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सोमवार, 22 सितंबर 2008

एगो भोजपुरी गीत

नींद से खाली अंखियन में आसमान उतरल बा
केहू के सपना सजलबा रात भर
भोर के बिस्तर के पोर पोर टूटेला
देह के दंगल चलल बा रात भर
दिन चिक्कन फागुन के अल्हड लेके दौड़े
साँझ के संग रहल बा रात भर
सहर में कोई आपन अंकवारी भर मिलल
गाँव में चाँद उगल बा रात भर

बुधवार, 3 सितंबर 2008

बाबाओं की पौ बारह है

बाबाओं की पौ बारह है आज शनि अमावस है और तमाम चैनलों पर ज्योतिषियों और बाबाओं की बकबक चल रही है । पिछले साल से यानि जनवरी २००७ से धर्म , आस्था और कर्मकांड के नाम पर ऐसे खुला खेल शुरू हुआ की आज उनकी पौ बारह है । ३-४ मार्च ( ०७) की रात पूर्ण चंद्र ग्रहण था और आजतक में मैंने बेहतर की । नतीजा ये हुआ की टीआरपी छापर फाड़ कर मिली । इसके बाद तो जैसे ग्रहों नक्षत्रों और ज्योतिषियों की किस्मत चमक गई। पहले स्टार न्यूज़ ने इसपर हाथ साफ़ करना चाह और इसी बीच इंडिया टीवी उसी दाती महाराज को लेकर तमाशा करने लगा जिन्हें साल भर पहले नकवी जी ने खली हाथ लौटा दिया था । धीरे धीरे दाती महाराज का गुरुमंत्र आजतक के लिए बड़ी परेशानी बन गया और गाहे बगाहे बाबा- पंडित-ज्योतिषी न्यूज़ चैनल पर दिखने लगे ....टीआरपी की लूट शुरू हो गई। लेकिन पिछले महीने भर से इंडिया टीवी का जादू-टोना-मंतर का फार्मूला पिट रहा है .....स्टार न्यूज़ ख़बरों पर लौट चुका है । आजतक अब भी नम्बर १ है लेकिन ख़बरों को और तलाशने-तराशने पर जोर बढ़ रहा है। आने वाले ४ राज्यों के चुनाव और फ़िर आम चुनाव को देखते हुए अब ये उम्मीद मज़बूत हो चली है की पिछले ढाई साल से ख़बरों की जो गाड़ी डेरेल हुई है वो पटरी पर लौटेगी। ये गाड़ी डेरेल कैसे हुई थी इसका ज़िक्र फिर कभी...........!

जब चुप्पी बोलती है

चुप रहने का कोई मतलब होना चाहिए। लतिआये-जुतिआए लोगों की जमात में जो चुप्पी होती है उसमे व्यवस्था को बदलने का माद्दा नहीं होता। कोई लेनिन , कोई माओ , कोई चेग्वेरा , कोई विनोद मिश्रा चाहिए ही चाहिए उस चुप्पी के ढेर में हक की हवा और बगावत की आग डालनेवाला । लेकिन ज़रूरी ये है कि अपमान की आग को ख़ुद के भीतर बचाकर रखा जाए और अपनी चुप्पी में सम्मान संजोने के जतन किए जायें। चाणक्य चुप थे लेकिन एक रोज़ उन्हें चन्द्रगुप्त मिल गया, द्रोन चुप थे लेकिन एक रोज़ उन्हें अर्जुन मिल गया। सुग्रीव चुप थे लेकिन एक रोज़ राम मिल गए। नतीजा ये हुआ की चाणक्य के आगे घननंद , द्रोन के आगे पंचाल नरेश और सुग्रीव के आगे बाली का मान टूटा । लेकिन बिहार के लोगों के साथ पता नहीं क्या हो गया है कि वो अपमान और नर्क दोनों भोगने को अभिशप्त हैं। हाल ही में घर गया था । छपरा से १० किलोमीटर घर जाना पड़ा तो रोड दिखी नहीं । बस ऐसा लगा कि कार या bike कि दौड़ के लिए बेहद उबर खाबर और खतरनाक रास्ता तैयार किया गया है। घंटे भर में ठीक से चले तो १० किलोमीटर का रास्ता पार कर लेंगे । हाँ अगर रोड को अपनी सलामती का इम्तिहान देते देते आपकी गाड़ी जवाब दे गई तो फिर आप मन भर गाली देने से ज़्यादा कुछ कर भी नहीं सकते। हम बिहार के लोगे दिल्ली मुंबई से लेकर सूरत ,अहमदाबाद और पटिआला तक भाड़े पड़े हैं लेकिन अपनी ज़मीं पर जाकर , सब देख सुनकर, गाली गुत्ता देकर लौट आते हैं ......कुछ करने से पता नहीं क्यों परहेज़ कर जाते हैं । इस तरह की चुप्पी बाँझ होती है। सोचता हूँ इस चुप्पी में हक की हवा और बगावत की आग भरी जाए। इसके लिए कुछ नौजवानों की टीम तैयार करनी होगी और उस मरते समाज में उम्मीद का सूरज जगाना होगा । आज बिहार प्रलय की चपेट में है लेकिन हो क्या रहा है ? ऐसे दर्द को अपने भीतर बचाकर रखने का भला क्या मतलब। अगर आप मेरे साथ खड़ा होना चाहते हैं तो ज़रूर बताइए ।

मंगलवार, 2 सितंबर 2008

क्योंकि बोलना ज़रूरी है

ब्लॉग्गिंग की दुनिया आबाद होने लगी है । कहने की जितनी वजहें होती है उससे कहीं ज़्यादा वजहें चुप रहने की होती हैं । ब्लॉग की दुनिया ने उन वजहों की जुबान गांठ दी है । इतना ही नही बल्कि इसने इतना बड़ा दायरा खड़ा कर दिया है जिसमे कहने का हर कायदा फिट बैठता है । आप साहित्य नही लिख सकते कोई बात नही, अख़बारों के लिए नही लिख पा रहे तो जाने दीजिये, पत्रिकाओं में भी जुगाड़ नही बैठ पा रहा तब भी चिंता नही - आप मनभर लिख सकते है या यूँ कहें की कह सकते हैं । और जब कभी आप ऐसा कर रहे होंगे उस वक्त आपके कहे-लिखे को देखने-सुननेवाला आप ही होंगे । यही वजह है कि लिखने कहने के सार्वजनिक साधन संसाधन से आपके परहेज़ या फ़िर न लिख पाने कि तमाम वजहों को ब्लॉग मिटा देता है। मैं टीवी पत्रकारिता के पेशे में हूँ और शुरुआती पढ़ाई गांव में हुई । १० साल दिल्ली में रहने के बावजूद जब कभी आसमान भर तारे दीखते है या देर रात बारिश की आवाज़ आती है तो गांव याद आता है। दिल्ली की सीमा पर के गांव में बैलगाड़ी के पीछे ladke दौड़ lagate हैं और उसपर सवार होने के लिए एक दुसरे से धक्का mukki करते हैं तो गांव याद आता है। अगर आप गांव में रहे होंगे तो आपको नीम की मीठी chhaon याद आती होगी, pokhar kinare bansi लगाना याद आता होगा । बारिश की gili shaam और बस्ती के ऊपर choolhon के dhuen की dhundh भी याद आती होगी। इस याद का आना ही कहने की शुरुआती वजह देता है और फिर वजहों का एक लंबा सिलसिला होता है जो कहने को बेचैन करता है । ब्लॉग उससे बहार निकलने का बेहतरीन रास्ता है ।