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शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2011

कुछ ग़ज़लें

(1)
इक राह तेरी याद सी , चलती है रातभर
इक साक़ी इक सुराही भी चलती है रातभर
चूल्हे की आग को लिये सदियां गुजार दीं
इक रोटी आसमान में चलती है रातभर
उसने भी चलो सीख लिया हंसने का सलीका
करवट बदल के यार वो , रोती है रातभर
मिटना कबूल क्या करे शबनम को इश्क है
सूरज के इंतजार में सजती है रातभर
फिर वही खुशबू है, बारिश, कागजों की कश्तियां
मासूम सी शरारत कोई , मचलती है रातभर

(2)
कभी यार, कभी फरिश्ता, कभी खुदा लगता है
गाढे वक्त में मददगार, क्या क्या लगता है
अपना सुना औऱ लिहाज भी नहीं रखा आपने
फरेब औरों का सुनना तो बड़ा अच्छा लगता है
अपने पसीने की पूरी कीमत मांगते हैं
हमारा ख़ून भी उन्हें सस्ता लगता है
शहर में सबकुछ मिलेगा,बोलिये क्या चाहिये
बाजार को मोटी जेबवाला अच्छा लगता है
साथ जीने मरने की कसमें पुरानी हो गयीं
लैला को मजनूं कहां अब अच्छा लगता है

(3)
मेरे दौर में ये कैसी राज़दारी है
ज़मीन हल्की है, हवा भारी है
गोलियों पर उसी ने नाम लिखा था
भीड़ में आज जिसकी तरफदारी है
तोड़ डाले बुतखाने के सारे खुदा जिसने
बुतपरस्तों से अब उसी की यारी है
इंसां जबसे मौत का सामान बन गया
कभी मुंबई,कभी रावलपिंडी, धमाका जारी है
दिहाड़ी से दोगुनी थाली हो गयी है
ये कैसी जम्हूरियत, कितनी मक्कारी है

शनिवार, 1 अक्तूबर 2011

मलेशिया में तीन रातें

- सुबह के लगभग नौ बज रहे थे । मैं और मेरे मित्र लौटने के लिये क्वालालंपुर एयरपोर्ट के वेटिंग लाउंज में बैठे थे। अचानक पीछे बैठे सज्जन की आवाज ऊंची हुई – भैया का हाल है । प्रदीप सिंह मलेसिया से बोल रहे हैं । आप तो सो रहे होंगे , यहां देखिए सुबह के 9 बज गये हैं और हम फ्लाइट से अब इंडिया लौटनेवाले हैं । बाकी सब ठीक है ना, बस आते हैं तो मिलते हैं....इसके बाद अगले 20 सेकेंड तक कोई आवाज नहीं आई । प्रणाम दीदी , प्रदीप मलेसिया से बोल रहा हूं, समझ लो कि इंडिया से कोई मुकाबला नहीं है , यहां की बिल्डिंगें, सड़कें, डेभलपमेंट – सब एकदम धांसू

टाइप है । हमलोग दिल्ली में तो लगता है साला कबाड़ का लाइफ जी रहे हैं। लाइफ तो यहां है । प्रदीप सिंह का फोन लगातार चल रहा था औऱ लगता था कि क्वालालंपुर में जो लोकल सिम उन्होंने ली होगी उसमें जितनी रकम बची थी, फ्लाइट के निकलने से पहले निपटा देना चाहते थे। लेकिन इससे कहीं ज्यादा जरुरी ये था कि प्रदीप जी बचे वक्त औऱ बची रकम में सभी जाननेवालों को ये बता देना चाहते थे कि वो तीन रोज पहले फ्लाइट से मलेशिया आए थे औऱ फ्लाइट से ही इंडिया लौटनेवाले हैं । उनके मुताबिक मलेशिया नाम के इस देश का कूड़ा भी इंडिया के कंचन से ज्यादा चमकदार है। कौन...डीके यादव जी एमवे वाले बोल रहे हैं। अरे सर नमस्कार , प्रदीप सिंह मलेसिया से बोल रहा हूं...यहीं का नंबर दिख रहा होगा आपको...आकर लिया था...तीन दिन पहले आया प्राइभेट टूर पर...साला यहां कूड़ा तो दिखता ही नहीं है...हार्न कभी बजता ही नहीं...जिधर देखिए एकदम चमचमाता रहता है ....एक बात कहूं भाई साहब साला रहने का मजा तो यहीं है...हमलोग साला क्या लाइफ जी रहे हैं....और यहां देखेंगे तो दिमागे हिल जायेगा। प्रदीप जी का फोन अपने मिशन पर लगा हुआ था औऱ पूरे वेटिंग लाउंज में उनकी आवाज गूंज रही थी । मैंने पीछे मुड़कर उनके दर्शन करने चाहे – गोरा रंग, घुंघराले बाल जो सामने से आधे सिर का साथ छोड़ चुके थे, कतरी हुई बारीक मूंछें और बड़ी बड़ी कंचे जैसी आंखें जो बाहर की तरफ निकली हुई थीं।

प्रदीप सिंह कोई इकलौते भारतीय नहीं हैं जिन्होंने विदेश में भी देसी माहौल का पूरा पूरा अहसास कराया । पिछले तीन दिनों में कई बार ऐसा लगा कि हम दिल्ली के ही किसी हिस्से में हैं। ऐसा सबसे ज्यादा बातू केव्स के मुरुगन मंदिर में लगा जिसमें प्रवेश करते ही गायत्री मंत्र बजता सुनाई पड़ा और अंदर भारतीयों खासकर दक्षिण भारत के लोगों की बड़ी तादाद मौजूद थी। क्वालालंपुर में बड़ी तादाद में दक्षिण भारतीय लोग पीढियों से रहते हैं , अच्छा कारोबार संभाले हुए हैं औऱ अपनी परंपरा- संस्कृति से आज भी गहरे जुड़े हुए हैं। मरुगन मंदिर पहाड़ के अंदर एक प्राकृतिक गुफा में बना हुआ है जहां तक जाने के लिये 306 सीढियां चढनी पड़ती हैं। गुफा के द्वार पर पहुंचकर सांसे तो उखड़ गयी थीं लेकिन आंखों के सामने जो कुछ था उसने रोमांचित कर दिया। पहाड़ अंदर से यूं कटा हुआ था जैसे किसी विशाल मंदिर का गर्भगृह हो । उसके एक हिस्से में बड़ा-सा सुराख था जिससे रौशनी आ रही थी । गुफा में सौ कदम आगे पूरा उजाला नजर आ रहा था औऱ हम ये समझ नहीं पा रहे थे कि आखिर ये रौशनी आ कहां से रही है । वहां पहुंचकर हमने देखा कि पहाड़ ऊपर से खुला हुआ है...बिल्कुल गोल। जैसे किसी ने गुंबद में ऊपर का हिस्सा खोल दिया हो। ये आंगन जैसी जगह है – जिसके चारों ओर देवताओं की मूर्तियां-मंदिर हैं। इन्हीं में आंगन की एकतरफ औऱ प्रवेश द्वार के ठीक सामने मुरुगन का मंदिर है। यहां श्रद्दालुओं के आने जाने का तांता लगा रहता है । सीढियां उतरते वक्त ये अहसास हो रहा था कि हमने घंटा भर पहले अपना फैसला बदलकर बहुत अच्छा किया । दरअसल मैं औऱ मेरे मित्र मलेशिया घूमने आये औऱ यहां आकर हमने ये तय कर लिया कि दोनों भले ना सोएं लेकिन घूमने-देखने का कोई मौका नहीं गंवाएंगे। क्वालालंपुर पहुंचने के अगले दिन जब हम गेंटिंग जा रहे थे तो हमारे ड्राइवर महमूद ने बताया कि रास्ते में मुरुगन मंदिर आएगा, आपलोग चाहें जो देख सकते हैं। महमूद की बात पूरी हुई कि सामने बारिश आती दिखी औऱ जब हम बातू केव्स पहुंचे तो तेज हो चली थी । दस कदम पर सौ फीट से ज्यादा ऊंची, बिल्कुल सुनहरे रंग की मुरुगन की काफी भव्य मूर्ति खड़ी थी । इसकी दांयी तरफ एक गेट था जिससे अंदर जाने पर आगे सीढियां शुरु होती हैं । सीढियों की पांत जहां खत्म होती है वहां एक बड़ी सी गुफा दिखती है । बारिश देखकर हमने ये तय किया कि ऊपर नहीं जाते हैं , जितना देखना है गाड़ी से ही देख लेते हैं। आखिर इससे ज्यादा और होगा भी क्या ऊपर । लेकिन थोड़ी ही देर में मन बदल गया – हमारे मित्र ने कहा यार जब यहां आ ही गये हैं तो बारिश के चलते जाना क्यों रोकें औऱ गाड़ी में महमूद भाई ने छाता रखा ही है – लेकर निकल पड़ते हैं। हमने फिर कोई बात नहीं कि बस निकल गये। लौटकर हम दोनों ने एकदूसरे का चेहरा देखा और साथ ही बोल पड़े – यार मजा आ गया। महमूद ने बात जोड़ी – सर आपलोग यहां नहीं जाते तो बहुत कुछ मिस कर जाते। अब चलिए गेंटिंग निकलते हैं। बारिश खत्म हो चुकी थी औऱ तेज धूप निकल आयी थी। चारों ओर छोटी छोटी पहाड़ियां ,उनके बीच से भागती सुंदर सरपट सड़क, सड़क के दोनों तरफ घासकटाई करते या तरतीब में लगाये गये पौधों की छंटाई करते कुछ लोग कहीं कहीं दिख जा रहे थे। बीच बीच में पाम की कई कई किलोमीटर लंबी खेती आपके दोनों तरफ आ जायेगी तो कहीं कहीं पहाड़ियों की चोटी तक पेड़ों की घनी पांत नजर आयेगी । क्या मजाल जरा सी भी जगह नंगी मिल जाये । ऐसे लगता है कि सबकुछ कायदे-करीने औऱ सांच में ढाल दिया गया है । गाड़ी भाग रही थी – रफ्तार सौ से ऊपर रही होगी। मैंने अचानक पूछा – महमूद मियां आपका शहर कौन सा है । जवाब आया – मुल्तान । साल में कितनी बार घर जा पाते हैं । बस एक बार – लेकिन महीना से कम नहीं रहता। ये बताईए कि पाकिस्तानी करेंसी में यहां कितना कमा लेते हैं । उम्म्म्म्म...यही कोई सत्तर हजार के आसपास । मैने कहा – ये तो बहुत अच्छा है । फिर आप यहीं कमाओ औऱ पैसे जमा करके अपने शहर में जमीन जायदाद बना लो । पाकिस्तान में इतना कहां कमा पाओगे । हां सर वहां जिंदगी ही सलामत रहती है तो इंसान गनीमत मानता है – कमाने की तो छोड़िए। जब से गिलानी साहब पीएम हुए हैं, मुल्तान के होने के चलते कुछ काम धाम जरुर शुरु हुआ है...जमीन की कीमत ऊपर जा रही है। तो फिर आप जमीन में ही पैसा लगाओ- मैंने कहा । हां सर इस बार गया था तो जमीन ही खरीदी – जायेगी तो कुछ देकर ही जायेगी। महमूद से हमारा परिचय होटल के बाहर हुआ जब वो हमें गेंटिंग के लिये पिक करने आये। सर गुड मार्निंग – मेरा नाम महमूद है, आपलोगों को गेंटिग के लिये पिक करने आया हूं- रिसेप्शन से कमरे में फोन आया था औऱ हमने ये कहकर रख दिया कि बस दो मिनट में आये । नीचे आये तो महमूद ने हमें दोबारा नमस्ते किया औऱ लगेज गाड़ी में रखने लगे। करीब 5 फुट 8 इंच , हट्ठा कट्ठा डील डौल औऱ ऊर्दूवाली जुबान। गाड़ी में बैठते ही मैने पूछा – महमूद मियां कहां से हैं आप । सर पाकिस्तान । तो यहां कब से । सर दस साल हो गये होंगे । अच्छा अच्छा , कल हमें एयरपोर्ट पर जिन्होंने पिक किया था – मिस्टर साजिद , वो भी पाकिस्तान के ही थे। पाकिस्तान के कितने लोग होंगे यहां। सर, काफी हैं – ज्यादातर टूर ट्रैवल औऱ होटल के धंधे में मिलेंगे आपको। हम्म्म्म्म...गाड़ी ने रफ्तार पकड़ ली औऱ हमलोग सड़क के दोनों ओर खड़े शहर में खो गये।

आगे जारी है....