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मंगलवार, 11 नवंबर 2014

खयाल भी एक कविता है



तुम्हारा स्पर्श
जैसे बादल की देह में
रेशा रेशा उतरता पानी धीरे धीरे.
तुम्हारी सांस
जैसे संदल की जड़ों से
ज़मीन में फैलती खुशबू धीरे धीरे
तुम्हारी हंसी
जैसे धूप में गिरती
बारिश की बूंदे धीरे धीरे.
औऱ तुम्हारा खयाल
जैसे अभी अचानक
गोद में झड़ते गुलमोहरी पल धीरे धीरे.

शनिवार, 11 अक्तूबर 2014

शिकायतें




कई बार बहुत लाचार देखा है
जिसने चिट्ठी पकड़ाई
उसी ने पता छुपा रखा है.
अल्हड़ हैं, कभी कभी शऊर पा जाती हैं.
तेजकदम लौट आती हैं
कटी पतंग जैसे अचानक हाथ आ जाती है.
भादो का जैसे भारी बादल
जब चल नहीं पातीं हैं
हल्का होने तक बरसती रहती हैं.
नींद से अक्सर उलझती हैं
चैन के परिंदे उड़ाती हैं
मन में अंधड़ उगाती हैं.
रिश्तों के रेशे खींच खींच परखती हैं
गिरह गांठ ढूंढती हैं
रात जैसे जंगल में चलती है.
उड़ता हुआ कागज का आवारा टुकड़ा
किसी का लिखा ढोता हुआ
किसी और के पते पर पड़ा हुआ
आधी मिट्टी आधा पानी
आधी हवा आधी रोशनी
अंधेरे के खेत में धूप की फसल


मंगलवार, 7 अक्तूबर 2014

नए राज्य में किसान की पहली आत्महत्या



रयावरम गांव में सात साल का वम्शी एक सवाल है
उसकी चुप्पी बेहद खतरनाक है
बहुत सोचा होगा उसके बाप ने
जब वो बेटे से मिलने आखिरी बार जा रहा था
स्कूल के पास एक दुकान पर चुपके से बुलाया
बालों में हाथ फेरा, सीने से लगाया
फिर धीरे से पाकेट में हाथ डाला
कुछ देर टटोला
चीकट सा पांच का नोट निकाला
मिठाई खाते बेटे को देर तक निहारता रहा
फिर बोला- देखो खूब पढना और कुछ ज़रुर बनना
बेटा, मेरी कसम है किसान कभी मत बनना
वम्शी का बाप एक घंटे बाद घर में लटका मिला
देश में किसान की आत्महत्या पर फिर हाय तौबा
और फिर अपाहिज सन्नाटा मिला ।

रविवार, 5 अक्तूबर 2014

अफसोस



जैसे कम खाने की सोचना
और फिर भी ज्यादा खा लेना
जैसे ज़ायकेदार निवाले का
मुंह तक आकर गिर जाना
जैसे किसी का चेहरा पोंछते समय
उंगली का आंख में घुसड़ जाना
जैसे घर में बचे खुचे आटे में
अंदाजे से ज्यादा पानी गिर जाना
जैसे समय पर निकलने
और घर लौटने की कसम का रोज़ टूटना
जैसे किसी ज़रुरी काम का
समय गुज़र जाने पर फौरन याद आना
जैसे किसी चेक का
मियाद निकल जाने के बाद कहीं रखा मिलना
जैसे मिनट भर की देरी से
ट्रेन का सामने से निकल जाना
जैसे एक अदद लापरवाही का
बड़ा नुकसान दे जाना
जैसे संभाल लेने के बाद
बेशकीमती चीज का फिसलकर टूट जाना
जैसे किसी की चुगली करते
समय उसका वहीं कहीं खड़ा रहना
जैसे प्रेम में वेबवजह लड़ना
और उसको चुपचाप जाते देखना.


धूपदेखौनी



खाली खुली पेटियां औंधी पड़ी हैं
पीली सीली किताबें कागजों के ढेर पसरे हुए हैं
साल भर से पेटी, संदूक और बोरियों में बंद चीजें बाहर निकली हैं
दुआर से दालान तक सारी चौकियां और खाट बिछ गए हैं
समूचे गांव में धूप की फसल जवान है
गरम जैसे धान की छाती में उतरता रस
बंद पड़ी रज़ाइयां स्वेटर शालें कंबल
झाड़ झाड़ पसारे गए हैं
लेवा तोशक तकिया सबकी रिहाई है आज
बस्ती भर सीलन और फेनाइल की गोलियों की गंध फैली है
बेकार हो चुकी चीजों का ढेर लगा है
चारा काटनेवाली गड़ांसी का मुठ्ठा, गाय का टूटा पगहा
रही का डंडा और हलवाही का पैना
छप्पर में साल भर से खोंसे पड़े थे
आज फूटी हुई कड़ाही और पिचकी हुई तसली के साथ फेंके हुए हैं
अचार का खाली घड़ा, कोर-टूटा दही का करना
पीछे की कलई उतरने से बेकार हो चुका आईना
मां की पुरानी टिकुली, आलता की शीशी
झड़ी साड़ियां, फटी धोती और चूहे के कुतरने से खराब हो चुके कपड़े
होली का बचा गुलाल, टूटी कलमें और बरसाती चप्पलें
बीच आंगन में सबका ढेर लगा है
घर घर सफाई धुलाई में लगा है
चौंर से पीली मिट्टी आई है चूल्हा लीपने के लिये
नाद में कली चूने का घोल बना है दीवार पोतने के लिये
मुहल्ले में कहीं कबाड़ीवाला आवाज़ लगा रहा है
खेतों से होकर आती चूड़ीहारिनें दिख रही हैं
मां ने पलटकर सूरज को देखा
बांस की फुनगी पर है लेकिन काम भी बहुत बाकी है


बुधवार, 16 जुलाई 2014

गाजा से आई ये तस्वीर देखी है ?




फूल सा है जमीन पर बैठा है
दोनों पैर आधा फैलाकर
रंग, जैसे घी में गुलाब मिला दो
उसके चेहरे पर चारों तरफ से बंदूकें तनी हैं
मुड़कर पीछे देख रहा है
बस, अब रोया कि तब
शायद डर से ही मर जाए
मासूम सा बच्चा गच्चा पट्टी में
इजरायली फौजियों के बीच पड़ा है
उसके मां बाप मार दिए गए होंगे
थोड़ी देर में यह भी मार दिया जाएगा
लेकिन यह तस्वीर इतिहास लेकर खड़ा रहेगा.


आवारगी



मंदिर से गुज़रा हूं मौजों पर मस्ताना 
पात पर दीया हूं कहीं तो जाऊंगा .

रातों को महकाया है सुबहों को सजाया 
हरसिंगार बन झड़ा हूं खुशबू संग मुरझाऊंगा.

तन्हाई की हंसी वेवक्त का ख्याल सही 
तेरे नाम अपना कुछ तो कर जाऊंगा.

उजास राहों पर लीक पीली दूब की
रहगुज़र को दूर तक नज़र आऊंगा.

खाली घोंसलों की तरह राह तकते तकते
हवा की ठोकरों में तिनका बन जाऊंगा.

घर की चौखट पर सांझ का दीया
अंधेरों से लड़ते मरते सुबह कर जाऊंगा.


रविवार, 13 जुलाई 2014

जीवन उत्सव है, मौत एक मौसम


















अंधेरे की देह पर 
रोशनी रचती है 
दमकती है/ थिरकती है 
जीवन लय पिरोती है 
दिए की लौ है 
फिर नहीं लौटती है.

हवा के कोरों पर 

नमी रखती चलती है
बलखाती है/ “पानी” गाती है
धरती में रस बोती है
धड़कती है / महकती हैदरिया की मौज है
फिर नहीं लौटती है.

समय के साज़ पर सन्नाटे सी बजती है

पलों के दरवाजे उम्मीद का गीत रखती है
एक रंगोली हर वक्त रचती है
बस एक सांस है फिर नहीं लौटती है.



जीवन के हर पल को जीभर जीनेवाले जहांगीर पोचा को 
 हार्दिक श्रद्दांजलि। जिस शख्स ने जीवन को उत्सव 
की तरह जिया, उसके पास पहुंचकर मौत को 
भी रश्क हुआ होगा। अलविदा दोस्त। 
12.07.2014

रविवार, 6 जुलाई 2014

हिमाचल यात्रा - संस्मरण भाग दो


नरकंडा में सुबह सात बजे के आसपास जगा । तीन घंटे से ज्यादा शायद नहीं सो पाया था। धूप जैसे नहाकर आई थी । कमरे में उसके छोटे छोटे टुकड़े दुबके पड़े थे। बाहर पहाड़ों पर हरी हरी पत्तियां चमक रही थीं। यहां जो सबसे ऊंची चोटी है उसके सिर पर पताका लहरा रही थी जो किसी मंदिरनुमा इमारत के ऊपर लगी थी। बीती रात देर तक जागता रहा इस लालच में कि अगर सो गया तो कुदरत को इतना हसीन देखने का मौका निकल जाएगा। चांदनी में नहाई रात , हवाओं पर लहराते देवदार और पहाड़ों में गूंजती सांय सांय की आवाज । अजीब सा नशा तारी था चारों ओर। ऐसी मुरादवाली रातों में जिंदगी किसी बहुत ही मुलायम और रसीले अहसास में पिघलना चाहती है, जिसकी बूंद बूंद शरीर के रेशों में यूं उतरे जैसे कपास पर घी और शहद । ऐसी रातें सितंबर-अक्टूबर के महीनों में कभी कभी तब दिखी जब कालेज के दिनों में गांव जाया करता था। छत पर सोते समय जब चांद आधा आसमान चढ जाता और सामने धान के खेत तेज हवा पर दूर तक लहराते तो सांसो में अजीब सी गंध भर जाती। बालियों में उतरते रस की गंध हुआ करती थी। आसमान निपट नीला , बादलों के झुंड चलते फिरते साफ साफ दिखते औऱ दूर से आधी गोलाई में जाती नहर तक की हर चीज का अंदाजा होता । उन रातों में पहरों जागता रह जाता था। अजीब सा आकर्षण हुआ करता था उन रातों में और कभी कभी जब भोर का तारा सामने दिखता तो लगता अरे यार सुबह हो गयी। नरकंडा की रात ने भी वैसे ही जगाए रखा । अचानक दरवाजे पर दस्तक हुई । अहसास का जो घेरा दिल-ज़ेहन में बना था वो छंटा। मैंने मोबाइल पलटा (आदतन उलटा रखता हूं) । समय देखा - ७ बजकर १७ मिनट । आ जाइए अंदर - मैंने दरवाजे की तरफ आवाज लगाई । हाथ में ट्रे पकड़े वो साहब अंदर आ गये जो सर्किट हाउस के किचन का जिम्मा संभालते हैं। बीती रात घर जैसा खाना खिलाया था । सर गुड मार्निंग । मैंने भी जवाब दिया- गुड मार्निंग। ट्रे में फ्लास्क और चाय का कप रखा हुआ था । वे सीधे मेरे पास आए, बिस्तर पर सामने ट्रे रखा और पूछा सर शुगर कितनी लेंगे। मैंने कहा नार्मल । यार ये बताओ- सामने जो चोटी है उसपर ये कैसी पताका दिख रही है। मैं ये जानने को बेचैन हो गया था कि इतनी ऊंचाई पर आखिर क्या है - लिहाजा मैंने उससे पूछा। सर ये हातू माता मंदिर है, उसने पलटकर खिड़की से बाहर मंदिर की तरफ देखते हुए बताया । बहुत सिद्द जगह है साहब । आप वहां जरुर जाइएगा । वहां से हर चीज आपको नीचे दिखेगी । उससे ऊपर कोई चोटी नहीं है । दिनभर लोग माता के मंदिर में आते जाते रहते हैं इसलिए रौनक भी रहती है। मैंने कहा ठीक है तुम कह रहे तो तो मंदिर से लौटकर ही मनाली निकलेंगे। जी सर - उसने हाथ में चाय का प्याला थमाते हुए कहा। और सर अगर आपको जाना है तो नहा-धोकर सीधे मंदिर जाइए फिर लौटकर नाश्त कीजिए। उसके बाद मनाली के लिये निकल जाइएगा। मेरे कमरे से जाते जाते वो ये सलाह भी छोड़ गया। पत्नी ने कहा सही कह रहे हैं , मंदिर से लौटकर नाश्ता करेंगे। मैंने कुछ कहा नहीं लेकिन पत्नी को मेरी मौन हामी समझ में आ गयी। मेरा मोबाइल बजा । मुझे लगा दफ्तर से फोन आया होगा । अक्सर ऐसा ही होता है। इसलिए कोई दूसरा ख्याल सुबह सुबह नहीं आता। लेकिन स्क्रीन पर जो नंबर था वो सेव्ड नहीं था औऱ हिमाचल का लग रहा था । मैंने उठाया- हैलो। क्या संपादक सर कैसे हैं। इतना पास आकर चले जाएंगे। आवाज जानी पहचानी थी इसलिए मैंने ये पूछा नहीं कि कौन। 
हिमाचल यात्रा जारी है.....

शनिवार, 5 जुलाई 2014

किनारों की रोशनी



यादों के देवदार पर मौसम की तरह उतरो
अरसा हुआ लौटे चांदनी दिनों के काफिलों के

अंधेरे में हरसिंगार उजाले में चिनार बन जाओ
बस्ती में बढने लगे हैं डेरे हमशक्ल वफाओं के

गर कर सको हिम्मत तो मेरे साथ चलो
आसान नहीं पता ढूंढना आवारा मंज़िलों के

कुछ नहीं बस हथेली भर जमीन बन जाओ
आसमां होगा मगर घर नहीं होते बादलों के

गंगा हो मौजों में मेरी रोशनी भर लो
अंधेरों में सजा लेना पास अपने किनारों के


रविवार, 22 जून 2014

कुदरत की नेमत नरकंडा और थानेदार

दस दिन हिमाचल में गुजार कर बीती रात लौटा हूं। लगभग सभी जिलों की मशहूर और कम जानी पहचानी दोनों तरह की जगहों पर ठहरा। सालों बाद चौबीसों घंटे की चौधराहट और चिकचिक से बहुत हद तक फारिग था। कई पड़ाव ऐसे रहे जहां मैंने लिखने की ज़रूरत  महसूस की, सो लिखा । लेकिन पोस्ट अब कर रहा हूं । पहली कड़ी आपके सामने है।

रात के १२.३० बज रहे हैं । दूर दूर तक निपट  सन्नाटा पसरा हुआ है । जीवन में ऐसा पहली बार है कि  इंसानी आबादी का कोई शोर कहीं से कभी नहीं आ रहा । चांद पहाड़ों की भागती चोटियों  के बीच से ऐसे दिख रहा है जैसे रोशनी की कोई थाली आसमान में टंगी हो। मेरे कमरे की एक खिड़की  का परदा हटा हुआ है और शीशे के बंद पल्लों के उस पार चांद से लेकर सर्किट हाउस के उस कमरे तक जिसमें मैं हूं , कुदरत का अजीब सा जादू फैला हुआ है। यहां की खामोशी के तारों पर मानो एक एक चीज सधी हुई है। बस बीच बीच में हवा हरहराती है। देवदार के पेड़ों से उसकी गुत्थमगुत्थी इस सन्नाटे को तोड़ती है। ऐसा लगता है मानो पेड़ों पर उसका प्यार बेइंतहा उमड़ आया है और वो उनके जिस्म के भीतर रेशे रेशे में भर जाना चाहती है । देवदार के लंबे घने छरहरे पेड़ों के कंठ से प्रेम के आखिरी पलों की उन्मादी आवाज फूट रही है- स्स्स्स्स्स्स्सांय स्स्स्स्सांय सी। यही आवाज यहां रह रहकर कमरे तक आती है। चढ़ी  रात में हरियाली की सेज पर लेटी दमकती चांदनी और उसके बदन पर कभी हौले और कभी तेजी से लहराती हवा पहाड़ों के इस दायरे में एक अजीब सी मदहोशी घोले हुए है। ऐसा लगता है जैसे सुबह बस एक इंतजार बनकर ही रह जाए तो अच्छा। शिमला से करीब ६५ किलोमीटर दूर नारकोंडा नाम की जगह है जहां मैं ठहरा हूं। मेन रोड से १०० मीटर ऊपर एक सड़क सीधे सर्किट हाउस को आती है । बहुत सलीके का बना सर्किट हाउस है और बेहतर रखरखाव इसके लॉन से लेकर अंदर के बाथरुम तक में साफ साफ दिखती है। कांग्रेस की बुजुर्ग नेता विद्या  स्टोक्स का इलाका है और पास में थानेधार में उनका पुशतैनी घर है। जितने लोगों से मिला सब उनका सम्मान से नाम ले रहे थे और लगे हाथ यह बताना भी नहीं भूल रहे थे कि  बहुत सीधी सादी महिला हैं इसलिए यहां के विकास के लिए कभी लड़-भिड़ नहीं पायीं। मेरा कमरा उनकी ही  सिफारिश पर यहां बुक हुआ है।
शाम करीब साढ़े  चार बजे थानेधार गया था। थानेधार नारकोंडा से करीब ९ किलोमीटर दूर है। सिद्दार्थ जो यहीं हमारे मित्र बने उनके साथ । दरअसल हिमाचल की मेरी यात्रा का इंतजा़म नीरज कर रहे हैं। नीरज शिमला में रहते हैं, अपना बिजनेस देखते हैं और बेहद नेक इंसान हैं। सिद्दार्थ उन्हीं के साले हैं। मैं जब इंतजाम की बात कर रहा हूं तो इसका मतलब ये है कि मुझे कहां जाना है, कहां ठहरना है , क्या क्या देखना है, किससे मिलना है वगैरह वगैरह। बहरहाल, थानेधार के रास्ते में सेब के बागान आपके साथ चलते रहते हैं। हरे भरे पेड़ों के ऊपर नेट की चादरें घाटी से चोटी तक नजर आती हैं। मैंने सिद्दार्थ से पूछा कि ये नेट क्यों डाला जाता है तो उन्होंने बताया कि ओलों से फसल को बचाने के लिए ये तरकीब निकाली गयी और बहुत हद तक काम भी करती है। मैं शिमला से जब नारकोंडा के रास्ते में था तो सड़क के दोनों ओर छोटे छोटे गांव कस्बों के बीच हजारों फीट नीचे घाटी से लेकर हजारों फीट ऊपर चोटी तक हरियाली ही हरियाली पसरी हुई थी । बीच बीच में सफेद काले नेट की चादरें डाली हुई दिखती रहीं । मैं लाख कोशिश के बावजूद समझ नहीं पाया कि ऐसा क्यों है। सिद्दार्थ ने इस कौतुहल को शांत किया। थानेधार के रास्ते में सिद्दार्थ का सेब और चेरी का अपना बाग है , जिसमें हम गए । नेपाल का एक परिवार उसकी देखरेख करता है। शेर बहादुर , सिद्दार्थ ने इसी नाम से उस रखवाले को बुलाया था । चलते हुए उसने चेरी से भरा एक डिब्बा मेरी बेटी को पकड़ा दिया । जबतक हमलोग बाग घूम रहे थे तबतक उसने चेरी तोड़कर डिब्बे में पैक कर लिया था । शायद मालिक ने इशारे में उसे बता दिया था कि मेहमान हैं , खातिरदारी का रिवाज निभाना है, खाली हाथ नहीं जाने देना है । बागान में सिद्दार्थ बता रहे थे कि समूचे हिमाचल में बागान में काम करनेवाले मजदूर और देखरेख करनेवाले ज्यादातर नेपाली हैं । हजारों परिवार पीढ़ियों से यहां हैं , कभी कभार अपने गांव जाते हैं। कुछ तो अब यहीं के होकर रह गए हैं। लेकिन अब नेपाल से उनकी आवक कम हो गयी है इसलिए मजदूरी भी बढ़ गयी है । नतीजा ये हुआ है कि सेब और चेरी का प्रोडक्शन कॉस्ट ऊपर चला गया है। दरअसल हम सर्किट हाउस से निकले थे यहां के काफी नामी गिरामी व्यक्ति प्रकाश ठाकुर से मिलने के लिए और तय ये किया था कि रास्ते में देखने लायक जो जगहें होंगी वहां थोड़ा-थोड़ा ठहरते चलेंगे। सिद्दार्थ का बाग भी ऐसी ही जगहों में एक था। वहां से निकलने के करीब दस मिनट बाद हम प्रकाश जी के यहां पहुंच गये । सड़क से कोई पच्चीस सीढ़ियां नीचे उतरते ही एक समतल में काफी सजा धजा मकान खड़ा था, जिसके एकतरफ गेस्ट हाउस है और दूसरी तरफ काफी खुली और खाली जगह है, जिसमें बच्चे खेल रहे थे। घर के अंदर हमें एक व्यक्ति ले गया । घुसते ही दरवाजे के बगल से सीढ़ियां ऊपर को जाती है और एक हॉल में खुलती हैं। यह हॉल अर्ध चंद्राकार सा है और इसके एक सिरे से दूसरे सिरे तक शीशे के बड़े बड़े पारदर्शी पल्ले लगे हुए हैं। यहां पहुंचते ही मेरे मुंह से निकला ये तो जन्नत है । सामने प्रकाश जी खड़े थे । मेरी तरफ हाथ बढ़ाते हुए बोले आइए आइए , आपका स्वागत है। प्रकाश ठाकुर से मेरी पहली मुलाकात थी लेकिन उनका मेरी तरफ बढ़ा हुआ हाथ और खातिरदारी के लहजे ने उनकी मुझसे पहचान करा दी। मैंने हाथ मिलाते हुए कहा - सर क्या शानदार जगह रहते हैं आप । यहां तो जिधर देखो उधर ही जन्नत है। सामने सूरज पहाड़ की चोटियों पर डूब रहा था । बांयीं तरफ से लेकर दांयी तरफ तक हरी-हरी चोटियां आसमान को टांगे भागती हुई सी दिख रही थीं । चोटी से लेकर खूब नीचे घाटी तक देवदार के पेड़ों और सेब के बागानों की घनी पांत सजी पड़ी थी । बीच बीच में बड़े खूबसूरत से घरों की छोटी छोटी जमात । कुल मिलाकर इस नजारे ने अजीब सा नशा पैदा कर दिया । मैंने प्रकाश जी से फिर कहा - सच कहूं तो मैंने इतनी खूबसूरत जगह पहले कभी देखी नहीं । हालांकि मैं कश्मीर और पूर्वोत्तर का चप्पा चप्पा छान चुका हूं लेकिन कुदरत पहली ही नजर में यूं बांध ले ऐसा पहली बार हुआ है। हम सब एक टेबल के चारों ओर कुरसी में धंस चुके थे और चाय टेबल पर आ गयी थी। हाथ के इशारे से हमसे चाय पीने का आग्रह करते हुए प्रकाश जी ने अपना प्याला उठाया । जानते हैं यहां जो आता है वह यही कहता है लेकिन सर्दियों में जेल वाली ज़िन्दगी भी हम ही काटते हैं- प्रकाश जी ने मुस्कुराते हुए कहा। यहां जाड़ों में १२-१५ फीट बर्फ गिरती है, रास्ते बंद हो जाते हैं और अड़ोस पड़ोस तक से संपर्क कट जाता है। खाने पीने से लेकर घर परिवार की बाकी जरुरत का सामान सहेज कर चार महीने हम ही काटते हैं तो फिर जन्नत का लुत्फ भी तो हम उठाएंगे ना । प्रकाश जी अपनी रौ में बोल रहे थे और इतना कहते कहते उन्होंने जोर का ठहाका लगा दिया। गोरे चिट्टे से इंसान , नीली आंखे , आंखों पर चौकोर सा चश्मा , सफेद बाल ऊपर की तरफ संवरे हुए और उमर कोई ६५ के पास की है प्रकाश जी की । नीरज ने शिमला से  निकलते हुए कहा था- प्रकाश जी मिलना चाहते हैं , जरुर मिलिएगा सर । यहां की राजनीति और सेब के कारोबार के धुरंधर जानकार हैं। अच्छी तबीयत के हैं । आपको भी मिलकर अच्छा लगेगा । नीरज की बात सौ फीसदी सही थी। ४५ मिनट कैसे बीत गए पता ही नहीं चला। चाय का मेरा दूसरा प्याला भी खत्म होनेवाला था। पिछले तीन दिनों में पहली बार मेरी पसंद की चाय मिली थी । कड़क और एकदम ज़ायकेदार। सूरज चोटियों की ओट में चला गया था । आसमान और पहाड़ों के बीच फैली सिंदूरी सांझ में रात अपना रंग घोलने लगी थी। अंधेरा होने से पहले सर्किट हाउस पहुंचने की चिंता ने हमें वहां से उठने पर मजबूर कर दिया। लेकिन नारकंडा और थानेदार कुदरत की नेमत है।