
शब्द
व्याकरण 
आओ सब ले जाओ
मुझे ध्वनियां दे जाओ
मेरे घर के शब्द
अब बजते नहीं हैं.

आदमी

आदमी 
मरने के बाद 
कुछ नहीं सोचता 
आदमी 
मरने के बाद
कुछ नहीं बोलता
कुछ नहीं सोचने
और कुछ नहीं बोलने पर
आदमी
मर जाता है.

मंज़िल

मंज़िल की तलाश है या मंज़िल तलाश रही है
रहगुज़र से वही पुरानी धुन आ रही है ।
प्यासी शाम के तन पर टूटकर बरसा पानी 
दरिया को बारिश बिसरा गीत सुना रही है।

यादें

किसी नए सिले कोट पर
गिरी चिनगारी सी
रफ़ू के दाग़
छोड़ जाती हैं यादें.

एक खूबसूरत मकान की
दरकी दीवार में
गारे की लकीर सी
पड़ी  रहती हैं यादें

अनजाने ही
पुरवाई सी
किसी पुराने दर्द को
छेड़ जाती हैें यादें

ढलती रातों में
अलाव की आंच सी
पोर पोर
सहला जाती हैं यादें ॉ.

चिलचिलाती दोपहरी में
चक्कर काटती हैं चीलों सी
कहीं ना कहीं कुछ
ढूंढती रहती हैं यादें.

समय की पीठ पर
भागते सवार सी
धुंध और दूरियों में
सिमटती जाती हैं यादें. 

दीवाली



गीले बदन की सांझ घी के दिए जला रही है 
मन-घर महके है, देखो दीवाली आ रही है

प्रेम


कमल के पत्ते पर
मोती सा था
एक हवा बही
और बिला गया
स्याह पानी में
बदबू है
और सांप भी
कौन बताये
वो कहां गया ?

लिखावट


वक्त के टुकड़ों सी पड़ी हैं
बूढी रद्दियां
एक टुकड़े पर वो दिखी है
उस धूल सने चितकबरे वक्त को
टटोल टटोल परखा
ये मेरी ही है ।
दादा के यार, गांव का शिवाला
दालान के ठहाके, मुहल्ले का सड़ा नाला
सब याद आया
स्कूल की गीली पगडंडियों से
कोई आवाज लगाया -
यार तू कितनी दूर निकल आया।

ईर्ष्या


आईना तोड़ता हूं 
फिर देखता हूं
और तो़ड़ता हूं
फिर देखता हूं
जितने टुकड़े किये
उतना दिखता हूं
लेकिन पहले के मुकाबले
छोटा दिखता हूं ।

बीड़ी वाला आदमी

सड़क पर चलता 
यह आदमी 
बीड़ी सुलगाता है 
पीता है 
खांसता है 
फिर बैठ सुस्ताता है.

यह आदमी 
जो घर-बार 
जात-पांत
धर्म-संप्रदाय
सबकुछ छोड़कर आता है
बीड़ी अपनाता है.
बीड़ी की तरह सुलगता है
बीड़ी की तरह बुझता है.


भाषा

पानी है
बहने दो
हवा है
रहने दो
समय है
चलने दो
किसी फकीर का शाप है
जहां कहीं ठहर गई
बस्ती श्मशान बन गई.

बात


बात होनी ही चाहिए
जब बात ज़रुरी हो
कोई मसला हो ,कोई मुसीबत हो
कोई संकट हो, कोई मजबूरी हो
बात होनी ही चाहिए
जब बात जरुरी हो.
समय से पहले बात नहीं बनती
समय के बाद बात नहीं पचती
बात से बात निकल जाती है
बात से बात बन जाती है
बात होनी ही चाहिए
जब बात जरुरी हो
बात पर कोई टिक जाता है
बात पर कोई बिक जाता है
बात बात में अंतर बन जाता है
बात का बतंगड़ बन जाता है
बात होनी ही चाहिए
जब बात जरुरी हो

उम्मीद

कुछ बात ही ऐसी थी कि नींद जागी रही रात भर , 
उस भोर के तारे सी उम्मीद अटकी रही रात भर.

आग

जुगनू बंद किया था मुट्ठी में
आसमान निकल आया.
जहन्नुम अकेले जलता नहीं
जहान निकल आया.
कितनी आग थी सीने में
सोचना कभी आराम से
उसके काफिले का पानी भी
चट्टान निकल आया.

कार्तिक की एक शाम

गीली शाम बरसती है
कुछ कहती है
जवान ज़मीन खनकती है
कुछ कहती है,
सिली सिली साँझ के स्याह उजाले
रात झूमती चलती है
कुछ कहती है.

अफसाने

कई दर्द उभर आए तेरे जाने के बाद
अब इक तारा गायेगा दिन जाने के बाद.
मेरी कलम ने भी गढे थे अफसाने
बस अफसाने हैं अफसनों के बाद.

नक्सल


बारूदी गंध बुनती है
रात भर सपने आग के
जंगलों में उतरे हैं
जुगनू सरकार के.
गयी रात मैं जगा हूँ
कोई तो बात है
अब हाथ बदल गए हैं
हथियार के.

एक सवाल



कभी सन्नाटों से बातें करना याद आता होगा
कभी रिमझिम का संगीत आकर गुदगुदाता होगा
कभी बस्ती की वीरान दोपहरी भी खींच ले जाती होगी
कभी उसके होठों के गीले कोरों की मिठास ज़ुबान पर आज भी घुल जाती होगी
और कभी कामयाबी की इतनी मंज़िलें लांघने के बाद..
एक सवाल पास बैठ पूछता होगा...
इस आधी गीली आधी सूखी ज़िन्दगी का क्या किया जाए???

सच

सुबह तक जगना है मुझे, रात ज़रा सोने दो
सच सपनों में बचा है बस, उसको भी डुबोने दो

बरसात की रात


रात बरसी है रात भर
सुबह नहाकर आई है रात भर
रात भर कमबख़्त ख्वाब घेरे रहे
नींद जगाती रही रात भर.

सोमवार, 15 जून 2015

गुमां सी ज़िंदगी



भरम ही सही जिंदगी पर कुछ नाज़ कर लूं ज़रा 
सीने में सांस, हथेली में रोशनी बंद कर लूं ज़रा

पता है सोने के खेतों में फ़सलें नहीं उगतीं
क्या हुआ गर हुनर अपना भी आज़मा लूं ज़रा

कुछ टूटता रहा अंदर, उनके जाने की बात पर
मैं पानी हूं ये यकीन उनको दिला लूं ज़रा

कागज़ की कश्तियों की उम्र सा हूं नामुराद
बस दरिया के सीने में फना हो लूं ज़रा

शुक्रवार, 12 जून 2015

तुम रहना




तुम रहना ता
कि उम्मीद बची रहे
जैसे ठूंठ पीपल की फुनगी पर बची है एक कोंपल
तुम रहना ताकि विश्वास बचा रहे
जैसे मेरे गांव की बाबू टोली में बचा है सुभान मियां का घर
तुम रहना ताकि ईमान बचा रहे
जैसे बचा है मेहनत मजूरी के पैसे में नमक
तुम रहना ताकि पहचान बची रहे
जैसे बची हैं कुछ फसलें वर्णशंकर बीजों से 
तुम रहना ताकि हंसी बची रहे
जैसे बचा है दिनभर देह पीटकर लौट रही मां के सीने में उतरता दूध
तुम रहना ताकि रसोई बची रहे
जैसे बचा है घर में पिज्जा बर्गर के बावजूद जीभ पर दाल भात का स्वाद
तुम रहना ताकि प्यार बचा रहे
जैसे बची रहती है कड़कड़ाती ठंड में भी तुम्हारी हथेलियों की गरमाहट


तुम रहना

गुरुवार, 11 जून 2015

क्योंकि पापा हैं

क्योंकि पापा हैं
पापा हैं तो पता ही नहीं चलता कि कितनी जिम्मेदारियों और मजबूरियों से फारिग हूं. पापा हैं तो नाता-रिश्ता, न्योता-हंकारी की चिंता से मुक्त. पापा हैं तो घर की रंगाई पुताई और सफाई से लेकर खेती बाड़ी की परेशानी से दूर. एक पापा कितना कुछ संभाले रहते हैं और ऊपर से यह भी पूछते रहते हैं कि बेटा कोई कमी बेसी हो तो बताना मैं हूं. पिछले कई घंटों से पापा में ही उलझा हूं. इतने तनाव में और इतना बेचैन शायद कभी नहीं रहा. पटना में आईसीयू में हैं. डॉक्टर कह रहे हैं लीवर की वजह से पेट में ब्लीडिंग हुई है. आगे ऐसा फिर हुआ तो खतरनाक हो सकता है. वैसे फिलहाल चिंता की कोई बात नहीें है.
पापा मेरे लिए बचपन से दोस्त की तरह ही रहे. तीन चार साल का रहा होऊंगा. कॉलेज से पढाकर शाम को गांव लौटते तो दूर पगडंडी से आते दिख जाते. मैं घर से सरपट दौड़ता और वे एक झटके में गोद में उठा लेते. पान से लाल अपनी जीभ मेरी जीभ से हल्का लगा देते और फिर गाते एबीसीडी छोड़ो. मैं तुतलाती सी अपनी आवाज में जोड़ता - नैना से नैना जोड़ो. ऐसे ही बाप बेटा झूमते झामते घर आ जाते.
तीसरी में रहा होऊंगा. पापा साईकिल खरीदने छपरा जा रहे थे. छपरा, गांव से दस किलोमीटर दूर है. मेरे हाथ में रोटी का रोल था . दादी ने थमा रखा था और पहला निवाला ही लिया था कि मां ने कहा - पापा आज नई साईकिल ले आएंगे. बगल में खड़े पापा को मैंने नीचे से देखा. वे थोड़ा मुस्कुराए और दो सेकंड बाद बोले - चलोगे ? मैंने सिर हिलाया. दिनभर क्या हुआ ये तो याद नहीं लेकिन जब हम हीरो की नई साईकिल लेकर आ रहे थे तो रात हो गई थी. चांद खूब निकला हुआ था और हल्की हवा चल रही थी. पापा ने मेरी दोनों टांगे दोनों तरफ रखकर पीछे करियर पर बिठा दिया था. बीच बीच में पूछते रहते - बेटा कोई दिक्कत होगी तो बताना. नहीं पापा ठीक है - मैं बोलता रहता. कोई चालीस मिनट लगे होंगे घर आने में. गांव में घुसने पर एक अफसोस हो रहा था और वो ये कि रात की जगह अगर दिन होता तो दोस्तों को दिखाता - देखो नई साईकिल.
उन्ही दिनों सुबह-सुबह अपने दोस्तों के साथ पापा ने प्लान बनाया. आज फिल्म देखेंगे. मुझे भी ले गए. पहली बार फिल्म देखने जा रहा था. छपरा के शिल्पी सिनेमा हॉल में फिल्म लगी थी. सिनेमा हॉल भी पहली बार देखा. फिल्म थी - संघर्ष . मुझे दिलीप कुमार के कमरे में संजीव कुमार का चुपके जाना आज भी याद है. आज भी दिलीप कुमार के पंडा दादाजी की लंबी कद काठी और बड़ी बड़ी आंखें याद हैं. तीन से छ का शो देखा था. निकले तो धुंधलका-सा था. सिनेमा हॉल के पास ही एक ठेली पर सभी रुके. ठेली पर एक बड़ा सा दिअा जल रहा था. उसी की रोशनी में ठेलीवाले ने अंडे फोड़े, करछुल में सरसों तेल और प्याज डाले और कागज पर गोल गोल आधे पके अंडे रखकर दिए. पापा ने झुककर कहा - बेटा खाकर बताओ कैसा है . इसको फ्रेंच टोस्ट कहते हैं. मुझे बहुत अच्छा लगा था.
पांचवी में था. मार्निंग स्कूल से लौटकर आया था और मां ने खाना खिलाकर सुला दिया था. पापा ने आहिस्ता जगाया. बेटा देखो पापा क्या लेकर आए हैं. सामने भाषा सरिता और नागरिक शास्त्र की नई किताबें थीं. स्कूल में एक रिवाज था कि दिसंबर में परीक्षा देने के बाद से ही आगे की क्लास के बच्चों के पास जाकर किताब के लिये जुगाड़ लगाने लगते. उनकी किताबें काम आ जातीं. मेरे लिए पापा हमेशा नई किताब लाते. लेकिन ये दोनों किताबें बाजार में तब नहीं थी इसलिए मैं पुरानी वाली से ही पढाई कर रहा था. दोनों की जिल्द और कुछ पन्ने फट चुके थे. चार-पांच महीने तो उनसे निकल गए थे लेकिन एक रोज पहले मैंने पापा से कहा मुझे चीकट किताबें अच्छी नहीं लगती. अगले दिन पापा किताबों के साथ कॉलेज से लौटे. मुझे आज भी वे दोनों किताबें ठीक वैसी ही दिखती हैं जैसी उस दोपहरी में आंख खोलते दिखी थीं.
सातवीं में था. स्कूल के स्पोर्ट्स टीचर ने क्रिकेट का पूरा किट मंगवाया था. उनका नाम दारोगा सिंह था. कुछ ही दिनों में क्रिकेट का अच्छा खिलाड़ी हो गया और क्लास का कैप्टन भी. घर लौटने के बाद क्रिकेट खेलने की बेचैनी घेरे रहती. जुगाड़ हुआ और गांव के बढई से लकड़ी का बल्ला बनवाया गया. बॉल खऱीदने के लिये पांच बच्चों की टोली छपरा भेजी गयी. सारा खर्चा साझा हुआ. हमारा छोटा सा उबड़-खाबड़ मैदान सड़क के किनारे हुआ करता था. पापा अक्सर बस से उतरते और हमें क्रिकेट खेलते हुए कुछ देर देखा करते, फिर घर जाते. एक दिन पापा बस से उतरे तो क्रिकेट का पूरा किट थामे मेरी तरफ मुस्कुराते बढ रहे थे. मैं खेल छोड़कर उनकी तरफ दौड़ा. उनके एक हाथ में बल्ला और बॉल थे और दूसरे में विकेट. पापा मुझे दौड़ता देख थोड़ा झुके, दोनों हाथों का सामान नीचे जमीन पर रख दिया और उन्हें मेरी तरफ फैला दिया. मैं उनके सीने से चिपक गया और देर तक चिपका रहा. पूरे जवार में मैं पहला बच्चा था जिसके पास क्रिकेट का किट था .
दसवीं में था तो सुबह तीन चार बजे तक अक्सर पढता. दुआर पर टेबल लगाकर या फिर दालान की कोठरी में या फिर मां के कमरे में. रात में कभी डर लगता तो धीरे से आवाज लगाता - पापा. फौरन जवाब आता - हां बेटा. ज्यादातर दफा वे वहीं कहीं आसपास होते, जहां मैं पढ़ रहा होता. देर रात तक पढने की आदत मेरी उनके चलते ही लगी. वे खुद अपनी क्लास के लिये पढते और मैं अपने लिए. धीरे धीरे ऐसा होने लगा कि पापा ११-१२ बजे तक सो जाते और मैं पढता रहता. सुबह कभी किसी को मुझे जगाने नहीं देते. देर तक सोता रहता और लगता कि स्कूल छूट जाएगा तो खुद आते. मेरा शरीर आहिस्ता आहिस्ता दबाते रहते मेरे जगने तक. मेरी नींद को भी पता हो गया था कि अब उसके जाने का वक्त हो चला है.
ऐसी हजारों बाते हैं जो पापा के साथ चलती हैं और आज ज्यादातर बातें पिछले कई घंटों में यादों का रेला लेकर आती जाती रहीं. अभी छोटे भाई का फोन आया. बताया ठीक हैं. कल सुबह दस बजे तक सब ठीक रहा तो बाकी टेस्ट होंगे. मैं जानता हूं - पापा को कुछ नहीं हो सकता. जीवट के जिंदादिल इंसान हैं. मुश्किल से मुश्किल हालात में उनको देखा है यही कहते - अरे यार जिंदगी में कुछ ऐसा नहीं जो बब्बन नहीं कर सकता. चाह दूं तो भगवान को रोक दूं. मैं मानता हू- उन्होंने जितना किया और जैसे किया वह साधारण नहीं है. लव यू पापा.

बुधवार, 10 जून 2015

मेरे खिलाफ पूरा लश्कर खड़ा है


मेरे खिलाफ पूरा लश्कर खड़ा है
मेरा वजूद क्या इतना बड़ा है!
ज़िक्र ना करने की ताकीदें हैं
मेरी तारीफ का खामियाज़ा बड़ा है.
लकीरें मिटाने से कहां मिटती हैं
वक्त है उसका आईना खरा है..