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शनिवार, 20 जून 2015

बिरहा वाले केदार पांडे


कांपती सी आवाज़ उठती थी
आधी रात
केदार पांडे के गले में 
गोल गोल चक्कर लगाता था अंधेरा
दालानों में ताखों पर लहराती रहती थी
दिए की लौ
और घरों के बीच हांय हांय कर
दौड़ती रहती थी हवा
समूचे जवार में इकलौते बचे थे
बिरहा गानेवाले केदार पांडे
आधी रात जब धड़धड़ करती
एक बजिया ट्रेन जाती
बिरहा पर सारा आसमान तन जाता
क्वार का चांद खेतों में
देह फैलाए लेटा रहता
और नींद को करवट छोड़
कुछ आंखें पनीली हो जाती
पिछली बार जब गांव गया था
तो अचानक उन रातों के रेले आए
पता चला अब ना तो एक बजिया ट्रेन आती है
ना चांदवाला आसमान तनता है
केदार पांडे को गुजरे सालों हो गए
बिरहा सीवान पर खड़े
ग्राम देवी के पताके सा है
अगले साल भगत जब
खौलते दूध में उतारेंगे देवी
तब ढूंढे जाएंगे उसके चीन्ह-पहचान.