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सोमवार, 30 नवंबर 2015

कितना मुश्किल है माँ होना...



कितना आसां है कुछ भी होना 
कितना मुश्किल है माँ होना. 
Even God can't be as great as mother happens to be..!!
जुगनू दिखाकर वो तारों की कहानी कहती है
परिंदों के नाम के निवालों की थाली रचती है
देह से लगाती जैसे प्याली में प्याली रखती है
झील देखती जैसे सूरज, औलाद को तकती है
उसके कारण ही जिंदा हूं गीली आंखों कहती है
दुनिया तेरी तू जाने, वो मां है, मां सी रहती है

सोमवार, 2 नवंबर 2015

साहस


साहस- आसमान से नहीं आता
पाताल से भी नहीं निकलता
हवा, पानी औऱ नमक तक में
नहीं होता साहस.
तलवार, बंदूक या फिर गोलों में भी
नहीं हो सकता
साहस, कहीं होता है
हाड़, मांस या मज्जा में ही
ज़िंदा लोगों में होता है - साहस.

सोमवार, 19 अक्तूबर 2015

चलो छोड़ो भी अब

कितनी जरुरी लगती है, बस इक बात ही तो है
हर बात अधूरी लगती है, बस इक बात ही तो है.
कुछ तो है जो रुकता है, गोया सांस रुक गई
तुम कहते हो क्या है, बस इक बात ही तो है.
जोड़-घटाकर जिंदगी क्यों हिसाब करे मुझसे
सब तो हारे बैठा हूं, बस इक बात ही तो है.
तुम्हारी नीदों के परिंदे रात भर उड़ाता अगर
उड़कर मेरे पास आते, बस इक बात ही तो है.
उम्मीद का मारा फिर से उम्मीद लगाए बैठा है
शायद बहुरेंगे अबकी दिन, बस इक बात ही तो है.

शनिवार, 12 सितंबर 2015

किनारे


आधे गीले 
आधे सूखे
पानी और ज़मीन से
मुंहजोड़ चलते रहते हैं किनारे.
कभी ज़मीन खींच ले जाती है आगे
कभी पानी पीछे धकेल जाता है
अपने मन के कभी नहीं रहते
लेकिन नदी भरमन थामे रहते हैं किनारे.
कोई टूटी नाव
कोई उजड़ा गाँव
शव की बची राख
टूटी सूखी शाख
सबका इकलौता आसरा होते हैं किनारे.
आती जाती लहरें देखते हैं
सीने पर लोटती लहरें देखते हैं
बाट जोहती लहरें देखते हैं
देह कुरेदती लहरें देखते हैं
ना पकड़ सकते ना समेट पाते
प्यास की सबसे बड़ी परीक्षा होते हैं किनारे.
दायरा तोड़कर न नदी रह पाई
न सफ़र ख़त्म हो पाया कभी
जो बाज़ार में बैठा था
उसको घर नहीं मिला
जो इंतज़ार में लेटा था
वो सफ़र पर नहीं निकल पाया कभी
पहचान की पहली ज़रूरत होते हैं किनारे.

गुरुवार, 10 सितंबर 2015

बिहार में चुनावी बिगुल


बिहार में चुनावी बिगुल बजते ही पानी सियासी पारा अचानक चढ गया है. बीजेपी की अगुआई वाले एनडीए औऱ जेडीयू की अगुआई वाले महागठबंधन के बीच सीधी लड़ाई है. जातिगत समीकरण कहता है कि महागठबंधन के पास एक मजबत जनाधार है औऱ मोदी की बिहार में कामयाबी इस बात पर निर्भर करेगी कि वो इस वोट बैंक को किसी भी तरीके से कितना नुकसान पहुंचा सकते हैं . कुल मिलाकर मोदी के सामने बड़े सधे औऱ संभले तरीके से समूचा खेल खेलने की चुनौती है. इस पूरे चुनाव में तीन फैक्टर को डिफ्यूज करने पर बीजेपी खास ध्यान दे रही है ठीक वैसे ही जैसे बम डिफ्यूजल स्क्वैड की बस यही कोशिश होती है कि विस्फोट करानेवाले तारों को करीने से अलग कर दे. ये तीनों फैक्टर हैं- यादव, दलित औऱ मुस्लिम. पिछले लोकसभा चुनाव में मोदी की आंधी में मुसलमान अलग पड़ गया था औऱ वोटिंग जाति की दीवारों को तोड़कर हुई थी. सोलह महीनों बाद मोदी फैक्टर बिहार में भी कमजोर पड़ा है. हां इतना जरुर है कि वो आज भी वहां अपना वजन रख रहा है.
कोसी के इलाके में जहां यादवों का दबदबा है वहां वो पप्पू यादव को तैयार कर रहे हैं. पप्पू अगर हर सीट पर डेढ से दो हजार वोट काट लेते हैं तो कई सीटों के नतीजे बदल जाएंगे. बीजेपी को यह बात बाकायदा पता है कि मोदी की आंधी के बावजूद इस इलाके में उसको लोकसभा की सीटें नहीं मिल पाई थीं. इसकी वजह थी कि बीेजेपी ने यहां यादवों को अहमियत नहीं दी थी. इस बार वो पप्पू का इस्तेमाल लालू के हक में पड़नेवाले वोट में सेंध लगाने के लिये करना चाहेगी. बीजेपी यह भी चाहती है कि देश में मुसलमानों के उभरते तेवरदार नेता असदुद्दीन ओवैसी सीमांचल के इलाके में अपने उम्मीदवार उतारें. किशनगंज, कटिहार , अररिया , पूर्णिया में मुसलमानों की बड़ी आबादी है और यहां बीजेपी के जीतने की उम्मीद तभी बनती है जब मुसलमान वोट में कोई बड़ा धक्का लगाए. यह काम ओवैसी कर सकते हैं. ओवैसी की किशनगंज की रैली में जो भीड़ थी उसने इस बात का अंदाजा दे भी दिया. ये दीगर बात है कि ओवैसी अभी चुनाव लड़ने को लेकर वेट एंड वॉच वाले मूड में हैं. इसकी अपनी वजह है और अगर उनकी मुराद पूरी हो गयी तो आप उन्हें सीमांचल में पूरे दमखम से चुनाव लड़ते देखेंगे. तीसरा फैक्टर दलित वोट का है. 18 फीसदी वोटबैंक वाला यह तबका लोकसभा चुनावों में नीतीश के पास से निकलकर मोदी के साथ चला गया था. इस बार अगर मांझी को साधने में मोदी कामयाब हो जाते हैं तो दलितों का बड़ा तबका बीजेपी के साथ ही खड़ा दिखेगा. रामविलास पासवान के एनडीए में होने के चलते उसके थोड़ा बहुत बिखरने की जो संभावना थी वो भी नहीं दिखती. मांझी को मौजूदा स्थिति में अपनी हैसियत पता है इसलिए वो मोलभाव भी ठोक बजाकर कर रहे हैं. कुल मिलाकर बिहार का चुनाव महागठबंधन के लिए पारंपरिक जातिगत वोट बैंक का खेल है औऱ बीजेपी के लिये अपने वोट बैंक ( अगड़े और यादव बगैर ओबीसी ) को संभालने के साथ साथ महागठबंधन के वोट बैंक को किसी और के जरिए तोड़ने का स्मार्टगेम. दोनों तरफ के लोगों को एक दूसरे की चालें समझ में अा रही हैं. महागठबंधन के लिये मैदान तैयार है जबकि एनडीए को अभी अपने साथी साधने हैं. खैर, खेल तो शुरु हो ही गया है भाई.



बुधवार, 9 सितंबर 2015

सुनना


कभी कभी बहुत कहकर भी 
अधूरा लगता है
कभी कभी बिना कुछ कहे भी 
पूरा लगता है
कुछ होता है जिसकी भाषा नहीं होती
कुछ भाषाएं होती हैं जिनका कुछ नहीं होता
एक दुनिया है शब्दों से परे
कुछ अनाम शब्द हैं
दुनिया से परे
पेड़ पेड़ से कुछ कहते तो होंगे
मुर्गे की बांग, कोयल की कूक का
मेंढक की टर्र टर्र, पपीहे की हूक का
कुछ मतलब तो होता होगा
नदी का गीत कोई समझता तो होगा
सन्नाटे की आवाज कोई सुनता तो होगा
मैंने कुछ नहीं कहा
ऐसा जरुरी नहीं
तुमने सुना नहीं
यह भी तो हो सकता है.

कहां हो पीलू ?


कुछ चीजों के होने का अहसास आपको अक्सर होता ही नहीं. अचानक एक रोज जब वो नहीं होती हैं तो लगता है कि अरे कहां गईं. फिर उनका ना होना उनके होने के मायने बताने लगता है. यहां खाली खाली सा इसलिए लग रहा है कि इस जगह जो पेड़ था वो अब नहीं है. इस मोड़ पर कुछ बदला बदला सा लग रहा है- ध्यान देने पर समझ में आता है सामने का मकान अपनी जगह नहीं है. घर में घुसते ही कुछ नया सा लगता है - पता चलता है कि अंदर की चीजों की जगहों की अदला-बदली कर दी गई है. दरअसल देखते देखते चीजों को उनके क्रम में देखने की आदत आंखों को हो जाती है. इसीलिए हम पहचाने रास्तों पर तब भी चल रहे होते हैं जब दिमाग किसी उधेड़बुन में लगा होता है लेकिन जैसे ही रास्ते पर कुछ नया सा होता है हम ठिठक से जाते हैं. अरे यार ये तो वो राह नहीं जिसपर हम कई बार आए हैं और आज जाना था . जीवन में जिन लोगों और चीजों से रोज रोज का वास्ता होता है उनको लेकर भी ऐसा ही होता है. उनके उनकी जगह पर ना दिखने या रहने पर खटका सा लगता है. आज जब घर पहुंचा, कार पार्क की और पीलू नहीं आई तो ऐसा ही लगा. अमूमन गेट से ही गाड़ी के आगे आगे दौड़ती रहती है. मेरे कार से उतरने के बाद भी वो आगे आगे और मैं पीछे पीछे. बार बार झटके से पीछे देखेगी और फिर आगे . आधा मुझे और आधा रास्ते को देखती रहती है. शरीर को यूं मोड़कर रखती है कि जितनी आसानी से पीछे देख सके उतने ही आराम से आगे भी. गोया कह रही हो मेरे पीछे पीछे आओ घर पहुंचा दूंगी. पहुंचा भी दिया करती है. दरवाजे पर जाकर खड़ी हो जाएगी, फिर सिर उठाकर मुझे देखेगी. दरवाजा जैसे ही खुलेगा चुपचाप लौट जाएगी. यह उसका रोजाना का जैसे काम-सा हो. बारिश में भी मैंने कभी उसको नदारद नहीं पाया. अपने दोनों बच्चों को किसी ओट में रखकर भीगते हुए दौड़ी आएगी. तब तेज तेज चलती है ताकि मैं जल्दी अंदर चला जाऊं और वो अपने बच्चों के पास. कुछ दिनों से बीमार रहने लगी है. कमजोर भी दिखती है. मेरी नजर मिल जाएगी तो टुकुर टुकुर देखती रहेगी. कभी कभार बालकनी से पूछा करता हूं - पीलू क्या हाल है? कुछ खाई? आजा कुछ खा ले. चुपचाप बालकनी की रेलिंग के पास आकर खड़ी हो जाएगी. मैं घर में आवाज लगाता हूं - यार पीलू आई है. अंदर से कुछ ना कुछ खाने को आ जाएगा या फिर दूध कटोरा भर. लेकिन कभी मैंने उसे पहले खुद खाते या पीते नहीं देखा. दोनों बच्चों के पेट भऱने का इंतजार करेगी और उनके हट जाने के बाद बचा खुचा खा-पी लेगी. मैं कई बार सोचता हूं कि कहने को तो कुतिया है लेकिन ममता से यह भी भरी हुई है. मां ही एक रिश्ता है जिसका प्यार धऱती के सभी जीवों में बराबर सा दिखता है. पीलू मेरी सोसाइटी के कुत्तों की जमात में थोड़ी अलग-सी है. कई दफा उसने आती जाती कामवालियों को काटा है. उससे वे सारी डरती भी हैं. मैंने एक दफा पूछा कि क्यों काटती है तो पता चला कि उसके बच्चे को जिसने भी मारा उसको आज नहीं तो कल वो काटेगी ही. पीलू की तरफ मेरी नजर तब जाना शुरु हुई जब मेरे घर में शेरी आई. बात पिछले साल दिसंबर की है. मुझे सबसे ज्यादा कुत्तों से नफरत रही है. इसलिए मैंने हमेशा कुत्ता पालने की हर फरमाइश को पूरी ताकत से काटा और यह कहते हुए दफ्तर गया कि आज के बाद ऐसी कोई बात होनी नहीं चाहिए. दिसंबर में एक रोज दफ्तर से आया तो देखा पूरा परिवार एक कुत्ते के चारों ओर जमा है. थाली में उसका खाना रखा है और वो आराम से खा रहा है. मुझे देखते ही रुक गया. सही कहूं तो सहम गया. मेरे बच्चों के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं. पत्नी चुपचाप मुझे देख रही थीं. मैं बिना कुछ बोले ड्राइंगरुम में बैग रखकर बेडरुम में कपड़े बदलने चला गया. थोड़ी ही देर में वो नया मेहमान मेरे पास आकर खड़ा हो गया. मैं उसे देख रहा था और वो मुझे. मैंने कहा बाहर जाओ. वो खड़ा रहा. मेरी आवाज ऊंची हुई- बाहर जाओ..। वो मेरे पैरों के पास अपना पूरा शरीर समेटकर बैठ गया. जैसे कह रहा हो तुम गुस्से में हो, मुझे मारना चाहते हो, मार लो, लेकिन बाहर मत भेजो. मैंने कुछ कहा नहीं. कपड़े बदले खाना खाया और सो गया. घर के लोगों ने भी कोई बात नहीं की और वे सारे दूसरे कमरे में सो गए. सुबह कोई चीज मेरे शरीर से रगड़ खाती हुई सी लगी. आंख खुली तो नया मेहमान पैरों को, पीठ को, गर्दन को सूंघ रहा था. मैं उठकर बैठ गया. जोर से चिल्लाया- बाहर जाओ. क्या तमाशा है ये. अब कुत्ता मेरे बेड पर चढेगा. मैंने उसको धक्का देकर नीचे फेंक दिया. वो नीचे जाते ही समूची देह समेटकर बैठ गया और मुझे घूरने लगा. तभी पत्नी आ गयीं- क्या है. अब तो गुस्सा थूक दो. बिच है. इसका नाम शेरी है. कामवाली दीदी के यहां रहती है. वो तीन दिन के लिये गई हैं , उनके दामाद का एक्सिडेंट हो गया है, इसलिए छोड़ गयी हैं- पत्नी ने थोड़े तेवर में ही कहा. बस तीन दिन फिर तो चली ही जाएगी. उन्होंने कहते हुए चाय की प्याली थमा दी. मैंने भी आगे कुछ कहा नहीं. टीवी खोला औऱ चाय पीने लगा. जब दफ्तर जाने लगा तो शेरी पैरों से लगभग लिपट सी गयी. जूते, पैर , हाथ चाटने लगी. इन सारी चीजों से मुझे नफरत है लेकिन पता नहीं क्यों मैं थोड़ी देर के लिये खड़ा रह गया. ना कुछ कहा और ना कुछ सोच पाया. बस उसे देखता रहा. कुछ ही देर में उसने अपनी आंखे ऊपर की, मुझे देखा और झटके से बैठ गयी. दोनों पिछले पैर पेट के नीचे और आगेवाले मेरे जूतों के ऊपर. ऐसा लगा जैसे कह रही हो - मुझे माफ कर दो. रख लो अपने पास. मैंने ऐसा ही माना भी. दरवाजा खोला औऱ चला गया. पहली बार किसी कुत्ते की हरकत पर कुछ बुरा नहीं लगा था. रात में जब दफ्तर से लौट रहा था तो शेरी का ख्याल आया. सुबह मुझे सूंघते हुए और आफिस आते समय चाटते हुए दिखने लगी. सोचा अभी जाऊंगा तो क्या करेगी. यह सवाल मेरे भीतर कौतूहल पैदा करने लगा. मैं ज्लदी से घर पहुंचना चाहता था. जैसे की कॉल बेल बजी लगा कोई बहुत तेजी से दरवाजे तक आया और उसको धक्का दिया. थोड़ी देर में दरवाजा खुला तो बेटे ने कहा आपकी गाड़ी जैसे ही रुकी रुम से दौड़कर दरवाजे तक आई, फिर अंदर कमरे में और फिर दौड़कर दरवाजे तक. मैंने कहा अच्छा. तो इसको पता है कि मैं आ गया. बेटे ने कहा हां. कुत्तों की यही तो खासियत होती है वो एकबार स्मेल कर लें तो फिर दूर से ही अंदाजा लगा लेते हैं कौन आया. मैंने बैग रखा और जूते खोले. मोजों को जैसे ही हाथ लगाया शेरी ने उनको खींचना शुरु किया और बारी बारी से दोनों को खींच भी लिया. मैं हल्का मुस्कुराया और फिर अपने कमरे में चला गया. वो पीछे पीछे आ गयी. मैंने आहिस्ता उसके शरीर पर हाथ रखा और फिर फेरने लगा. वो दम साधे खड़ी हो गयी. शायद वो मेरा पहला लगाव था. इसके बाद शेरी मेरे अंदर अपनी जगह बनाती चली गयी औऱ आज वो ना दिखे तो परेशना हो जाता हूं. कामवाली दीदी जब लौटीं तो उनको कह दिया गया अब शेरी यहीं रहेगी. उन्हें भी उसकी देखरेख और खिलाने-पिलाने से मुक्ति मिल गई. शेरी अब घर के एक सदस्य की तरह हो गई. शुरु से ही उसकी पीलू से बिल्कुल नहीं बनती है. एक बालकनी के अंदर औऱ दूसरी बालकनी के बाहर तबतक झगड़ती रहती हैं जबतक दोनों में से किसी को हटा नहीं दिया जाए. पीलू ने कब से मेरी कार के आगे आगे चलना शुरु किया यह तो ठीक ठीक याद नहीं लेकिन धीरे धीरे सोसाइटी के अंदर आते ही उसको नजरें ढूंढने लगीं. वह गेट से दस कदम अंदर खड़ी मिलती और फिर कार के आगे आगे घर के सामने तक दौड़ती रहती. कार के बाहर मेरे निकलने से लेकर घर के दरवाजे तक साथ चलना उसकी आदत सी हो गयी. आज जब नहीं आई तो घऱ में आते ही सबसे पहले मैंने पत्नी से पूछा- यार पीलू कहां है. उन्होंने कहा कहीं छिपी होगी. आज नगर निगमवाले आए थे सोसाइटी के सारे कुत्तों को गाड़ी पर लादकर ले गए. पीलू को पता नहीं कैसे यह बात समझ में आ गई. वो अपने दोनों बच्चों को लेकर ११५ नंबर वाली आंटी के घर के पीछे की झाड़ियों में छिप गयी. शाम को जब मैं उसको ढूंढ रही थी तो आंटी ने ले जाकर दिखाया. तब भी झाड़ियों में ही बैठी थी. मैंने उसका खाना वहीं पहुंचा दिया. पत्नी ने कहा. लेकिन वो नगर निगमवाले कल भी आएंगे तो उसको जाना ही पड़ेगा. ढूंढ ही लेंगे- कुछ पल चुप रहने के बाद उन्होंने अपनी बात आगे जोड़ी और थोड़े भारी मन से. मैंने कहा अच्छा है सोसाइटी में कुत्ते ज्यादा हो गए थे. रोज किसी ना किसी को काट लेते थे. नगर निगमवाले उनको जंगल में छोड़ आएंगे. फिर एकबारगी लगा- बेचारी इनदिनों बीमार रहती है. अब तो ज्यादा तेज चल भी नहीं पाती. जहां जाएगी वहां अपने लिए शायद खाना जुटा भी ना पाए. दूसरे छीन झपट कर खा जाएंगे. तीन महीने पहले पीलू के थन के पिछले हिस्से में बड़ी सूजन सी हो गई तो मवेशियों के एक डाक्टर को मैंने बुलाया. उसने कहा सर इसको कैंसर है. कुछ दिनों की मेहमान है. इसका अब इलाज नहीं हो सकता. उस िदन के बाद से मैं बालकनी में जब भी खड़ा रहता हूं और वो आसपास होती है तो उससे थोड़ी बात जरुर करता हूं. वो शायद समझ भी लेती है. जैसे ही पूछता हूं कुछ खाओगी और भूख लगी होगी तो पूंछ हिलाती पास आ जाएगी वर्ना अपनी जगह पर खड़ी रहेगी. पीलू कहां हैं तुम्हारे बच्चे ? सुनते ही आसपास दौड़ने लगती है. दोनों को ढूंढकर अपने पीछे पीछे ले आएगी. कई दफा उसकी आंखों से साफ साफ लगता है मानो कह रही हो इनको कुछ खिला दो ना. वैसे भी हर बार कुछ ना कुछ खाने को दिलवा ही दिया करता हूं. लेकिन कल जब वो चली जाएगी या फिर कुछ दिनों में दम तोड़ देगी तो उसके दोनों बच्चों को उसके होने का मतलब पता चलेगा . आज मुझे उसका नहीं आना बहुत खला .

कृष्ण : एक महानायक के मानक



कृष्ण हिंदू देवी देवताओं में सर्वाधिक लोकप्रिय हैं. आज भी कृष्ण भक्तों की तादाद दुनिया में सबसे ज्यादा है. जिस धूमधाम से कृष्ण जन्मोत्सव मनाया जाता है, वैसा उत्सव किसी भी दूसरे देवता के जन्म को लेकर नहीं होता. मुझे हमेशा से ये लगता रहा कि कृष्ण एक ऐसा चरित्र है जिसमें अपार संभावनाएं हैं. भारतीय समाज में नायक होने के जितने भी जरुरी गुण होने चाहिए वे सभी कृष्ण के पास हैं. उन्हें १६ कलाओं में निपुण माना जाता है जबकि राम को सिर्फ १२ कलाओं में. वैसे हो तो यह भी सकता है कि चूूंकि राम सूर्यवंशी थे इसलिए सूर्य की १२ कलाओं से उनको जोड़कर देखा जाता हो और कृष्ण चंद्रवंशी थे इसलिए चंद्रमा की सोलह कलाओं से उनका संबंध माना जाता हो . ठीक से समझें तो ये कलाएं दरअसल शास्त्र हैं. खैर, मैं कई मोर्चों पर कृष्ण में विलक्षण प्रतिभावाला नायक देखता हूं. यह ठीक है कि उन्होंने पांच महापाप किए जिसे आप बर्बरीक वध, भीष्म वध, द्रोण वध, कर्ण वध औऱ दुर्योधन वध कहते हैं, लेकिन वेदव्यास ने इन हत्याओं को सत्य के लिये आवश्यक बताकर कृष्ण की रणनीति को सही ठहराया है .

कृष्ण में इतना साहस है कि वो विदर्भ जाकर रुक्मिणी को भगा लेते हैं और वो भी शिशुपाल- जरासंध की सेना को पानी पिलाकर. प्रेम के लिये वो अपनी प्रतिज्ञा से टममस नहीं होते हैं और रुक्मिणी से विवाह करते हैं. प्रेम के इतने बड़े नायक है कृष्ण कि राधा संग अनुराग को प्रेम की संपूर्णता दे देते हैं . जयदेव का गीत गोविंद कृष्ण-राधा के प्रेम को जिस ऊंचाई पर ले जाता है वैसा मैं कहीं और पढ नहीं पाया.

जिसतरह से कृष्ण की आठ पत्नियां थीं, उसी तरह के उनकी आठ प्रेमिकाओं का विशेष तौर पर वर्णन मिलता है. ब्रम्हवैवर्त पुराण कहता है कि राधा के अलावा चंद्रावली, श्यामा, शैव्या, पद्या , ललिता, विशाखा और भद्रा भी कृष्ण की अनन्या प्रमिकाएं थीं. इनमें से ललिता को मोक्ष नहीं मिल पाया तो उसने बाद में राधा के रुप में जन्म लिया.
द्वारका में मणि चोरी का आरोप जब सत्राजीत ने कृष्ण पर लगाया तो उस मणि की खोज में वे आखिरकार जामवंत से लड़े और मरते हुए जामवंत की पुत्री जामवंती का हाथ थामा. सत्राजीत जब अपने आरोप के गलत साबित हो जाने के बाद प्रायश्चित पर आया तो बहन सत्यभामा का विवाह कृष्ण से कर दिया. प्रेम को लेकर कृष्ण कई तरह के प्रश्नों के घेरे में रहते हैं लेकिन अगर आप गौर से देखें तो उन्होंने हर जगह उसे संतुलित और मर्यादित रखा है.

कृष्ण द्वारका के सबसे लोकप्रिय औऱ न्यायप्रिय राजा बने. राजा के रुप में राजनीति को जैसा कृष्ण ने बनाया और कूटनीति को जितना साधा, उतना किसी और नायक में दूर दूर तक नजर नहीं आता. धर्म, दर्शन और योग में सबसे बड़े ज्ञाता दिखते हैं कृष्ण. पिछले दस साल में द्वारका पर जितना काम हुआ है उसके आधार यह संभावना भी जताई जाती रही है कि आनेवाले दिनों में कृष्ण के बारे में कई महत्वपूर्ण जानकारियां मिल सकती हैं.

कृष्ण मित्र ऐसे हैं कि सुदामा के साथ उन्होंने मित्रता की वही ऊंचाई स्थापित की जो राधा के साथ प्रेम की. द्वारका के रास्ते में समुद्र के अंदर पांच किलोमीटर के दायरे में फैला भेंट द्वारका कृष्ण और सुदामा की भेंट के कई प्रमाण लिए हुए है.
दरअसल कृष्ण ने सत्य को संसार की व्यावहारिकता और आमजन के हित से जोड़कर देखने का सिद्दांत तैयार किया. छल भी सही है अगर उससे बड़ी आबादी का भला होता है. प्रेम में भाव की प्रगाढता को हमेशा मानक रखा, विजय में साधन से अधिक संधि और संघात को कारगर माना औऱ संबंध में समय पर स्वंय को सिद्द करने को अनिवार्य. इसीलिए मुझे कृष्ण को लेकर देवता से अधिक नायक का बोध होता है. एक ऐसा नायक जिसे संपूर्ण अवतार कहा जाता है- विष्णु का आठवां अवातार.

अजीत अंजुम बज़रिए दिग्विजय सिंह



अजीत जी (अंजुम) का थोड़ी देर पहले एफबी स्टेटस पढा तो मुझे लगा सुबह से मैं जो सोच रहा था उन्होंने वो कर दिया. इसलिए उस बारे में आगे कुछ लिखने करने की जरुरत नहीं है. अजीत जी को पिछले १२-१३ साल से जानता हूं. टीवी न्यूज इंडस्ट्री में बहुत कम लोग हैं जो काम अपनी शर्तों पर और जीवन कुछ दायरे में जीते हैं. अजीत जी उनमें से एक हैं. २००३ में आजतक में नाइट शिफ्ट में था. रनडाउन मेरे जिम्मे था और अजीत जी शिफ्ट इंचार्ज थे. तब रनडाउन बड़ा आतंक हुआ करता था. कोई हाथ लगाने की हिम्मत भी नहीं करता था. मां घर से आनेवाली थी और ट्रेन सुबह ७.३० बजे दिल्ली पहुंच रही थी. मैंने पांच बजे अजीत जी से कहा मुझे ६.३० बजे स्टेशन के लिए निकलना होगा, अखिल भल्ला सुबह आ जाएगा तो रन संभाल लेगा. मेरी बात हो चुकी है. अजीत जी ने कहा ये कैसे होगा. पता नहीं वो कब आएगा. आप नहीं जाइएगा. मैंने ऐसी उम्मीद की नहीं थी. सो झटका सा लगा. आदमी अनुशासित हूं लेकिन बहुत जिद्दी भी, इसलिए मैंने दोबारा रनडाउन संभाल लिया और तय कर लिया कि मां स्टेशन पर घंटा भर इंतजार कर लेगी लेकिन जाऊंगा सुबह आठ बजे ही- शिफ्ट खत्म होने के बाद. वादे के मुताबिक अखिल ६.४५ के आसपास आ गया. अजीत जी को शायद ये लगा कि उन्होंने जो कहा वो ठीक नहीं था. मेरे पास टहलते हुए आए और बोले आप स्टेशन चले जाइए, अब सब हो जाएगा. मैंने कहा नहीं आठ बजे ही जाऊंगा. वो कुछ कहते रहे, मैं सुनता रहा लेकिन मैंने शब्द भर भी आगे नहीं जोडा. आठ बजने से पहले मैंने अपना इस्तीफा लिखा लिया और निकलते समय उनको मेल कर दिया. जिस कंपनी में मां के लिये समय नहीं मिल पा रहा हो, उस कंपनी में मैं काम नहीं कर सकता. मेरी ये शिकायत ही मेरा इस्तीफा है. आगे भेज दीजिएगा. ऐसा ही कुछ लिखा था मैंने. दफ्तर से निकलने से कुछ देर पहले मां ने फोन कर दिया कि साथ में गांव के एक चाचा है उनके साथ घर जा रही हूं, तुम सीधे घर ही आना. तब मेरे पास मारूति ८०० कार थी. वीडियोकॉन टावर के नीचे आया, आंखे उठाकर बिल्डिंग को एकबार देखा, सुबह के लिये रात से जो नेवीकट बचाकर रखी थी वो जलाई और निकल गया. पंचकुइयां रोड जहां सीपी में दाखिल होती है उस जगह मैं पहुंचा ही था कि अजीत जी का फोन आया. मैंने काफी सोचने के बाद फोन उठाया. छूटते ही दूसरी तरफ से आवाज आई- कहां हैं आप. मैंने कहा सीपी. आप वहीं रुकिए मैं आ रहा हूं. मैंने कहा अजीत जी घर जाने दीजिए थका हुआ हूं. नहीं आप रुकिए मैं पांच मिनट में आया. मैंने आउटर सर्किल में पंचकुइंया रोड के आगेवाले पेट्रोल पंप के पास कार खड़ी कर दी. ठीक पांच-सात मिनट में अजीत जी आ गये. दोनों एक दूसरे के आमने सामने थे और किनारे आगे पीछे कारें खड़ी थीं. देखिए मैं कुछ ही महीने पहले आया हूं, रनडाउन आता नहीं है, हेडलाइंस भी आप देखते ही हैं कि अखबार देख देख बार बार काटता छांटता रहता हूं. रातभर खबरों में आपके साथ मरता खपता रहता हूं. मैं मानता हूं कि ऐसे मुझे नहीं बोलना चाहिए था लेकिन वो मेरी घबराहट थी. आपके रहने से कुछ चीजें संभली रहती हेैं. इसलिए मैं ऐसा रिएक्ट कर गया. आप इस्तीफा उस्तीफा नहीं देंगे. अजीत जी एक सुर में अपनी बात कहे जा रहे थे. सर्द सुबह थी और मेरी आंखें गीली. थोड़ी देर में उन्होंने मेरा दिल हलका कर दिया. हम दोनों फिर सुकून से अपने अपने घर लौट गए.
२००३ के आखिरी या फिर २००४ के शुरुआती महीनों में अजीत जी और संजीव पालिवाल दोनों सीनियर प्रोड्यूसर आजतक छोड़ रहे थे. मेरी पीठ में जनवरी २००४ में गंभीर चोट लग गयी थी जिसके चलते अस्पताल में महीने भर भर्ती रहा . महीने भर बाद जब २४ फरवरी को आजतक दफ्तर पहुंचा तो सल्तनत बदल चुकी थी . उदय शंकर जा चुके थे औऱ बतौर न्यूज डायरेक्टर नक़वी जी की आजतक में वापसी हुई थी. इंक्रीमेंट और प्रोमोशन के लेटर बंट रहे थे. शाज़ी ज़मां हमारे ईपी आउटपुट थे और वही मुझे लेकर नक़वी जी के कमरे में गए. अपरेज़ल लेटर मिला तो आंखों पर यकीन नहीं हो रहा था. वेतन में दो गुना से ज्यादा का इजाफा और सीनियर प्रोड्यूसर के तौर पर प्रोमोशन. बाद में एचआर हेड ने मुझे बताया कि अजीत अंजुम जब एक्जिट इंटरव्यू दे रहे थे तो उन्होंने कहा कि अगर किसी को प्रोमोट कर सीनियर प्रोड्यूसर बनाना है तो आप राणा यशवंत को बनाइए . यही बात संजीव पालिवाल ने भी कही थी. मुझे लगा यार जो आदमी बोलने में किसी बात का लिहाज नहीं करता, सुबह के बुलेटिन के लिये रात नौ बजे से आकर अपना प्रोमो चलवाना शुरु कर देता है, उसके लिए तनातनी तक कर लेता है, वो दिल का इतना साफ भी है. इंसान होने के नाते अजीत अंजुम खामियों से परे नहीं हो सकते. वैसे भी उनको उनकी तबीयत की वजह से नापसंद करनेवालों की जमात आबाद रहती है. लेकिन मैं ये दावे से कह सकता हूं कि अजीत अंजुम में कोई ऐसी खोट नहीं है जिसे आप उनके इंसान और प्रोफेशनल होने की बुनियादी जरुरत के खिलाफ मानें. इसी वजह से दिग्विजय सिंह और अमृता राय की शादी को लेकर बेहुदा और भोंडी टिप्पणियों को वे बर्दाश्त नहीं कर पा रहे. तकलीफ मुझे भी है, लेकिन ऐसे लोगों को अनफ्रेंड करने की बजाय उन्हें इस बात का अहसास कराना ज़रुरी है कि किसी के जीवन में ताक झांक करने या फिर फिकरे कसने की भी सीमा होती है. मर्यादा मैं नहीं लिख रहा. बस सीमा. सोशल मीडिया ने कई ऐसे काम किए हैं जो हम टीवी में नहीं कर पाते. कई मोर्चों पर एक क्रांितकारी हलचल सा दिखता है सोशल मीडिया. लेकिन निजता और नैतिकता के कई सवालों पर बारहा बेहद घटिया और ओछी सोचवाले लोगों का शिकार हो जाता है. दिग्विजय सिंह और अमृता राय की शादी में आखिर ऐसा क्या गलत हो गया कि भाईलोग आसमान सिर पर उठाए घूम रहे हैं. अजीत जी, मैं अनफ्रेंड तो नहीं करुंगा क्योंकि अचानक रिश्ते ( चाहे जैसे भी हों) काटने में मुझे तकलीफ होती है. लेकिन ऐसे दोस्तों से इतना जरुर कहूंगा कि देश दुनिया के बुनियादी सवालों पर सोचिए, बहस कीजिए और मजे लेने की इस बीमार मानसिकता को गोली मारिए.

बिहार : चुनाव का सर्कस



पटना के गांधी मैदान में महागठबंधन की रैली हो गयी. १ तारीख को भागलपुर में मोदी की रैली होगी. बिहार में अगर आप इनदिनों जाएं तो आपको मेले जैसा माहौल लगेगा. कोई गली नुक्कड़ नहीं बचा जहां पोस्टर बैनर नहीं लगे हों. दुकान-ठेले पर चुनाव चरित्र पर चाव से लोग बोल बतिआ रहे हैं. फिर एक बार नीतीशे कुमार और अबकी बार भाजपा सरकार के नारे पटे पड़े हैं. जिस राज्य में रोजगार आज भी बड़ा सवाल है, ह्यूमेन इंडेक्स पर जो राज्य देश में पिछली कतार में खड़ा है, उस राज्य में जो खेल चल रहा है वो भद्दा मजाक ही है बस.
हाल ही में गया गया था. रास्ते में एक जगह चाय-पानी के लिए रुका. चाय की गुमटी पर जेडीयू के पोस्टर लगे थे . बगल में दो खपरैल मकान थे जिनके बीच एक पतली गली पीछे खेत में जाती है. गली में दोनों घरों के आंगन से नाला निकल कर साझा हो रहा था. उसी गली में नाले की दोनों तरफ बची डेढ दो फीट की जमीन पर तीन छोटे बच्चे खेल रहे थे. इन्ही में से एक बच्चा जेडीयू के पोस्टर का एक टुकड़ा पकड़ कर लहरा रहा था . बचे हिस्से पर लिखा था - आगे बढता रहे बिहार. दूसरा हिस्सा कहीं हवा उड़ा ले गयी होगी. इन तीनों बच्चों के शरीर पर कपड़े नहीं थे . एक घर के दरवाजे से अंदर झांका तो एक महिला सूप से कुछ फटक रही थी. आगन के पार जो दीवार थी उससे सटा मिट्टी का चूल्हा था जिसके पास एक तसली औऱ एक कड़ाही पड़ी थी. बीमार अपाहिज आदमी की देह जैसी दोनों की दोनों दिख रही थीं. यही कोई दोपहर १२.३० के आसपास का समय रहा होगा. उस फटीचर टाइप मोड़ पर सामने सड़क के ऊपर बैनर लटका था जिसपर नरेंद्र मोदी की तस्वीर थी. नीचे लिखा हुआ था- तेज होगी विकास की रफ्तार, अबकी बार भाजपा सरकार. पटना से २००-२५० किमी का फासला तय किया होगा. मजाल है कहीं ऐसा लगे कि कुछ बेहतर हुआ है सिवाय राष्ट्रीय राजमार्ग के. सड़क की दोनों तरफ मवेशियों की चरवाही पर निकले बच्चे फुटबॉल उड़ाते या क्रिकेट खेलते या फिर निपट टंडलई करते दिखे. लोग ताश पर या फिर किसी साये में बैठकर टाइम पास करते दिखे. महिलाएं आगे पीछे बैठकर बालों में जूं तलाशती दिखीं और खपरैल या फिर फूस के घरों की कई बस्तियां दिखी. बिहार में आप किसी भी हिस्से में जाएंगे तो ज्यादातर जगहों पर मैंने जो अभीतक बताया है उससे १९-२१ ही आगे पीछे होगा. इसमें आप चुनाव के नाम पर पैसे का बेहुदा खेल खेल रहे हैं. लोगों की गरीबी औऱ अपनी बेशर्मी का इश्तेहार बांटे फिर रहे हैं. नीतीश कुमार के मौजूदा प्रचार अभियान पर ३०० करोड़ खर्च किए जा रहे हैं और बीजेपी भी भारी भरकम रकम बहा रही है. गली नुक्कड़ चौराहे तक पोस्टर हैं, पैम्प्लेट्स लेकर दौड़ रहे रथ हैं और अपनी स्थिति से बेफिक्र लुंगी खोंट , शर्ट का आधा बटन खोल, पगड़ी बांधे , पसीने से तर-ब-तर , हाथ लहराते , मस्ती में बतिआते लोगों का झुंड चुनाव प्रचार के पीछे दिखने लगा है. जाति का जहर असर करने लगा है, लामबंदी तेज करवाई जा रही है औऱ हो भी रही है. कोई दलित का पत्ता फेंक रहा है , कोई पिछड़े का और कोई मुसलमान का . कुल मिलाकर अपना काम बनता, भांड़ में जाए जनता वाली लाइन पर पूरा काम चल रहा है. कल चुनाव होगा और नतीजा भी आएगा. कोई जीतेगा, कोई हारेगा. कोई सरकार बनाएगा, कोई विपक्ष में बैठेगा. लेकिन इस पूरे खेल में बस बिहार ठगा जाएगा. नेताजी लोगों का क्या है - आज यहां कल वहां. पेट और आखेट दोनों भरपूर मिलता ही है. माल मलाई की दिक्कत होती नहीं है. एक बार विधायक जी हो गए तो कम से कम दो पुश्तों को तो सोचना नहीं ही पड़ेगा. साली जनता तो बुरबक है, चौपट लोग हैं . ना चलने का शऊर , ना बोलने बतिआने का तरीका. रुखा सूखा कुछ भी खाकर जिनगी काट ही देते हैं. बाल बच्चा कुछ किया तो ठीक नहीं किया तो राम भरोसे . ऐसे चौपट लोगों को चुनाव तक खूब दौड़ाओ, तरह तरह का नारा- चारा खिलाओ. नाटक नौटंकी दिखाओ. पुचकारो पोल्हाओ. जैसे भी हो अपना काम बनाओ. फिर तो पांच साल बाद ना. अभी तो गला फाड़ चिल्लाइए- फिर एक बार नीतीशे कुमार या फिर अबकी बार भाजपा सरकार.

आधी रात एक दोपहर


शनिवार की दोपहर चढ़ चुकी थी. दिन दमक रहा था. दफ्तर में मेरे कमरे के बाहर वाले हिस्से पर शीशे की दीवार है, इसलिए आसमान के आखिरी सिरे तक नजर बेरोकटोक जाती है. आसमान बिल्कुल नीला, बादलों के हल्के छोटे-छोटे छौने आहिस्ता आहिस्ता तैर रहे थे, दूर चार चीलें देर से चक्कर लगा रही थीं और सड़कों पर भी आवाजाही बहुत कम थी. बड़े दिनों बाद दिल्ली-नोएडा में किसी यूरोपीय शहर जैसी शांति पसरी थी. ऐसा माहौल कई बार कहता है कि कुछ लिखूं लेकिन हो नहीं पाता. दफ्तर में मैं उसूलन कोई और काम नहीं कर सकता, इसलिए मन को मोड़ देता हूं जब कभी ऐसा ख्याल आता है तो. शनिवार को अंदर से ऐसा ही महसूस होने लगा कि चलो मोहन प्यारे आज कुछ कर ही देते हैं. लेकिन उसूल मजबूत निकला और दफ्तर के जरुरी काम में धंस-फंस गया. ये मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मैं दफ्तर से घंटे भर के लिये भी बाहर जाता हूं तो लगता है गलत कर रहा हूं. मुझे मेरा समय अपनी टीम, अपने चैनल को देना चाहिए. कहीं बाहर हूं तो कोशिश करता हूं कि एडिट मीटिंग तक कोई भी फ्लाइट-गाड़ी पकड़ कर ऑफिस आ जाऊं. जाने का समय तो वही है- रात साढे दस के आसपास. कोई कमरे में देर तक बैठ जाए तो उकताहट सी होने लगती है. इसलिए मुझे कई बार यह सवाल परेशान करता है कि किसी दिन काम ना रहे तो क्या मैं जीवित रह पाऊंगा. ये सवाल जीवन से जुड़ा है, इसलिये जरुरी है. मगर जैसी मेरी फितरत है, अक्सर ये ख्याल मज़बूत हो जाता है कि कल की कल देखेंगे. आज को पूरा जियो और इतना कि कोई अफसोस ना रहे. कुछ बातें जिन्हें मैंने उसूल के तौर पर अपनाया- उन्होंने मुझे बहुत सहेजा संवारा. काम के रास्ते में कोई समझौता नहीं, अपने साथियों के बारे में कोई उल्टी सीधी बात सुननी-कहनी नहीं, बेमतलब दूसरों के बारे में सोचना- समय बर्बाद करना ठीक नहीं, इंसान हैं इसलिए गलतियों-आलोचनाओं से आप परे नहीं- पहचानिए और ठीक करते रहिए, आपके किसी मित्र को आपके बारे में कोई गलतफहमी है तो समय का इंतजार करें- जवाब वही देगा और हर किसी को जवाब देना जरुरी नहीं- जिसका आपके लिए मतलब नहीं उसपर समय खर्च नहीं. इन बातों में हर किसी पर सौ फीसदी अमल करता हूं. जो चूक रह जाती है वो समय के साथ तालमेल ना बिठा पाने की है. लाख चाहकर भी इसका बहुत हिस्सा बेकार चला जाता है और जाते जाते तकलीफ दे जाता है. 
अब आप कहेंगे कि इतना प्रवचन आप किसको सुना रहे हैं या फिर अपना सर्टिफिकेट खुद क्यों दे रहे हैं तो मान लीजिए कि बस यूं ही. जी में कुछ बातें बैठी रहती हैं, मन करता है किसी से साझा करुं - कह नहीं पाता. कभी-कभी तेज बारिश खिड़की के बाहर दिखती है - मन करता है झूम झूम भीगूं. ऐसा कर नहीं पाता. कभी कभी शाम इतनी खामोश और खूबसूरत होती है कि कहती है कुछ ना करो, बस किसी के साथ निकल चलो- निकल नहीं पाता. कुछ अच्छा लगता है तो दिल चाहता है इस अच्छे के अहसास में कोई शामिल होता - हो नहीं पाता. जीवन में बहुत कुछ होते रहने के बावजूद बहुत कुछ के ना होते रहने का भी सिलसिला चलता रहता है. इस सिलसिले को कभी-कभी हम समझ पाते हैं लेकिन ज्यादातर दफा ये मर-खप जाता है. मैंे शायद इसको लगातर जीता रहता हूं . इसलिए जो करता हूं उसके बराबर जो नहीं कर पाता वो भी चलता रहता है. और ये रोज का मामला है. आप खुद ही सोचिए ना - चाहते हैं कि ऐसा करूं लेकिन करते करते भी बहुत सारी वजहों से वैसा नहीं हो पाता. इस करने और उस नहीं हो पाने दोनों के बीच आप ही तो हैं. इसलिए चलते दोनों हैं. अब आप किसको याद रखते हैं और किसको भूल जाते हैं ये आपके खुद के नजरिए पर निर्भर करता है. 
मुझे दो बातों से नफरत की हद तक चिढ है. एक है चुगली और दूसरी चाटुकारिता. मुझे दोनों में लिजलिजापन महसूस होता है. ये दोनों कमज़ोर और कमज़र्फ इंसान के साफ लक्षण हैं. वैसे तो अच्छा होने की कोई पहचान नहीं होती लेकिन कुछ बातों से दूर रहें तो आप खराब भी नहीं कहे जा सकते. इतना जरुर है कि आप चाहें तो हर ख़राबी को ख़त्म भी कर सकते हैं. मैं जब नौकरी में आया तो कुछ दिनों बाद सोचा कि दो तीन महीने बतौर ट्रेनी हो गए, अब वीओ करते हैं. लोगों को कम से कम मेरी आवाज तो सुनाई पड़ेगी. जब वीओ बूथ में गया तो वहां जो सज्जन अक्सर रहते थे, जिन्हें हम चाचू कहा करते थे , उन्होंने कई बार टोका और आखिकार कह दिया - यार तुम व्वॉयस ओवर कर ही नहीं सकते, तुम्हारे लहजे में बिहारीपन इतना है कि मज़ाक बन जाएगा. मैं दुखी हो गया लेकिन इसके बाद बाकियों को गौर से सुनने लगा. न्यूज देखता, रिपोर्ट सुनता और फिर वैसा ही बोलने की कोशिश करता . शुरुआत में लगा ये मेरे वश का नहीं लेकिन धीरे धीरे अंदर ये विश्वास मजबूत होता गया कि अगर मैं इतना अच्छा लिख-समझ सकता हूं तो बोल क्यों नहीं सकता. सालभर के भीतर उसी ज़ी न्यूज़ में मेरी आवाज़ दो तीन चुनिंदा आवाजों में शामिल हो गई. मैंने अपनी कमजोरियों से ही सीखा है, इसलिए मेरी गुरु वही हैं. पहले सपाट सीधा कहने में बहुत हिचक होती थी लेकिन अब जो खरा वो सही और जो खोटा उसको तुरंत टोका. 
आपके अंदर का विश्वास और लगातार लड़ते रहने का जज़्बा ही आगे के रास्ते खोलते हैं. इनमें से एक भी छूट जाए तो कामयाब होना मुश्किल है. करियर शुरु हुआ और उसी तेईस साल की उम्र में शादी हो गयी. दिल्ली शहर में दो लोगों का रहना और एक ट्रेनी की बहुत मामूली सी नौकरी . गद्दे,रज़ाई, तकिए चादर के लिये दीवाली के पहले पैसे की जरुरत पड़ी. दो शाम की रसोई चलाने के पैसे तो बचे थे लेकिन इन सब जरुरतोें के लिये कोई रास्ता भी नजर नहीं आ रहा था. तब बेरसराय में रहता था. पत्नी के साथ मुनिरका गया औऱ उन्होंने अपनी दो अंगूठियां बेचीं. ऐसी थी शादी के बाद की पहली दीवाली. पहला बच्चा अबॉर्ट हो गया क्योंकि डाक्टर की फीस और अल्ट्रासाउंड कराने लायक पैसे सिर्फ सैलरी से ही आ सकते थे और उसके आने में तीन दिन बाकी थे. जिस रोज पहुंचा डॉक्टर ने कहा दो दिनों से ब्लीडिंग थीं, आपने देर कर दी. 
जो जीवन दिखता है उसमें इन गहरे दबी, अनकही बातों-घटनाओं की जो भूमिका होती है उसको हम अक्सर भुला देते हैं. लेकिन हमारे आज को इन्हीं बातों-घटनाओं ने तैयार किया होता है. जब शनिवार को चीलों को उड़ते और बादल के छौनों को टहलते देखा तो शाम के नजदीक वाली ऐसी कई दोपहरें याद आ गयीं. कुछ मीठी तो कुछ खट्टी भी. मुझे चढी रात, चढी दोपहरी, फटती भोर हमेशा खींचती रहती हैं. इनमें दिलकश खामोशी होती है. बार बार दिमाग और दिल दोनों तो दावत देती हैं कुछ टटोलने- तलाशने, गुनने-बुनने के लिए. जीवन को समाज की खींची लक्ष्मण रेखाओं में नहीं बांधता लेकिन जीने की अपनी लक्ष्मण रेखाएं जरुर खींचता हूं. बिना सीमा-मर्यादा के इंसान और पशु का अंतर खत्म हो जाता है. लिहाजा इसका रहना जरुरी है. जिस दोपहर में दफ्तर में होने की वजह से लिख नहीं पाया वह आधी रात याद आई और आपके साथ न जाने क्या क्या साझा कर गया. उस वक्त लिखता तो शायद कोई कविता बनती लेकिन आज उसतरफ जाने का मन हुआ ही नहीं. वैसे भी मैंने एक दफा जो लिखा वही पहला और आखिरी लिखा होता है. ना कभी कविताएं काटी-छांटी ना कुछ और. मेरे लिखे में कुछ ऐसा-वैसा लगे भी तो टोकिएगा मत. बहुत निजी और बहुत अंदर की शायद पहली बार लिखी . शुभरात्रि.

सोमवार, 20 जुलाई 2015

साँस साँस उत्सव


पानी पकड़ता हूँ 
ख़ुशबू चुनता हूँ 
समय थामे रखता हूँ 
तुमसे ही जाना
देह में भी उतरता है वसंत 
फूटती हैं प्रेम की कोंपलें असंख्य
आत्मा का उत्सव चलता है साँस-सांस
तुम नदी चढ़ी हुई उछाल मारती
लहरों में अनहद उल्लास भरती
तुम्हारी हथेलियों पर रची होती है
मीठी आँच की मेंहदी ख़ुशबूदार
सहलाती रहती हो पूनम का चाँद 
निहारती हो मन के मेले को बार बार
मुस्कुराती हो 
और अचानक उनींदी रात को गुदगुदा देती हो
उसके आँचल से झड़ते हैं तारे बारम्बार 
खिड़की के बाहर रोशनी की लकीर आर-पार
मुरादों की लौटती बारात 
खुलते रहते हैं कामनाओं के करोड़ों रंध्र 
आसमान होने लगता हूँ 
प्रशांत
अनंत.

रविवार, 19 जुलाई 2015

फूल


जहां सच और सपने मिलते हैं
वहां उगते हैं
फूल.
पूजा की थाल में आस्था हैं
देवता तक मनोकामना ढोते हैं
फूल.
प्रेम का नीरव संगीत हैं
होंठों के गीले कोरों पर
आत्मा की भाषा लिखते हैं
 फूल.
आधा जल हैं, आधा सुगंध
आधा विश्वास हैं, आधा निर्बंध
आधा पुरस्कार हैं, आधा द्वंद
ओस की आखिरी सांस में बचे रहते हैं
चिता की पहली आंच में सजे रहते हैं
फूल.

फूलों ने जीवन को मुस्कान दिए
घर को आंगन
धर्म को ईमान
संबंध को मर्यादा
परिश्रम को परिणाम
मकान को खिड़की-दरवाज़े
खेत को खलिहान
और धरती को हरियाली भी
फूलों ने ही दिए
जहां इंसान नहीं होता
कोई पशु-पक्षी तक नहीं
कोई आवाज, कोई उम्मीद, कुछ भी नहीं
वहां भी खिलते हैं
फूल.

फूलों को धंधे में उतारता है बाज़ार
समय से पहले पनपाए-गदराए जाते हैं
बनाए जाते हैं चमकदार-गमकदार
हर सुबह, हर शाम
हजारों करोड़ का होता है कारोबार
खुली धूप, हवा से परे
चमकदार-शानदार कमरों में
सजाए जाते हैं
हर रात थमाए और ठुकराए जाते हैं
रौंदे-कुचले जाते हैं
जो रंग और सुगंध के दुश्मन होते हैं
उनकी शान में बिछाए जाते हैं
फूल.

कोई अनसुना संगीत
कोई अजनबी गीत हैं
फूल.
आल्हा-फाग-रागिनी
सोरठी-बिरहा-कजरी
सबके सुर मिल जाते हैं कुछ-कुछ
कुछ बंदिशें पता नहीं किस देश की हैं
समझ नहीं आता
जैसे कोई नदी रोती हो खून के आंसू
जैसे कोई पहाड़ पछाड़ खाता हो
जब बामियान में बुद्द टूटते हैं
बगदाद में बम गिरते हैं
सीरिया के खेतों में खून बहता है
दजला फरात की घाटियों में
कश्मीर की वादियों में
चीखते हैं-दहकते हैं
फूल.














शनिवार, 18 जुलाई 2015

डरे हुए लोग

दुनिया का सबसे बड़ा आतंकी है - डर
जिंदा लाश होते हैं डरे हुए लोग
बोलते हैं, आवाज़ नहीं उठा पाते
प्रेम करते हैं, स्वीकार नहीं कर पाते
सपने देखते हैं, सपने जी नहीं पाते
रिश्ते बनाते हैं, निभा नहीं पाते
डरे हुए लोग.
उनकी कोई अलग पहचान नहीं होती
गलत काम पर आह भरेंगे
लेकिन घर से नहीं निकलेंगे
जुलूस-जलसा देखकर सो जाएंगे
छोटी छोटी सहूलियतों के लिये
आंखें बंद रखने की इंतेहा करते हैं
डरे हुए लोग.
कमाल करना चाहते हैं
जोखिम नहीं उठा सकते
दुनिया बदलना चाहते हैं
खुद को नहीं बदल सकते
रोटी, बेटी और अगली पुश्त में फंसे रहते हैं
खुद के बारे में सोच नहीं पाते
डरे हुए लोग.
निहायत शरीफ होते हैं
घर से काम पर और काम से घर लौटते हैं
उनके लिये जीना सबसे जरुरी काम है
बस जीने के लिये सारी हिकारतें सहते हैं
कंधों पर बेहिसाब बोझ ढोते हैं
कहना तो सच ही चाहते हैं
लेकिन कह नहीं पाते
डरे हुए लोग.
करते खुद हैं, यकीन किस्मत पर करते हैं
पंडे-बाबा, मठ-मंदिर सब आबाद करते हैं
भूखे को भगाते हैं, भगवान को भरते हैं
फरेब को भी पुण्य समझते हैं
लीक से हटकर चल नहीं सकते हैं
नौकरी भर की ही पढते हैं
डरे हुए लोग.
वे देखकर भी नहीं देखते
सुनकर भी नहीं सुनते
जो सोचते हैं वो नहीं कहते
पसीने में खून, खून में पसीना भरते हैं
छोटे छोटे फायदे के लिए मारकाट करते हैं
फिर भी सच और इंसाफ की दुनिया चाहते हैं
डरे हुए लोग.

बुधवार, 15 जुलाई 2015

डायरी मेरी ज़िंदगी का दस्तावेज सी हैं. जब कभी पलटता हूं तो सबकुछ दिखने सा लगता है. 22-23 की उम्र में जो डायरी मेरे पास थी आज उसको निकाला. उस वक्त जो कविताएं लिखीं उनमें से कुछ आपसे साझा कर रहा हूं.

सुनो श्यामली
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श्यामली!
आज महीनों बाद तुम्हें लिखने बैठा हूं
इसलिए नहीं कि मेरे पास लिखने को कुछ नहीं
या तुम्हें भूलने की कोशिश में था
दरअसल मेरे पास तुम्हारे सवालों के जवाब नहीं
और अब भी टटोल ही रहा हूं.
इतने दिनों में न जाने कितनी बार
कांपा होगा तुम्हारा मन- कंप से
धड़का होगा हृदय - धक से
छलके होंगे नयन - छल से
भीग गया होगा तकिया जल से
जिनके कोमल रेशों से होकर कई सवाल
जा गिरे होंगे तुम्हारे सिरहाने निढाल
केन सारोवीवा, नज़ीब और दलाई लामा होंगे
नरसिम्हाराव, सुखराम और लालू भी होंगे
और वहां होऊंगा मैं भी
वहां होंगी कुछ टूटी चूड़ियां
कुछ उजास राहें
कुछ बिछड़े तारे, कुछ तड़फड़ाती आहें
और किश्तों में जमा हंसी भी
इस चिट्ठी को पाते ही
उन सबको समेटकर भेजना
शायद उन्हीं के बीच कहीं खोए हैं
वे सारे जवाब जिन्हें
तुम्हें भेजना चाहता हूं.

श्यामली !
मेरी अलगनी पर
अभी जो कबूतर बैठा है
उसे मैं पसंद नहीं करता
इसलिए नहीं कि मुझे शांति पसंद नहीं
बल्कि इसलिए कि वो
विरोध का भाषा नहीं जानता
और खुली आंख ही हलाल हो जाता है.
मुझे मोर पसंद है
जो मौसम के साज़ पर थिरकता है
और विषधर का मान-मर्दन भी करता है
मुझे नेवला सुंदर लगता है
कोमल काया का दुर्धर्ष योद्धा.
हमारी त्रासदी यह है कि
हम आज भी कबूतर में विश्वास करते हैं
मोर को चिड़ियाघरों में रखते हैं
और नेवले को खेत-बधार में.

श्यामली
प्रेम और दुर्घटना एक ही होती हैं
घटने के बाद ही मालूम पड़ती हैं
दोनों का बुखार धीरे धीरे
उतर ही जाता है
फिर हम दिन तारीखों में लपेटकर
इन्हें एक भीड़ में धकेल देते हैं
जहां हर चीज औपचारिक होती है.
हम इतने औपचारिक होते जा रहे हैं
कि प्रेम और दुर्घटना का फर्क मिटता जा रहा है
बस कुछ शब्दों के हरफेर
और मुद्राओं को फेरबदल का मामला सा लगता है
ऐसे में क्या तुम्हें नहीं लगता
कि प्रेम भी एक दुर्घटना ही है.

चौराहे की मूर्ति
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यह सोचकर वह सफर पर निकला
कि कहीं भी घर बसाने के लिए
पर्याप्त होगी उसकी हथेलियों की पूंजी
जिनमें उसने सहेजकर बांधा था
एक टुकड़ा धरती
और एक टुकड़ा रोशनी.
सामने बंदूक की नोंक पर
जब टंग गयी सांसें
तो अनायास खुल गयीं मुठ्ठियां
फिर उसे बाइज्जत बख्श दिया गया.
अब उसके हिस्से में था
पूरा का पूरा आसमान
भरे पूरे चांद-सूरज
बादलों की आबाद बस्ती
और तारों की बेशुमार दुनिया
ऐसे में
सिर्फ निहारने के सिवा
और किया भी क्या जा सकता था.
लोगों ने कहा -
वह मर गया लेकिन चांद तारों की ख्वहिश नहीं छोड़ी
शहर के बीचोबीच खड़ी उसकी मूर्ति
अदम्य इच्छाशक्ति की प्रेरणास्रोत मानी जाती है.






रविवार, 12 जुलाई 2015

इतनी बारिश में उसका आना

नौवीं में जब था तभी दिल्ली आ गया था सर. पिताजी से खूब झगड़ा हुआ था, बहुत पीटा था उन्होंने. १४ साल की उम्र में ही बागी हो गया. घर छोड़ा और दिल्ली की जो पहली ट्रेन मिली उससे आ गया. पिछले चार साल से उसको जानता हूं लेकिन यह पहली बार था कि उसने अपनी जिंदगी का इतनी दूर का हिस्सा खोल रहा था. मुझे तनिक भी अंदाजा नहीं था कि इतनी बारिश में भी वो आ जाएगा. सुबह दस बज रहे थे और बारिश इतनी तेज की घर की बालकनी से सामने का ब्लॉक धुंधला दिख रहा था. फोन बजा तो मैंने अपने अंदाज में कहा - हां हीरो बोलो. सर घर के बाहर खड़ा हूं. अभीतक बस मेरा अनुमान ही था लेकिन आज सचमुच लगा कि वो जुनूनी है. दो रोज पहले फोन आया था- सर कुछ प्लान है, साझा करना चाहता हूं. देखो समय की तंगी रहती है, तुम रविवार को सुबह दस बजे आ जाना बात कर लेंगे - कहकर मैंने फोन काट दिया था.
उसकी बातों में मेरी दिलचस्पी बढने लगी थी. तुम दिल्ली में आकर कहां रहे और किया क्या- मैंने अपनी बात जोड़ी. सर मौसी के लड़के यहीं दिल्ली में रहते थे उनके पास रहने लगा. थोड़े ही दिनों बाद किराने की एक दुकान पर नौकरी लग गयी. सेठ आठ सौ रुपए देता था. तब घर के किराए के पांच सौ रुपए देने होते थे. साझेदारी में मेरे हिस्से सौ रुपए आते थे. कुछ महीनों बाद दूसरे सेठ ने बुला लिया. चौदह सौ रुपए देता था. अब कुछ पैसे मां को घर भेजने लगा था. दुकान से लौटकर कंप्यूटर सीखने लगा. कुछ समय बाद एक मददगार मिल गया. उसकी मदद से धीरे धीरे मेरे पास दस सिस्टम हो गए और मैंने साइबर कैफे खोल दिया. बड़े भाई को बुला लिया था. उनको कैफे संभालने को दे दिया.  इस दौरान गांव के स्कूल से दसवीं और ग्यारहवीं पास कर आया. पढने लिखने में बचपन से ही ठीक रहा इसलिए नंबर भी बहुत अच्छे आएं. कहां के हो- यह पूछते समय मुझे पहली बार लगा कि बताओ इतने सालों में यही नहीं जान पाया कि किस जिले का है. २०११ का शायद सितंबर का महीना था. एक मित्र का देर रात फोन आया.  अरे सर प्रणाम प्रणाम. सुनिए ना. जरा ठीक से सुनिएगा. अपना एक बच्चा है. और वो भी ब्राम्हण बच्चा है. ठाकुर साहब लोगों को तो वैसे भी कुछ ना कुछ ब्राम्हणों के लिए करना ही चाहिए. बहुत जरुरतमंद है. आपको नौकरी देनी होगी. इसतरह से यही एक आदमी है जो मुझसे बात करता है. पूरे अधिकार के साथ. लोगों के लिये बेहद अनगढ, उद्दंड, मुंहफट और बदतमीज लेकिन मैंने उसमें अक्सर बनावटीपन, फरेब, खुदगर्जी और हवाहवाईपन से परे एक ठेंठ और टटका आदमी देखा. खैर, मैंने कहा - कल दोपहर बाद भेज देना. इस लड़के से पहली मुलाकात मेरे दफ्तर में चार साल पहले हुई. मैंने नौकरी दे दी लेकिन बात कभी कभार ही हुआ करती. हां काम देखकर मुझे इतना समझ आ गया था कि आगे अच्छा करेगा. आज कर भी रहा है. सर सुल्तानपुर का हूं. गांव का नाम डेरा राजा है. मेरे सवाल के जवाब में उसने कहा. बाहर बारिश अब भी उतनी ही तेज थी. दिल्लीवाले ऐसे मौसम के लिये तरसरते रहते हैं. लेकिन खबरों की दुनिया के लोग दिल्ली में जाम और जलजमाव को लेकर एमसीडी और सरकार के पीछे तेल पानी लेकर पड़े रहते हैं. देरा या डेरा - बारिश की आवाज के चलते मुझे सुनने में थोड़ी दिक्कत हुई तो मैंने पूछा. नहीं सर डेरा- उसने जवाब दिया. दरअसल, हमारे यहां एक राजपरिवार है. उसने ही ब्राम्हणो को जमीन देकर गांव बसाया. राजा का डेरा यहीं था तो हो सकता है लोग राजा का डेरा या डेरा राजा कहने लगे हों और बाद में यही नाम हो गया हो- डेरा राजा. वैसे, अब जो राजा हैं उनकी कोई औलाद है नहीं. इसलिए, यह आखिरी पुश्त ही है. मैंने जब छानबीन की थी तो पता चला कि १२ सदी से यह राजपरिवार है. अब आठ सौ साल बाद यह अपने आखिरी पड़ाव पर है. धीरे धीरे अपनी बात वो मेरे सामने रखता रहा . बार बार गीले बालों में हाथ फेर रहा था, अपनी हथेलियां रगड़ रहा था और कॉफी का कप उठाकर चुस्कियां ले रहा था. एक बार धीरे से कहा- सर कॉफी मस्त है. मेरी नजर उसके गीले कपड़ों पर थीं जो धीऱे धीरे सूख रहे थे. हां तो फिर क्या हुआ. तुम ११ वीं १२ वीं कर गए तो क्या किया- मेरे भीतर शायद यह जानने की अकुलाहट बढ रही थी कि किस-किस तरह के हालात से होकर लड़के मीडिया में आते हैं. इन्हीं के चलते गांव देहात और आम आदमी की हालत को खबर में ठीक से पकड़ा-समझा जाता है. वर्ना एक जमात अब आ रही है जो पैडी और व्हीट से नीचे जानती नहीं और जेनिफर लोपेज-लेडी गागा से ऊपर कुछ समझती नहीं .  यह जमात आनेवाले दिनों में पत्रकारिता के लिये एक खतरा होगी. मेरे जेहन में यह बात उमड़-घुमड़ रही थी कि उसने खुद को थोड़ा संभालते हुए कहा - सर बस इंटरनेट कैफे से कुछ आ जाता था और मैं कुछ टाइपिंग वाइपिंग का काम करके कमा लेता था. घर चल जाता था. २०११ में जब बीकॉम कर लिया तब आपके पास भेजा गया था. मां, भाई और बहन को साथ रखने लगा था. इसलिए महीने की आमदनी का फिक्स होना जरुरी था. आपने नौकरी दे दी तो जिंदगी पटरी पर आ गई. उसके बाद तो लोग खुद बुलाकर नौकरी देते रहे. उसने अपने आप को मेरे सामने धीरे धीरे ही सही लेकिन पूरा खोल दिया था. वैसे मुझे यही लगता रहा कि आजकर की नई पीढी की तरह - मस्तीखोर, बिंदास और बेलौस तबीयत का है . लेकिन इस घंटे भर की बातचीत में मेरी राय पूरी तरह से बदल चुकी थी. बीच बीच में मैंने उसके उस प्लान पर भी अपनी राय रखी जो वो लेकर आया था. लेकिन रह रहकर उसकी जिंदगी में घुसपैठ करने के लोभ से खुद को रोक नहीं पा रहा था. टुकड़ों में ही सही, उसने अपना सारा सच सामने रख दिया था. उसकी कमीज लगभग सूख चुकी थी लेकिन जींस अब भी गीली थी. सर नौकरी मजबूरी है. ना करुं तो परिवार नहीं चल सकता. मां, बहन, भाई साथ रहते हैं. पिताजी को भी यहीं रखा है लेकिन अलग. उनका खर्च भी मैं ही उठाता हूं. लेकिन सर अपनी मर्जी का कुछ करना चाहता हूं. यह वो नहीं है जिससे इस देस समाज का कुछ बनता है. जहां आप काम करते हैं वहां कुछ ऐसा वैसा करना चाहें तो ऊपरवालों को लगेगा कि इसके पर निकल आए हैं. दो चार दिन में चलता कर देंगे.  उसने निकलने के लिये सोफे से उठते हुए कहा. मुझे लगा शायद इसी भड़ास ने उसको आज मुझतक इस बारिश में आने को मजबूर किया है. हमारे पेशे में एक जमात है जो लीक से हटकर कुछ करना चाहती है. कुछ जिसका समय के पैमाने पर मतलब निकल सके. लेकिन रोटी दाल की मजबूरियों ने जोखिम उठाने की हिम्मत चाट रखी है. एक आग बार बार भड़कती है और फिर ठंडी पड़ जाती है , कुछ दिनों बाद फिर भड़कने के लिए. उसके भीतर भी मैंने आज वही आग देखी. उसको विदा करते समय कई सवाल दरवाजे खड़े रहे, जिनमें एक सवाल यह भी कि उसने अपने पिताजी तो मां से अलग क्यों रखा है. वो अपनी बाइक पर फिर बारिश के बीच था. सामने के ब्लॉक अब भी धुंधले थे. बस वक्त डेढ घंटे आगे निकल चुका था, कभी नहीं लौटने के लिए.ो 

शनिवार, 11 जुलाई 2015

पानी


कितना मुश्किल है
पानी होना
बंध जाना
पसर जाना
ढल जाना
सब बहा लेना
सब उठा लेना
सब सह लेना
लेकिन चोट पड़़ते ही
तन जाना
मिट जाना
पर नहीं टूटना
कितना मुश्किल है
पानी होना.



सोमवार, 6 जुलाई 2015

माफीनामा

माफ करना छोड़ने की आदत सी हो गई है
नए पुराने कुछ खुशबूदार लम्हे
तुम्हारी यादों के सिरहाने रह गए होंगे
सहेजकर रख लेना.

अब तो सबसे पहचानी राह पर भी
अक्सर भटक जाता हूं
जैसे चांद भूल जाता है
रोज रात का पता.

मेले के बैल और बाजार के माल सा हो गया हूं
खरीददार टटोलकर देखता है पानी
कितना तकलीफदेह है साबित करना कि
अभी काम का बचा हूं .

पढ़ लेता हूं दफ्तर से घर लौटते लोगों के चेहरे
जरुरत और बची रकम की खींचतान
दुबकती रहती है पहचाने जाने के डर से
जैसे सहमा रहता है शफाखाने से निकलता मरीज.

हां तुम्हारे लिए बेकार बेदाम सही
क्या करुं चाहकर भी फितरत बदलती नहीं मेरी
अब तो शायद मुमकिन भी नहीं बदलना
कभी धूप और हवा का मोल लगाकर देखना.

मैं तुम्हारी पूजा की आरती नहीं
ना ही तुम्हारे भगवान का छप्पन भोग
मैं आदमी की थाली का नमक हूं
पहले ही निवाले में खल जाता है मेरा ना होना.

रविवार, 5 जुलाई 2015

ईंट

ईंट
सिर्फ मिट्टी
पानी
और आग का
संघटन नहीं
एक विचार भी है
जिसमें पलती है
एक घर की अवधारणा
सुरक्षा का बोध
संस्कृति का इतिहास
और
एक राष्ट्रीय समस्या.

आसमान

धरती को चाहिए ही चाहिए
एक आसमान
आसमान जो बादलों को संभाल सके
कहकशां को अटा सके
चांदनी को पसार सके
और धूप को समेट सके
क्योंकि इन्हीं बादलों, कहकशां
चांदनी और धूप में
पलते हैं
धरती के कई सपने.

आशा

रात-विरात
दिन-दोपहरी
वह मेरे आंगन में गिरी
धम.
कणों में कंपन हुआ
हवाओं में स्फुरण
आकाश में बिजली
कौंधी.
मैंने खिड़की से बाहर देखा
नंगे पर्वतों पर
बर्फ जम आई थी
वह नदी से लौट रही थी
तेज़कदम.
बाग में फूल निकल आए थे
दरवाज़े पर दस्तक हुई
खट.
आकाश से
बूंदे टपकीं
टप..टप..टपाटप.

टीवी पत्रकार और मित्र शैलेेंद्र का जाना

स्याही भर सपना
आंख भर पानी
और छाती भर रिश्ता
इससे ज्यादा उसे
कुछ चाहिए भी नहीं था.

उसमें बची थी
ठंडे चूल्हों की आंच
ज़िंदा थी
बंजर होते जाने की बेचैनी
बाकी था
पसीने में नमक भी
नहीं तो लीक को लतिआने की ताकत
ख़बरखोरी ने छोड़ी कहां है.

वक्त सोख लेगा
कपड़ों में बसी उसकी गंध
तस्वीरों पर धुंध डेरा डाल देगी
सूख जाएगा
शब्दों का हरसिंगार
लेकिन जब कभी कोई
क़दभर ही नज़र आएगा
या कोई आवारा
सड़कों को रातभर जगाएगा
वो अगले मोड़ पर
सजधज कर
नई नज्‍म के साथ नज़र आएगा.

( जून २००९ - शैलेंद्र के साथ आजतक में काम किया और कई दफ़ा साथ बैठकर घंटो गपिआए. )

कटोरा भर पानी

चाबी की नाव चलाने के लिए
बंटी को चाहिए
कटोरा भर पानी.

आटा गूंधने के लिए
मां को चाहिए
कटोरा भर पानी.

आंगन में चांद उतारने के लिए
बालेश्वर चाची को चाहिए
कटोरा भर पानी.

आचमन के लिए
पापा को चाहिए
कटोरा भर पानी.

छोटू के निपटान के लिए
दादी को चाहिए
कटोरा भर पानी

दादा की हजामत के लिए
सुदर्शन ठाकुर को चाहिए
कटोरा भर पानी.

कपड़ों पर इश्तरी के लिए
रामायण धोबी को चाहिए
कटोरा भर पानी.

एक भरी पूरी गृहस्थी को
चाहिए ही चाहिए
कटोरा भर पानी.

लेकिन दुनिया के लिए
मुश्किल हो रहा है बचा पाना
कटोरा भर पानी.

( कॉलेज के दिनों की कविता, जून १९९५ ) 

शुक्रवार, 3 जुलाई 2015

मेरे हमदम

मेरे हमदम तेरे आगे मैं इक अफसाना लिखता हूं
थोड़ा ज़िद्दी,थोड़ा पागल,थोड़ा दीवाना लिखता हूं.
तुझे ज़िद है कि मैं बोलूं, मेरी मुश्किल पुरानी है
ज़ुबां दिल की मिले फिर मैं, दिन रात लिखता हूं.
कई रातों की उलझन है, कई बातें सुनानी हैं
जो धरती से कहे चंदा, वो सारी बात लिखता हूं.
मुझी से है मोहब्बत और मुझसे ही लड़ाई है
तू भी तो यार है मुझसा,यही हर बार लिखता हूं.
कहीं रिमझिम, कहीं रुनझुन,कहीं रुत आसमानी है
तू मौसम है मेरे दिल का, मेरी कायनात, लिखता हूं.
ज़मीं होकर फ़ना होना, फ़ना होकर ज़मी होना
सनम इस इश्क़ पे सौ जिंदगी क़ुर्बान लिखता हूं.

शनिवार, 20 जून 2015

बिरहा वाले केदार पांडे


कांपती सी आवाज़ उठती थी
आधी रात
केदार पांडे के गले में 
गोल गोल चक्कर लगाता था अंधेरा
दालानों में ताखों पर लहराती रहती थी
दिए की लौ
और घरों के बीच हांय हांय कर
दौड़ती रहती थी हवा
समूचे जवार में इकलौते बचे थे
बिरहा गानेवाले केदार पांडे
आधी रात जब धड़धड़ करती
एक बजिया ट्रेन जाती
बिरहा पर सारा आसमान तन जाता
क्वार का चांद खेतों में
देह फैलाए लेटा रहता
और नींद को करवट छोड़
कुछ आंखें पनीली हो जाती
पिछली बार जब गांव गया था
तो अचानक उन रातों के रेले आए
पता चला अब ना तो एक बजिया ट्रेन आती है
ना चांदवाला आसमान तनता है
केदार पांडे को गुजरे सालों हो गए
बिरहा सीवान पर खड़े
ग्राम देवी के पताके सा है
अगले साल भगत जब
खौलते दूध में उतारेंगे देवी
तब ढूंढे जाएंगे उसके चीन्ह-पहचान.

एक दिन और गुज़रा


एक दिन और गुज़रा
सूरज फिर ढला 
जिंदगी से समय कुछ और रीता 
ढलता सूरज कहीं उगा होगा 
चढती रात कहीं ढली होगी 
धरती पर दिन रोज रहता है
रात रोज रहती है
आधा दिन आधी रात की है दुनिया
जिंदगी भी कुछ ऐसी ही
और तुम्हारे साथ रिश्ता भी .

फरेबी

बस यही कि सच की सूरत नहीं होती 
वर्ना तुम गुनाह के इल्ज़ाम से बरी होते.
चलो चलें बहुत हुआ कहना सहना अब 
मस्त होते गर तुम भी यार फरेबी होते.

आधी रात


आधी रात टहलता रहता है सन्नाटा आसपास 
जैसे उफ्फ भी करो तो पूछने आ जाएगा पास - क्या हुआ?
पसरी रहती है रात अलमस्त आधी रात 
कमरे की मद्दिम रौशनी धकेले रखती है बाहर मनभर 
आधी रात सपने जोहते रहते हैं नींद की बाट 
दूर पगडंडी पर ज्यों तकता है कोई मेहमान की राह
आवाज की टोह लेनी पड़ती है कभी कभी आधी रात
अपना दरवाजा बजा या पड़ोस में कोई आया
अचकचा कर लपकता हूं जब फोन बजता है
कहीं किसी को कुछ हुआ तो नहीं आधी रात
रात भारी हो तो भोर कितनी सुस्त चलती है
महीनों की रात में पूरी होती है आधी रात
आधी रात कुछ आवारा ख्याल भी घूमते रहते हैं
चाय की ठेली पर सिगरेट सुलगाकर पूछता है कोई - अब कहां चला जाए?
आधी रात तुम्हारी सांसे डोलती रहती है कहीं आसपास
कुछ उतरता रहता है सीने में आहिस्ता आहिस्ता आधी रात 

रात भर


रौशनी की बस्तियां अंधेरों की झीलें भागती रहीं
सफ़र में तुम्हारे साथ यादें जागती रहीं रात भर.
रात भर खिड़कियाँ शोर मचाती जगाती रहीं मुझे
तुम्हारे तकिये पर मेरी नींद बैठी रही रात भर.
भूले हुए गीतों के भटके काफिले होंगे शायद
गलियां वीरानों में राह बताती रहीं रात भर.
लो नीम की फुनगी पर चाँद फिर अटका
तेरी शैतानियाँ याद आती रहीं रात भर.
बरसों हुए गाँव से शहर आये हुए मुझको
बरसों तक कोई चोट रुलाती रही रातभर.

ज़िंदगी

कभी कभी लगता है गोया ज़िंदगी में क्या नहीं है
कभी कभी लगता है गोया ये भी क्या ज़िंदगी है.

मां


रात उतरते ही से
लड़ती पिसती
थकी हारी मां
लेटी है.
इस निपट रात में 
एकटक ताकती है आकाश
क्या सोचती होगी
नहीं कह सकता
रह रहकर रोज गुनगुनाती है एक ही गीत -
बबुनी मोरी बइठी राजपलंग पर
बबुआ मोर पइहन इनरासन हो
रामा हम पहिनब धानी रंग साड़ी
दुलहनिया उतारब सुलाछन हो.
मैं सिर्फ इतना जानता हूं
उसकी रातें यूं ही कटती हैं
मां किस्तों में सोती है .
19 साल का था जब मैंने ये कविता लिखी थी। मैं अपने जीवन में शायद मां को ही जीता हूं।
 मां एक संपूर्ण शब्द है, एक संपूर्ण संसार, समय की अविरल प्रेम धारा।

बदायूं की बेटियां


उस पेड़ की शाखाओं के नीचे
जो खाली जगह है उधर
दिनभर उंगिलयां फेरते रहते हैं लोग 
एक अभी जहां िचडिया बैठी है वहां टंगी थी
दूसरी उस लाल गमछेवाले के िसर के ठीक ऊपर
बदायूं के इस बदकिस्मत गांव में
दिनभर तमाशा लगा रहता है
दिल्ली से लखनऊ से रोज फेरे हो रहे हैं
लोग बताते रहते हैं -
पहले उन दोनों का बलात्कार किया
फिर इसी पेड़ पर टांग दिया
धूल सनी गरम हवा में
लोगों की गोलबंदी चलती रहती है
वो कांग्रेसवाले नेताजी हैं, अभी आए हैं
कल बहनजी आएंगी , मीडियावाले कल भी रहेंगे
वो मैडम जो पीड़िता के पिता से बतिया रही हैं
महिला आयोग से आई हैं
और खाट पर बैठे लोग एनजीओवाले हैं.
सांझ तक टंगी धूल में
फुसफुसाहटें तैरती रहती हैं
कैमरे और कलम सरकते रहते हैं
काफिले दिल्ली, लखनऊ लौट जाते हैं
इंसाफ की लड़ाई का खम ठोंककर
अंधेरा होते होते बस पेड़ रह जाता है
निपट अकेला
और उन दो खाली जगहों पर
एक तूफान डेरा डाल रहा है
धूलें, सारी फुसफुसाहटें लेकर वहां जमा हो रही हैं
कैमरे और कलम की सारी तस्वीरें, सारे बयान
दर्ज हो रहे हैं वहां
उन खाली जगहों पर बदायूं की बेटियों की
आखिरी चीखें और सांसें जिंदा हैं
वहां जिंदा हो रहा है
बेटियों की आखिरी चीखों और सांसों का विद्रोह
पेड़ के शरीर की खाली जगहें जानलेवा हैं
पेड़ की खाली जगहों की तरफ
उठती उंगलियों का खून जम चुका है
दिल्ली, लखनऊ के फेरेवालों का फरेब
खतरनाक हो चला है
पेड़ की खाली जगहों पर
तूफान को जिंदा होने दो
सवा सौ करोड़ के इस खाली मुल्क को एकदिन
वही जिंदा करेगाा
पेड़ की खाली जगहों में तब खुली हवा तैरेगी निडर
जैसे अभी टहल रहा है चांद ।

ये कैसी जम्हूरियत



मेरे दौर में ये कैसी राज़दारी है
ज़मीन हल्की है, हवा भारी है
गोलियों पर उसी ने नाम लिखा था
भीड़ में आज जिसकी तरफदारी है
तोड़ डाले बुतखाने के सारे खुदा जिसने
बुतपरस्तों से अब उसी की यारी है
इंसां जब से मौत का सामान बन गया
मुंबई तो कभी रावलपिंडी,धमाका जारी है
दिहाड़ी से दोगुनी थाली हो गयी है
ये कैसी जम्हूरियत कितनी मक्कारी है

फितरत

फितरत है, ठहरने से कोई मरता नहीं 
तालाब सड़ते हैं झीलें नहीं

शुक्रवार, 19 जून 2015

नींद


नींद भी ज़माने के निकम्मो सी हो गई है            
न आने के न जाने कितने बहाने ढूंढती है.

अच्छा लगता है

कभी यार, कभी फरिश्ता, कभी खुदा लगता है
गाढे वक्त में मददगार, क्या क्या लगता है
अपना सुना औऱ लिहाज भी नहीं रखा आपने
फरेब औरों का सुनना तो बड़ा अच्छा लगता है
अपने पसीने की पूरी कीमत मांगते हैं
हमारा ख़ून भी उन्हें सस्ता लगता है
शहर में सबकुछ मिलेगा,बोलिये क्या चाहिये
बाजार को मोटी जेबवाला अच्छा लगता है
साथ जीने मरने की कसमें पुरानी हो गयीं
लैला को मजनूं कहां अब अच्छा लगता है

शामें


पीली सी धूप भाग रही है 
बांस के सूखे पीले पत्ते उड़ाती 
कुछ धूल दूब भी 
कभी दालान कभी खेत 
कभी दीवार कभी पेड़
टकराती लड़खड़ाती दौड़ती है
बेवजह बेचैन सी
ना ठौर ना ठिकाना
ना पराया ना अपना
कुछ शामें यूं भी होती हैं
अनाम सी उचाट सी
नामुराद नाकाम सी .

रात अभी बाकी है


रात जब चमचम चांद 
निहारती है देर तक 
गुज़रे दिनों के परिंदे 
उड़ते हैं झुंड में 
अधूरी मुरादों के सूखे पत्ते 
झड़ते हैं दूर कहीं
धुंध सी लटकी रहती हैं 
हमारी बातें आसमान में
नदी की देह पर चांदी के डोरे 
पिरो जाता है कोई 
तुम्हारी सांसो के गुलाब 

महकते हैं चारों ओऱ
और मुलायम सी हंसी के रेशे 

उड़ते हैं बादलों तक
सर्द रातों के काफिलों की 

आहट अब आने लगी है
कि चलो अलाव जलाएं 

रात अभी बाकी है

लो आया मन-सावन


चारों पहर कोई बोलता है
पल छिन डोलता है 
मंदिर की आरती
सांझा-बाती
पहली बारिश की सोंधी खुशबू 
फुनगी पर डोलती सिंदूरी बूंद
कतरा कतरा रस-जीवन
लो आया मन-सावन.

रेखा


भोर का तारा-
गहरी रात में उतरती संतरी सुबह
कोहरे की नशीली महक
आदि और अंत के बीच खड़ा
दमकता लपकता प्रकाशपुंज.
एक अबूझ पहेली-
अनाम रिश्ता ढोता सिंदूर
दूर तक पसरा अकेलापन
अचानक से टपके कुछ बेनाम आंसू
और नरगिसी हंसी में लिपटे कुछ धूप से सवाल.
एक सरगम -
संदल का लहराता जंगल
दर्द गाता-गुनगुनाता दरिया
नीले आसमान को थपकियां देती रात
उमराव के अंजुमन का तराना अधूरा .
एक अदाकारा-
चांद से बेहतर ज़मीं की तामीर
इश्क को सलाम भेजती नज़र
लौ सी लपकती देह की लहराती कलाइयां
और चूड़ियों के बाज़ार का सबसे चमकदार रंग
एक अफसाना-
बंद दरवाज़ों के बाहर ठहरी राह
तिलिस्म में लिपटे दरो-दीवार
महफिलों में अदब से झुकती जवां सुरीली रात
और दूर आसमान में भटकते चांद का अमिताभ.