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गुरुवार, 16 मार्च 2017

आप का "राजनीति" शास्त्र और पंजाब के सबक
अरविंद केजरीवाल की राजनीति के लिये पंजाब एक बड़े सबक की तरह है. गोवा में उम्मीदों के ज्वार का उठना और नतीजे में उनके भाटे की तरह गिरना जमीनी सच्चाई से दूर नहीं था, लेकिन पंजाब में चीजें बिल्कुल अलग थीं. आम आदमी पार्टी ने पंजाब में पिछले डेढ दो साल में जमीनी स्तर पर बहुत काम किया. लोगों में यह भरोसा पैदा कर दिया गया कि पंजाब का अगर कायाकल्प करना है तो "बादलों" को उखाड़ फेंकना होगा. केजरीवाल बार-बार यह भी कहते रहे कि "बादलों" और कैप्टन में अंदरखाने हाथमिलाई है. दोनों मिले हुए हैं. इनसे बचकर. सरकार से लोगों की बेहिसाब नाराज़गी ने आम आदमी पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं को गांव, कस्बा, शहर में जगह दिला दी. लोगों को ये लगने लगा कि अपना सब छोड़ छाड़कर पंजाब मे डेरा डाले हजारों लोग हमारी बेहतरी चाहते हैं, इनके साथ खड़ा होना चाहिए. लेकिन नतीजे आए तो कांग्रेस को प्रचंड बहुमत और आप से ज्यादा वोट शिरोमणि अकाली दल को मिला. "आप" को सीटें भले ज्यादा मिलीं लेकिन वोट उसे मिले २३.७% ही मिले जबकि अकाली दल को २५.२%. ऊपर से जिस विक्रम मजीठिया को ड्रग्स के मामले में चारों ओर से घेरा गया और पंजाब के नौजवानों को नशाखोर बनाने का सीधा सीधा आरोप लगाया , वह मजीठिया जीत गए. प्रकाश सिंह बादल और सुखबीर बादल भी जीत गए. यानी केजरीवाल के कैंपेन से सारे कल-पुर्जे खुलकर बिखर गए. जिस पंजाब से जीतकर केजरीवाल देश की राष्ट्रीय राजनीति में एक बड़ी ताकत बनने के सपने देख रहे थे, उस पंजाब ने दिन में तारे दिखा दिए. सवाल ये है कि ऐसा क्यों हुआ?

इसकी चार-पांच बड़ी वजहें हैं. केजरीवाल ने आखिर तक यह साफ नहीं होने दिया कि पार्टी अगर जीतकर आती है तो मुख्यमंत्री कौन होगा? यह बात मतदान तक चर्चा में रही कि पंजाब में कहीं कोई गैर पंजाबी या बाहर से आया आदमी शासन तो नहीं करने लगेगा! पंजाब और बंगाल ये दो ऐसे राज्य हैं जिनमें स्थानीयता और जातीयता से गहरा जुड़ाव रहता है और सांस्कृतिक पहचान को बनाए-बचाए रखने की चिंता भी लोगों में उतनी ही मजबूत रहती है. पंजाब में दिल्ली की तरह सिर्फ केजरीवाल को ही प्रोजेक्ट किया गया. हिंदी बोलनेवाला हरियाणा का आदमी जो दिल्ली का मुख्यमंत्री है. दो सिख पार्टी की तरफ से मजबूत चेहरे के तौर पर उतारे गए थे. वे थे एच एस फुल्का और जरनैल सिंह . दोनों दिल्ली के थे. यानी लोगों को ये समझ नहीं आ सका कि अगर वोट दोगे तो पंजाब की पहचान और परेशानी समझनेवाला ऐसा कौन होगा जिसको सीएम बनाया जाएगा. केजरीवाल की पहली मात यहीं हुई.
चुनाव आते-आते केजरीवाल के बारे में कुछ हद तक ये राय बन चुकी थी कि यह आदमी खालिस्तान समर्थकों के साथ भी उठ बैठ सकता है. बादल और कैप्टन अमरिंदर अपनी रैलियों में लगातार ये आरोप लगाते रहे कि केजरीवाल की खालिस्तान के पूर्व आतंकियों से नजदीकियां हैं, लेकिन केजरीवाल इसको मजबूती से काट नहीं पा रहे थे. कनाडा ,आस्ट्रेलिया और यूरोप के देशों से जो एनआरआई आकर पंजाब में डेरा डाले हुए थे, उनको लेकर शक बढने लगा था. सच यही है कि आज भी खालिस्तान की मांग के साथ जो लोग देश से बाहर रह रहे हैं वे इन्हीं देशों में हैं. ऊपर से भटिंडा के मौड़ में कांग्रेस उम्मीदवार के रोड शो में धमाका हो गया. तीन लोग मारे गए, बारह घायल हो गए. इससे कुछ ही रोज पहले पहले लुधियाना में एक हिंदू नेता की हत्या कर दी गई थी.

मौड़ ब्लास्ट के ठीक पहले केजरीवाल खालिस्तान कमांडो फोर्स के पूर्व आतंकी गुरिंदर सिंह के घर रुके थे. हालांकि उस घर में किराएदार रहते हैं और केजरीवाल वैसे ही एक समर्थक किराएदार के यहां रुके थे, लेकिन उनके पास गेस्टहाउस या फिर कई दूसरी जगहों पर रहने का विकल्प था. वे नहीं रुके. इस बात को सुखबीर बादल ने अपनी रैलियों और सभाओं में जोर शोर से उठाया कि ये आदमी आंतकियों का समर्थक है और बब्बर खालसा से जुड़ी संस्था अखंड कीर्तनी जत्थे के आरपी सिंह के साथ ब्रकफास्ट भी कर चुका है. पंजाब, १५ साल तक आतंक की मार झेलने के बाद अब उसके नाम से ही दहल जाता है. राज्य में खालिस्तान अब कोई मुद्दा ही नहीं है. दहशतगर्दी की दो घटनाओं के बाद लोगों को केजरीवाल की सरकार के आने की सूरत में खालिस्तानियों के सक्रिय होने का डर सताने लगा. आम आदमी पार्टी के लिये ये बड़े नुकसान की वजह बना.

केजरीवाल की जो राजनीति है, वह स्वस्थ्य और समझदार लोकतंत्र के लिहाज से अच्छी नहीं है. पार्टी मतलब केजरीवाल, सरकार मतलब केजरीवाल, चेहरा मतलब केजरीवाल और भविष्य मतलब केजरीवाल. मजबूत सांगठनिक ढांचे और लंबे संघर्षों के अनुभव से नहीं उपजी पार्टी में एक व्यक्ति के आसपास सबकुछ खड़ा कर दिया जाना, पार्टी की संभावनाओं को गिरवी रखने जैसा है. यह पहले से होता रहा है. केजरीवाल के मुख्यमंत्री बनने के बाद जिसतरीके से योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण की टीम को निकाल फेंका गया या फिर उससे पहले जस्टिस संतोष हेगड़े, एडमिरल रामदास, मधु भादुड़ी जैसे लोगों को चलता कर दिया गया, उसने संकेत यही दिया कि केजरीवाल को रोकनेवाले हर आदमी की जगह पार्टी से बाहर ही है. पंजाब में कन्वीनर सुच्चा सिंह छोटेपुर के साथ भी ऐसा हुआ. उन्होंने पार्टी हाईकमान पर आरोप लगाया कि प्रदेश की इकाई पर संजय सिंह और दुर्गेश पाठक जैसों को थोपा जा रहा है. बाहर के लोग यहां सब तय कर रहे हैं. बजाय इसके कि ऐसे नाजुक मामले को मुलायमियत से हैंडल किया जाता, पिछले साल सितंबर में सुच्चा सिंह को पार्टी से निकाल दिया गया. यह ठीक वैसे ही था जैसे केजरीवाल ने पंजाब से अपने दो सांसदों - पटियाला के धर्मवीर गांधी और फतेहगढ साहिब के हरिंदर सिंह खालसा को निकाला था. उन दोनों ने पार्टी हाईकमान पर अलोकतांत्रिक होने का आरोप लगाया था और "आप" ने उन्हें पार्टी विरोधी गतिविधि के आरोप में दरवाजा दिखा दिया. सुच्चा सिंह का जाना उसी तरह की कार्रवाई का नतीजा था. उनके साथ कई दूसरे लोग भी गए, लेकिन आम आदमी पार्टी को इसकी परवाह इसलिए नहीं थी क्योंकि पार्टी के अंदर लोग बड़ी तादाद में आ रहे थे. आनेवालों से ज्यादा अहम जानेवाले होते हैं- यह बात समझना बहुत जरुरी है. जानेवाले आपकी तमाम कमजोरियों और नाकामियों की पूरी जानकारी के साथ जाते हैं. जब वे बाहर चीजें मजबूती से रखते हैं तो लोगों की राय बदलती है. सुच्चा सिंह भले ही चुनाव बुरी तरह हार गए लेकिन वे और उनके साथ गए लोगों ने जो सवाल उठाया और आम आदमी पार्टी के बारे में जो कुछ भी कहा उससे पार्टी के बारे में लोगों की राय, थोड़ी ही सही लेकिन बदली.
अरविंद केजरीवाल को ये समझना होगा कि दिल्ली के फॉर्मूले को देश में लागू नहीं किया जा सकता. दिल्ली डायलॉग का पंजाब डायलॉग विकल्प नहीं हो सकता. हरियाणा का केजरीवाल दिल्ली का मुख्यमंत्री तो बन सकता है लेकिन कोई भी दिल्लीवाला पंजाब का मुख्यममंत्री नहीं बन सकता. खुद को चमकाकर कुछ वक्त के लिये पार्टी या सरकार तो चलाई जा सकती है लेकिन लंबे समय के लिये विश्वसनीयता हासिल करना जरुरी होता है. अगर अन्ना हजारे से लेकर योगेंद्र यादवों और प्रशांत भूषणों की जमात हर जगह आप पैदा करते चलेंगे तो लोग आपको आसानी से समझ जाएंगे. आप ६ साल पहले एक आंदोलन के संयोग से पैदा हुए हैं. आप ना तो कोई करिश्माई नेता हैं, ना ही देश की जमीनी समझ आपको उतनी है. ऐसे में पार्टी के नेताओं का आधार जितना बढेगा, उनका कद जितना बढेगा और उनकी ईमानदार राय को आप ईमानदारी से जितना सुनेंगे समझेंगे- पार्टी और सत्ता की सेहत के लिहाज से उतना ही बेहतर होगा. कभी कभी अपना उल्लू सीधा करने के चक्कर में आदमी खुद उल्लू बन जाता है- सिद्दू को बीच मंझधार में डालकर "आप" ने ऐसा ही किया. लिहाजा राजनीति में कुछ संयम, कुछ समझदारी, कुछ दबाव-दबंगई और कुछ मेलजोल बहुत जरुरी होते है. लोकतांत्रिक व्यवस्था में कामयाबी के लिये नायक तो चाहिए लेकिन बाकी जरुरी बातों पर भी उतना ही जोर होना चाहिए. गोवा आपके गड़बड़झाले का नतीजा है और पंजाब आपकी राजनीतिक सूझबूझ की कमी और केजरीवाल मार्का अड़ियलपन का सबूत.

रविवार, 12 मार्च 2017

उत्तर प्रदेश का जनादेश और मोदी होने के मायने
उत्तर प्रदेश से जो जनादेश है उसका चाहे जितना पोस्टमार्टम कर लें, खुद बीजेपी के लिये भी ये समझ पाना मुश्किल है कि ऐसा हुआ कैसे! लेकिन सुनामी आई और इसने कई जकड़बंदियों, राजनीतिक रिवाजों , फरेब के हवाईकिलों और बेहूदगियों-बदज़ुबानियों को ध्वस्त कर दिया. सामाजिक न्याय के नाम पर जातियों को अपनी जागीर बनानेवाले नेताओं के लिये ये जनादेश एक सबक है. कानून-व्यवस्था और सड़क-बिजली जैसी बुनियादी जरुरतों की जगह एक्सप्रेस-वे और स्मार्ट फोन देने की राजनीति के लिये ये जनादेश एक सबक है. दलितों के नाम पर लगातार मालदार-महलदार होते जाने और हाशिए पर खड़े समाज के भविष्य को बाबा साहेब और हाथियों की मूर्तियों से जकड़ देने के खतरनाक खेल के लिये ये जनादेश एक सबक है. और यही सारे सबक मोदी या फिर यूपी की नई सरकार के लिये संदेश भी है. संदेश, विरोध की बेलगाम-बदजुुबान राजनीति करनेवाले लोगों और किसी पार्टी या विचारधारा (वैसे ये बस कहने के लिये है) की पट्टी बांधे पत्रकारों के लिये भी है.
सच ये है कि मोदी अब एक ब्रैंड में बदल गए हैं. बाजार में आप कोई उत खरीदते हैं और समान तरह के उत्पादों के बीच सबसे ज्यादा अगर किसी उत्पाद पर विश्वास करते हैं तो सिर्फ इसलिए कि आप इस्तेमाल करते करते, विज्ञापनों और लोगों की बातचीत के जरिए ये भरोसा कर लेते हैं कि यही उत्पाद सबसे विश्वसनीय है. फिर वो ब्रांड हो जाता है. मोदी एक ब्रांड हो गए हैं. लोगों को उनपर भरोसा हो चला है. इसीलिए अगर वो कहते हैं कि नोटबंदी मैंने सिर्फ इसलिए की कि ये जितने कालेधन वाले और हराम की कमाई कर कोठी-अटारी भरनेवालों को सबक सिखाऊं तो लोग तालियां बजाते हैं. साठ दिन तक हलकान रहने, लाइन में खड़ा होकर परेशान रहने के बावजूद उबाल नहीं पैदा होता. जन-धन खाते खुलवाने के पीछे गरीब से गरीब को सरकार की योजनाओं से जोड़ने और बीमा से लेकर मुआवजे तक से सीधे जोड़ने की बात मोदी कहते हैं तो लोगों को लगता है कि कुछ नया तो ये आदमी कर ही रहा है. श्मशान कब्रिस्तान की बात मोदी जब करते हैं और कहते हैं कि तुष्टिकरण की नीति नहीं चलनी चाहिए, सबके साथ बराबर का व्यवहार होना चाहिए तो सेक्लूयरिम के नाम पर बहुसंख्यकों को हाशिए पर डालने की राजनीति लोगों को समझ में आने लगती है. ऐसा नहीं कि कोई दूसरा नेता इन बातों को नहीं कहता है या फिर नही कहा है, लेकिन मोदी पर लोग भरोसा सिर्फ इसलिये कर रहे हैं कि उन्होंने खुद को एक ब्रैंड में बदल लिया है. ये एक प्रक्रिया है जो धीरे-धीरे चलती रहती है और लोगों के दिल-दिमाग में बदलाव आता रहता है. परसेप्शन और ब्रैंडिग की फिलॉसोफी ही यही है. आप अपनी बात को किस तरह से रखते हैं, लोगों की जरुरत और उम्मीदों पर कितना खरा उतरते हैं और मुकाबले में चल रही संस्थाओं-मान्यताओं को कितना ध्वस्त करते हैं. मोदी तीनों मोर्चों पर लगातार काम करते रहे हैं. चाहे विदेशों में जाकर बड़े बड़े इवेंट खड़ा करना हो, म्यांमार में अंदर जाकर उग्रवादियों के ठिकानों को ध्वस्त करना हो, पाकिस्तान में घुसकर आतंकियों के कैंप खत्म करना हो, उज्ज्वला योजना के जरिए घर घर तक गैस सिलेंडर पहुंचाना हो, बिचौलियों का धंधा बंदकर हजारों करोड़ बचाने का एलान करना हो, जनता का पैसा लेकर बैठे नेताओं-पूजीपतियों को ना छोड़ने का शंखनाद करना हो, मैं आपका ऐसा प्रधानसेवक हूं जिसने आजतक आराम नहीं किया- ये याद दिलाना हो और ऐसी दर्जनों बातें आम, आदमी के दिमाम में मोदी के लिये एक अलग छवि तैयार करती रहीं. मोदी को फोकस कर नारे गढने और विज्ञापन तैयार करने की योजनाएं भी इस इमेज को मजबूत करती हैं. पिछले पौने तीन साल में मोदी और उनकी टीम ने नरेंद्र दामोदर दास मोदी की पूरी इमेज की जबरदस्त ब्रैंडिग कर दी.
आप क्या कहते हैं ये समझना बड़ा जरुरी है और बारीकी से समझना होगा. मोदी जब कहते हैं कि मेरा मालिक कोई नहीं है, मुझे किसी को जवाब नहीं देना है- मेरे मालिक आप हैं, मैं आपको जवाब देने के लिये हूं तो लोग गदगद हो जाते हैं. बनारस में वे कहते हैं मैं आपके दर्शन करने आया हूं तो लोगों के दिल पसीजता है. रैलियों में मोदी याद दिलाते हैं कि मैं यहां तब आया था और उस समय इतनी भीड़ थी, आज इतना बदला है भाई- कुछ होनेवाला है. ऐसी बातें चर्चा में आती है कि देखो पीएम होने के बाद भी कितना ध्यान रहता है इस आदमी को. दरअसल यह काम टीम करती है और लोगों में ऐसी ही बातों की चर्चा चलवाने के लिये बनाती है ताकि ब्रैडिंग की प्रक्रिया चलती रहे. लोगों की नेताओं, राजनीति औऱ शासन के बारे में राय बदलती रहे. इन तमाम मोर्चों पर देश के दूसरे नेता मोदी से कोसों दूर दिखते हैं. नतीजा ये है कि आज लालू- मुलायम की लाठी, लठैतों और जाति की जहरीली राजनीति लोगों को रास नहीं आ रही क्योंकि नौजवान ६५ फीसदी हैं और ये नए नजरिए की पीढी है. अखिलेश और राहुल नौजवान जरुर हैं लेकिन नौजवानों की पसंद-जरुरतों पर मोदी ज्यादा फिट बैठते हैं. वे साफ सुथरी राजनीति, करप्शन फ्री सिस्टम, बहाली और तरक्की की पारदर्शी व्यवस्था, जवाबदेह नौकरशाही और दुनिया में हिंदुस्तान की साख मजबूत करने की जो बात करते हैं- वह नौजवानों को रास आती है. यह पीढी हुल्लड़बाजों-लफंगो की भीड़ लेकर चलनेवाले और सनसनी पैदा करनेवाले काफिलों पर इतरानेवाले नेताओं को अब खारिज करने लगी है. अब डिलिवरी चाहिए, डेडिकेशन चाहिए और यही मोदी के लिये चुनौती है जिसका अंदाजा उन्हें बाकायदा है. मोदी के आसपास कोई नेता आज की तारीख में साख और सलीके के नजरिए से दिखता है तो वो नीतीश कुमार हैं लेकिन उनमें वो डायनामिज्म नहीं है जो मोदी में है. मोदी रिस्क लेते हैं और यह लोगों को पसंद आता है. बनारस में बीजेपी की हालत पतली थी. श्यामदेव राय चौधरी को टिकट नहीं देने का मामला जिले में बीजेपी नेतृत्व पर सवाल उठा रहा था. मोदी ने अपने गढ मे तीन दिन ताकत झोंक दी और नतीजा ये कि सभी सीटें निकाल गए. उत्तर प्रदेश में २१ रैलियों के जरिए मोदी १३२ सीटों तक पहुंचे और इनमें ९६ सीटें बीजेपी जीत ले गई. मायावती लगातार कहती रहीं कि मुसलमान बीेएसपी को वोट दें और उन्होंने १०० मुसलमान उम्मीदवार उतारे भी. दूसरी तरफ अखिलेश ने कांग्रेस से हाथ ही इसलिए मिलाया कि मुस्लिम वोट को बीजेपी के खिलाफ लामबंद किया जा सके. लेकिन हुआ ये कि वैसी १३४ सीटें जिनपर मुस्लिम मतदाता २० फीसदी या फिर उससे ज्यादा है, बीजेपी करीब सौ सीटें जीत गई. कुछ लोगों की राय में मुस्लिम महिलाओं ने मोदी का साथ तीन तलाक पर सरकार के विरोध के चलते दिया. उनका करीब १५ फीसदी वोट बीजेपी को मिला. लेकिन वजह ये नहीं है. वजह ये है कि जहां मुस्लिम ज्यादा है, वहां मोदी और उनकी टीम ने तुष्टीकरण की नीति को हवा दी. लगे हाथ इस बात को भी मजबूती से रखा कि विरोधियों ने आजतक बहुसंख्यकों के आगे अल्पसंख्यकों को अहमियत दी. तुष्टीकरण, ऐसा हथियार है जिसको बीजेपी कथिक सेक्यूलरिज्म के खिलाफ इस्तेमाल कर बाकी दलों को बेनकाब करना चाहती है. दूसरी तरफ वो मोदी को सबका साथ-सबका विकास के नारे-वादे के साथ समूचे हिंदुस्तान के नायक के तौर पर स्थापित करना चाहती है. मोदी का विश्वनाथ से सोमनाथ की पूजा अर्चना और गंगा से लेकर गो रक्षा के जयघोष को कवरेज देने-दिलवाने का इंतजाम, एक खास तरह की लेकिन बहुत मजबूत धार्मिक भावना से मोदी को जोड़े रखने और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के सिद्दांत को सही ठहराने की बड़ी योजना का हिस्सा है. जब आप मोदी की डिलिवरी वाले गवर्नेंस और करप्शनलेस ट्रांसपैरेंसी वाले सिस्टम के आगे किसी को खड़ा करेंगे तो वो छोटा और फीका लगेगा. यहां केजरीवाल जैसे आंदोलनकारी नेता, उनका निगेटिव कैंपेन और हर बार रोने वाली राजनीति धीरे धीरे खारिज होने लगेगी. आज मायावती की पूरी राजनीति के सामने अंधेरा है, अखिलेश के चमकने की उम्मीदें फिलहाल धूमिल हो चुकी हैं, राहुल गांधी ५ साल में २४ चुनाव हारकर समय से पहले की खंड-खंड खंडहर हो चुके हैं. फिर होगा ये कि मोदी के सामने कोई विरोधी नेता ही नहीं होगा. इसी लिहाज से ऊपर मैंने नीतीश कुमार का नाम लिया क्योंकि उनकी ही राजनीति कहीं ना कहीं मोदी से मेल खाती है. उमर अबदुल्ला अगर कहते हैं कि अब आप २०१९ नहीं २०२४ की तैयारी कीजिए तो ये बात बेमानी भी नहीं है. मोदी ने हिंदुस्तान में जिसतरह की राजनीति शुरु की वो परंपरागत राजनीति से अलग दिखने लगी, डिलिवरी और ट्रांसपैरेंसी के जोर से शासन की अलग इमेज खड़ा करनी शुरु की और स्वच्छता अभियान से लेकर उज्जवला योजना ने सरकार का सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना के एक नया चेहरा गढा, जैसा पहले नहीं दिखा. ये सब मोदी को एक क्रेडिबल ब्रैंड के तौर पर खड़ा करते जा रहे हैं. लेकिन इसी के साथ मोदी के सामने लोगों की उम्मीदों पर खरा उतरने की चुनौती भी बहुत बढ गई है. अगर मोदी खरा नहीं उतर पाए तो राजनीति की नई संस्कृति का मिसकैरिज ठीक वैसे ही हो जाएगा जैसा केजरीवाल के जरिए पैदा हुई विकल्प की राजनीति का हुआ।