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सोमवार, 24 दिसंबर 2012

बीचयू में लिखी कविता ( मार्च 1996) : कपड़े



कपड़े होते हैं 
पूरा का पूरा जिस्म
जिनमे बजता है शरीर का संगीत
क़ाबिज होती है
बांह की जगह बांह
छाती की जगह छाती
और कमर की जगह कमर 
वे नहीं होते पियरे कार्डिन, वॉन ह्यूज़ेन
लेवाइस या फ्लाइंग मशीन अलग से
कपड़ों से होकर संचारित होता है रक्त
सरकती रहती हैं सांसे
और रची बसी होती है पसीने की गंध
वहीं कहीं
एक इंसान के जीवित होने की सारी संभावनायें महफूज़.

कपड़े जरुरी हैं
ताकि पहचाना जा सके नंगापन
बची रह सके पहचान
या फिर बचाई जा सके द्रौपदी
कपड़़े नहीं होते रौशनी
जिसमे खुलते हैं सारे सच अचानक
कपड़े अंधेरा भी नहीं होते
जिसमे गुम हो जाती हैं
सारी छोटी बड़ी चीजें अपने बोध के साथ

कपड़े पानी होते हैं
जिसमे सुरक्षित रहती है नमी
ताकि समय पर अंकुरित हो सकें बीज
बचा रहे कली और फूल का अंतर
हर सुबह हवा में मिले ताज़गी
और शेष रहे
पहली फुहार की सोंधी गंध.

रविवार, 23 दिसंबर 2012

प्रदर्शनकारी ( शेष)





प्रदर्शनकारी , क्रांति के अग्रदूत होते हैं
वे नायक नहीं होते इसलिए उन्हें कोई नहीं जानता
जो झंडा लेकर सबसे पहले दौड़ा था और गोली खायी थी
जो रातभर हवालात में पिटा और सुबह मर गया लेकिन गलत गवाही नहीं दी
जो किसानों के अधिकार के लिये अनशन पर बैठा और उसकी मौत की खबर तक नहीं लगी
जो खाप पंचायतों के तालिबानी फरमान के खिलाफ खड़ा हुआ और सुबह पेड़ पर लटकता पाया गया
जो बड़े सरकारी घोटाले का पर्दाफाश करने से पहले ही अगवा हो गया
वे सब प्रदर्शनकारी ही थे
उनकी कोई प्रतिमा आपने कहीं नहीं देखी होगी  
उनके नाम के चौराहे, सड़कें ,गलियां भी नहीं होते
कहते हैं प्रदर्शनकारियों की रगों में जबतक ख़ून है
वो व्यवस्था में ज़रुरी बदलाव के लिए लड़ते हैं
लेकिन जब ख़ून उनकी आंखों में उतर आता है
फिर व्यवस्था ही उखाड़ फेंकते हैं प्रदर्शनकारी
गद्दाफियों और मुबारकों जैसों के अंत के लिए
चाहिए ही चाहिए
प्रदर्शनकारी .

शनिवार, 22 दिसंबर 2012

प्रदर्शनकारी

   


आज विजयचौक पर फिर जमा हुए थे प्रदर्शनकारी   
हमेशा की तरह डंडे-डुंडे खाकर, हाथ-पैर तोड़-फोड़कर लौट गये
उनको पता होता है कि होना क्या है
पीठ मजबूत करके आते हैं, खाना-दवा ज़रुरी है तो लेकर आते हैं
हाथ में हाथ डाल एक दूसरे को हिम्मत देते हैं, आगे बढते हैं
एक दूसरे की आंखों का डर, एक-दूसरे को भागने से रोकता है
फिर ताकत भर चिल्लाकर डर भगाते हैं
नारे लगाते हैं, बैनर-पोस्टर लहराते हैं, हक मांगते हैं प्रदर्शनकारी 
हिम्मत भर डटे रहते हैं, बर्दाश्त भर जूझते हैं
भागते समय सबसे पीछे रह गये साथियों की तरफ मुड़-मुड़कर देखते हैं
पिटते, चीखते, दोहरे होते, उठते-भागते फिर गिरते साथियों के लिये
ठिठकते हैं, हिम्मत बटोरते हैं लौटने की, घायल साथियों को लेकर भागते हैं 
प्रदर्शनकारी.

प्रदर्शनकारियों के चेहरे नहीं होते, नाम-पता भी नहीं
वो झुंड के झुंड आते हैं तय जगह पर, जाने अनजाने रास्तों से
उनकी कोई निश्चित संख्या नहीं होती
इतिहास में वो हमेशा अनुमान के हवाले से दर्ज होते हैं
आंकड़े सिर्फ मरनेवालों और घायलों के होते हैं
प्रदर्शनकारी भी डरते हैं हमारी आपकी तरह
उनके घावों से लाल खून ही निकलता है
वे रोते-चीखते हैं ठीक वैसे ही जैसे हम और आप
वे भी सपने देखते हैं
उन्हें भी पसंद है - ज़ायकेदार खाना, मुलायम बिस्तर और सुकून की नींद  
फिर भी जब हम और आप बैठे होते हैं घरों में
रोटी, इज़्जत, आज़ादी और इंसानियत की खातिर लड़ते हैं, मरते हैं प्रदर्शनकारी
दुनिया के सबसे बड़े संत और सबसे बड़े योद्धा हैं 
प्रदर्शनकारी.

दुनियाभर में प्रदर्शनकारियों की अपनी एक जाति है
वो हर जगह होते हैं, हमारे आपके आसपास इस वक्त भी
दिल्ली, मुंबई, लखनऊ, पटना, सूरत , भोपाल कहीं भी
उनकी कोई यूनिफॉर्म नहीं होती, उनके पसीने में कोई अलग गंध भी नहीं होती
महकमा, मुहल्ला, मुखिया, मज़हब – कुछ भी उनका अपना नहीं होता 
सड़क पर, बाज़ार में, खेत में वो खड़े होंगे और आप चीन्ह भी नहीं पायेंगे
अस्पताल और श्मशान में ही पहचाने जाते हैं प्रदर्शनकारी
बुद्दिजीवियों को बहुत भाते हैं प्रदर्शनकारी
तरक्कीपसंदों के प्रिय पात्र हैं प्रदर्शनकारी
वो कहते हैं कि प्रदर्शनकारी में बजर का सबर और समंदर की शक्ति होती है
प्रदर्शनकारी ज़रुरी हैं ताकि जिंदा रहे लोकतंत्र
ज़ुल्म-ज़्यादती, लूट-खसोट, गूंगी-बहरी व्यवस्था के खिलाफ
खड़ा होने के लिये ज़रुरी हैं प्रदर्शनकारी
सांस का खुली हवा से रिश्ता बना रहे , आबरु का अंधेरे में भी इत्मिनान बना रहे
भूख का रोटी पर हक बचा रहे , आज की कल पर उम्मीद बची रहे
प्रर्दशनकारी ज़रुरी हैं
आज जो विजयचौक से लौटकर गये हैं, वो कल फिर आयेंगे
उनके लौटने से पहले मेरी ये कविता आपके पास होगी
क्या पता खुद के पथराने से पहले हम भी बन जायें 
प्रदर्शनकारी.

मंगलवार, 18 दिसंबर 2012

बलात्कार




वो सचमुच सुनैना थी
मेरी मां कहती थी – भगवान ने इसकी आंखों की कढाई करवाई होगी
कच्चे मक्के की लड़ियों जैसे थे उसके दांत
बसंती हवा की तरह मुहल्ले भर फुदकती रहती थी
उसकी पायलों की झन-झन से उसके होने का पता चलता था
सुनैना , ना बोल सकती थी और ना सुन पाती
ऊपरवाले ने यही नाइंसाफी उसके साथ की थी
एक सुबह सुनैना के घर में कोहराम मच गया
रात आंगन में ही सोयी थी, लेकिन खटिया समेत गायब है सुनैना
सारा गांव झाड़-झंखाड़, खेत-बधार, घर-दुआर खंगालने लगा
घंटों बाद दूर की आमवाड़ी के पास मक्के के खेत में
खाट पर बेसुध मिली सुनैना
गांवभर को काठ मार गया
सुनैना की मां अचानक जोर ज़ोर से चीखने लगी
छाती पीट-पीट लोटने लगी
मेरी बेटी बर्बाद हो गयी
मेरी कोमल सी बच्ची को हरामियों ने नोच डाला रे  
अब हम का मुंह दिखाएंगे
सुनैना का बापू उसका सिर अपने सीने में धंसाए
फफक-फफक रो रहा था .
सुनैना के शरीर में सांस चलने के सिवा
जिंदा होने की कोई हरकत नहीं थी
गांव गुस्से में दहक रहा था
नौजवान आंखें लाल थीं, ज्यादातर आस्तीनें चढी हुई थीं
सरपंच ने हुंकार भरी- जिन कमीनों ने ये कुकर्म किया है
उनको चौराहे पर लटकाया जायेगा
पुलिसवाले आए, गांव भर को हड़काए
सुन लो जिसने भी किया है वो बच नहीं सकता
इतना ठुकेगा कि सात पुश्तें लूली-लंगड़ी पैदा होंगी
अखबारों में बड़े बड़े अक्षऱों में सुनैना की खबर छपी  
अगले ही दिन मंत्री जी का गांव का दौरा हो गया
गाड़ियों के काफिले से मुहल्ला भर गया
मंत्री जी ने एलान किया
संसद में सुनैना का मसला उठाएंगे
हर कीमत पर सख्त से सख्त कानून बनायेंगे
दोषियों को फांसी पर लटाकाएंगे .
सुनैना हादसा नहीं बड़ी खबर हो गयी
रैलियां, नारे, प्रदर्शन और राजनीति हो गयी
आंसू, दर्द , मरहम और मसला हो गयी
वो जो कुछ नहीं हो सकती थी , सब हो गयी
लेकिन वैसा कुछ भी नहीं हुआ – जो होना चाहिए था
सुनैना जिंदा लाश हो गयी
घर के पिछवाड़े गौशाले के पास
धूल-मिट्टी सनी लेटी पड़ी रहती
कभी कभी मां-बेटी को लिपट-लिपट रोते हुए कुछ लोगों ने देखा
सुनैना का बाप कम ही दिखाई देता
सांझ के झुटपुटे में या ओसिआए भोर में ही
लोगों ने उसे देखा
सिर तक चादर लपेटे, आंख बचाते, तेज़-तेज़ चलते हुए.
एक सुबह अचानक गांव में फिर कोहराम मचा
गांव के चार लड़कों की लाश चौंर में पड़ी थी
सबके लिंग कटे थे , गर्दन उतरी थी
सुनैना खेत की पगडंडियों पर खूब तेज दौड़ रही थी
उसकी हंसी दूर-दूर तक सुनाई दे रही थी
उस दिन के बाद सुनैना के बाप को 
किसी ने कहीं नहीं देखा.

सोमवार, 17 दिसंबर 2012

वक्त बेज़ुबां नहीं होता


(1995 की मेरी एक कविता , उनदिनों बीएचयू में पढ़ रहा था)

दबी टूटी कलम से
कविता नहीं बनती
शब्दों का प्रलाप होता है
अर्थ बयां नहीं होता
रेत के टीले होते हैं
घर-बागबां नहीं होता .

ईश्वर एक शक्ति है
जूझने के लिये
भाग्य के वास्ते
कोई जहां नहीं होता
पर कटे परिंदे का
कोई आसमां नहीं होता.

हाथ की मिट्टी सोना है
अगर भीतर विश्वास है
किसी भी राह में कुछ
दरमियां नहीं होता
वक्त की तलाश बेजां है
उसका कारवां नहीं होता.

नदी है वह
उसे मंज़िल मालूम है
किनारों का कोई
अपना निशां नहीं होता
मैं ना भी बोलूं तो क्या
वक्त बेज़ुबां नहीं होता.

सोमवार, 19 नवंबर 2012

बाल ठाकरे





शहर में लोगों का समंदर, आंखों में सैलाब आ गया है
गोया साहब के जनाज़े से भी इन्किलाब आ गया है.

रीढ़वालों की नाप से उसने बारहा छोटे रखे दरवाज़े 
उसी क़िले में अब रहमत का दयार आ गया है.

फरेब है कि नफ़रत और दहशत नज़ीर नहीं बनतीं
नवीसों को भी उसकी रहनुमाई पर एतबार आ गया है.

बदल गये आज मुल्क और मुहब्बत के मुअज़्ज़िन  
जन्नत तक पेशवाई, दर तक परवरदिगार आ गया है.

कैसे मान लूं गुमनाम ही गुज़र जाऊंगा मैं यारों
मेरी तबीयत में भी अब ठाकरे सरदार आ गया है.