यह ब्लॉग खोजें

बुधवार, 30 नवंबर 2016

बुधवार, 12 अक्तूबर 2016

समय जो हम हैं

समय जो हम हैं

रात के चौथे पहर में गेंहू की कटनी के लिए जाती मज़दूरिनों की चूड़ियों की आवाज़ जब आती तो दादा जी बाहर दालान में खंखारते. सलाम मालिक कहते हुए उनकी पूरी पांत तेजी से निकल जाती.
मां के पास बिस्तर में मुझे वो मजदूरिनें घर के बाहर से गुजरती हुई महसूस होतीं. सुबह-सुबह फकीरों केे फेरे गांव में लगते. शायद कबीर या रहीम को गाते . दिन में आकर अनाज मांग ले जाते. तमाशेवाले, हवा मिठाईवाले, बाइस्कोप वाले, शहद बेचनेवाले, दही बेचनेवाले, चूड़ीहारिनें, तुरहिनें ( सब्जी बेचनेवालियां) कीर्तन मंडलीवाले औऱ ऐसे बहुत सारे लोग याद आते हैं जब बचपन को लौटकर जाता हूं.
गांव का एक जीवंत समाज सजाते थे ये लोग. आज कैमरेवाले, साउंडवाले, ओबीवाले, ग्राफिक्सवाले, एडिटिंगवाले, मार्केटिंगवाले, सेल्सवाले, डिसट्रीब्यूशन वाले, एंकर, रिपोर्टर, नेता, कलाकार, हादसे , जलसे, जुलूस और दुनिया भर से बेहिसाब शक्लों में आती खबरें हैं. तब एक छोटी दुनिया थी अब एक बड़ा संसार है. तब लेमनचूस में ही दुनिया भर का रस था अब लेमनवाटर भी नियम का हिस्सा है.
दरअसल कहना ये है कि जीवन समय है. अलग अलग शक्लों में चलती-दिखती चीजें समय का स्थूल रुप हैं. चीजें हर वक्त बदलती रहती हैं, समय चलता रहता है. समय से समय मिलता है ना कि आदमी से आदमी. साथ दो घंटे दो लोग बैठे मतलब दो घंटे के लिये समय साथ चला. अगर उन दो घंटों को दोनों के जीवन से कभी भी उठा लें तो वो उनके बीच का साझा समय ही रहेगा.
जिसके साथ दो मिनट के लिये भी फोन पर ही सही, बात हुई – वो जीवन का हिस्सा है. गुजरे साल में जितने लोगों की हिस्सेदारी मेरे समय में यानी जीवन में रही उन सभी का शुक्रिया.
नए साल में आप सबका समय बलवान हो, फलवान हो और धनवान हो – मेरी यही शुभकामना है. आज 1-1-2016 हो गया. नये साल की पहली तारीख और पहला महीना. आज के दिन का योग ११ है जिसका कुल योग २ बनता है. मेरे जीवन का सबसे शुभ अंक . आप सबों को नए साल की फिर से ढेर सारी शुभकामनाएं. स्वस्थ रहें, सानंद रहे, सुरक्षित रहें और सफल रहें.

शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2016

आना


अच्छा लगता हैं


काश !



गुरुवार, 6 अक्तूबर 2016

क्या मियां शरीफ जनरल शरीफ के आगे झुक जाएंगे ?


क्या मियां शरीफ जनरल शरीफ के आगे झुक जाएंगे ?

पाकिस्तान के आर्मी चीफ जनरल राहिल शरीफ का कार्यकाल बढना तय-सा लग रहा है. भारत के साथ पाकिस्तान का जो मौजूदा रिश्ता है, वो जनरल शरीफ के लिये बहुत मुफीद है. हालात जितने नाज़ुक रहेंगे, नए चीफ को कमान न देने का दबाव नवाज़ शरीफ पर उतना ही ज्यादा रहेगा.
लिहाज़ा जनरल राहिल शरीफ को जबतक उन्हें एक्सटेंशन नहीं मिल जाता, तबतक वे भारत के साथ युद्द अब-हुआ, तब-हुआ सा माहौल बनाए रखेंगे. वैसे, नवाज़ शरीफ चाहते नहीं है कि वे राहिल की मियाद बढाएं, क्योंकि राहिल में शरीफ को जनरल मुशर्रफ दिखने लगे हैं. मुशर्रफ को बतौर जनरल इन्हीं नवाज शरीफ ने एक्सटेंशन दिया था, लेकिन मुशर्रफ ने शरीफ का तख्ता पलट दिया.

राहिल कैसे बने सेना प्रमुख
जनरल राहिल शरीफ को नवाज ने कई सीनियर अफसरों को दरकिनार कर सेना प्रमुख बनाया और इसकी कुछ वाजिब वजहें थीं. पहली ये कि राहिल पंजाब से हैं, उनके पिता और नवाज़ के पिता एक-दूसरे के करीबी हैं. और सबसे बड़ी बात, राहिल पीएमएल-एन नेता अब्दुल क़ादिर बलोच के बहुत बड़े विश्वासपात्र रहे हैं.

राहिल की बढ़ रही है लोकप्रियता

लेकिन हाल के कुछ साल में उत्तरी पश्चिमी पाकिस्तान में आतंकियों के खिलाफ सेना की जो मुहिम चली है, उसने राहिल शरीफ को पाकिस्तान में काफी लोकप्रिय बना दिया है. खुद नवाज़ शरीफ की पार्टी के कुछ धाकड़ नेता उनपर इस बात के लिये दबाव बनाने लगे हैं कि जनरल राहिल की मियाद बढा दी जाए. आज के हालात में जनरल राहिल के जनवरी में दिए उस बयान को सामने रखना नासमझी होगी जिसमें उन्होंने खुद कहा था कि वे अपना कार्यकाल बढाना नहीं चाहते.

नवाज शरीफ को राहिल से लग रहा है डर
जनरल राहिल २०१३ में सेना प्रमुख बनाए गए और २०१४ में पनामा पेपर लीक को लेकर इमरान खान और उनकी पार्टी तहरीके इंसाफ ने नवाज़-खानदान को ऐसा घेरा कि सरकार की साख को काफी धक्का पहुंचा. उधर राहिल, आतंकवाद के खिलाफ़ फौज की मुहिम को इतना तेज़ कर चुके थे कि २०१५ के दूसरे हिस्से में आते-आते, समूचे पाकिस्तान में उनकी इमेज मसीहा जैसी होने लगी. नवाज़ शरीफ़ को ये बात खटकने लगी और उनके मन में कहीं-ना-कहीं ये डर घर करने लगा कि अगर राहिल शरीफ का क़द यूं ही बढता रहा तो हो सकता है वे एक और तख्तापलट का शिकार हो जाएं.

मुशर्रफ भी जनरल राहिल के साथ
ऊपर से पिछले साल सितंबर में जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने राहिल के कार्यकाल को बढ़ाने की पुरज़ोर वकालत कर नवाज़ के कान खड़े कर दिए. दरअसल मुशर्रफ, राहिल शरीफ के बड़े भाई शब्बीर शरीफ के दोस्त हैं और मुशर्रफ की तरह फौज के बहुत सारे अफसर हैं जो शब्बीर शरीफ के चलते जनरल राहिल शरीफ से एक जज्बाती लगाव रखते हैं.

शब्बीर शरीफ पाक फौज के बेहद तेज़-तर्रार अफसर माने जाते थे और वे १९७१ के युद्द में भारतीय फौज के हाथों मारे गए. उन्हें बाद में पाकिस्तान का सबसे बड़ा सैनिक सम्मान निशान-ए-हैदर मिला. शब्बीर शरीफ के चलते पाकिस्तानी फौज में राहिल की हैसियत आम सेना प्रमुख से थोड़ी ऊंची है.

इतिहास गवाह है
हाल में उनकी जो लोकप्रियता बढी है, उसने उनको और कद्दावर बना दिया है. ऐसे में ये मान लें कि नवाज़ शरीफ के चाहने भर से राहिल शरीफ अपनी कमान नए जनरल को सौंप देंगे, पाकिस्तान के इतिहास को देखते हुए थोड़ा अटपटा लगता है. अगर ऐसा हो जाए तो पाकिस्तान के ६९ साल के इतिहास में ये पहली बार होगा कि कोई जनरल अपना कार्यकाल पूरा होने पर मौजूदा सरकार के फैसले के मुताबिक अपने उत्तराधिकारी को कमान सौंपेगा. 

एक्सटेंशन के बाद ही होता है तख्तापलट
अब तक हुआ ये है कि या तो एक्टेंशन मिला है या फिर तख्तापलट हुआ है. मुशर्रफ को तो एक्सटेंशन मिला ही था, जनरल कियानी को भी मिला था. ऐसे में इस बात के पूरे आसार बन रहे हैं कि जनरल राहिल शरीफ का कार्यकाल नवाज़ शरीफ बढाएंगे. 

ये हैं इस बार दावेदार
खुदा-ना-खास्ता ये नहीं हुआ तो फिर बहुत मुमकिन है कि जनरल राहिल शरीफ, उत्तराधिकारी अपनी पसंद का बनाएं और अगर ऐसा हुआ तो फिर ले. जनरल ज़ुबैर महमूद हयात, पाकिस्तानी फौज के अगले प्रमुख हो सकते हैं. इसकी वजह ये है कि जनरल राहिल की तरह जनरल ज़ुबैर का पूरा खानदान फौजी है और उनके तीन भाई आज भी पाक फौज में बहुत ऊंचे ओहदों पर हैं. 

नवाज की पसंद है कोई और
इसके अलावा जनरल ज़ुबैर का अनुभव आर्मी चीफ होने के लिये मुफीद है. वे आज की तारीख में रावलपिंडी में सेना मुख्यालय में चीफ ऑफ जनरल स्टाफ है, लेकिन इससे पहले वे स्ट्रैटेजिक प्लान्स डिविजन के प्रमुख थे. लेकिन नवाज़ शरीफ की पसंद ले. जनरल जावेद इक़बाल रामदे हैं और इसका कारण ये है कि जनरल जावेद के परिवार का शरीफ की पार्टी पीएमएल-एन के करीबी रिश्ता है. खुद जनरल जावेद के परिवार के कई लोग पार्टी में कई बड़े ओहदों पर हैं.

राहिल मांग सकते है एक्सटेंशन
वैसे दो नाम और भी नये सेना प्रमुख के तौर पर आ रहे हैं - ले. जनरल इशफाक़ नदीम और ले. जनरल क़मर बाजवा, लेकिन पाकिस्तान के मौजूदा हालात और जनरल राहिल शरीफ के मंसूबों को अगर ठीक से समझा जाए तो वे नवाज शरीफ से एक्सटेंशन लेंगे जरुर. 

ये मात्र संयोग नहीं
जनरल राहिल शरीफ का कार्यकाल २९ नवंबर को खत्म हो रहा है और यह महज संयोग नहीं था कि जब नवाज़ शरीफ यूएन में अपना भाषण देने के लिये विमान में थे तब पाकिस्तानी आतंकवादियों ने उरी में हमला किया.

इस हमले के पीछे कश्मीर को बतौर मुद्दा गरमाने की मंशा कम थी, भारत को उकसाने की नीयत ज्यादा थी. इसमें अगर किसी को फायदा हो सकता था तो सिर्फ राहिल शरीफ को, क्योंकि उन्हें पता है कि भारत में जो सरकार आज है, वो चुप रहनेवाली नहीं है. आप एक करेंगे तो वो दस करने का फऱमान जारी कर देगी. माहौल बिगड़ेगा, फौज तनेगी, हालात नाज़ुक होंगे और ऐसे में कोई भी हुकूमत नए सेना प्रमुख को लाने का जोखिम नहीं लेगी. इसलिए इंतज़ार कीजिए, जनरल राहिल शरीफ को २९ नवंबर से पहले एक्सटेंशन मिल जाएगा.

शुक्रवार, 26 अगस्त 2016

Poetry

Poetry


किस्त मैंने बस चाहा था और एक बार उससे फोन पर राय ली थी बस आ गई घर पर कार नई कार किस्तों में कटेंगे पैसे ब्याज दूसरों से कम हाथ मिलाने के बाद उसने गुलदस्ता पकड़ाते हुए कहा और चला गया. मैंने बस चाहा था किरानेवाला का लड़का महीने का सारा सामान रसोई में रख गया साफ-सुथरे साबुत सब छंटाक भर भी बेईमानी नहीं जाते समय लिस्ट थमा गया मैंने बस चाहा था और दरवाजे पर दूध सब्जी आ गए साठ रुपए वाला शुद्द दूध जालीदार थैलों में चमकदार आलू टमाटर खुशबूदार-ज़ायकेदार व्यंजनों वाले विज्ञापनी मसाले भी दाम चढाकर बताने से पहले बताया जाता है सब आर्गेनिक है साहब पिछले हफ्ते से ज्यादा भारी पर्ची है इसबार घर के डाइनिंग टेबल पर गुलदस्ता पड़ा है किरानेवाले की लिस्ट दूध सब्जीवाले की पर्ची भी दीवार पर सामने कलेंडर है काश! मजबूरियां महंगी नहीं होतीं और तारीखें भी किस्तों में आतीं. मित्रता सबसे बड़ी ताकत सबसे बड़ा भरोसा मुश्किल वक्त में आकर खड़ा होना और कंधे पर हाथ रखकर कहना मैं हूं ना ! कोई रिश्ता नहीं बस एक विश्वास है कि दुनिया में हर जगह हार जाऊं एक जीत के लिए तरस जाऊं तुम अपनी पूरी दुनिया तब हारने के लिए खड़ा मिलोगे हारकर जीतने का यह कैसा नाता है! इंसान हंसता एक सा है रोता भी एक सा है एक सी भूख लगती है एक सी चोट महसूस होती है रहने खाने बोलने में हज़ारों भेद हैं सबके यहां दोस्ती एक सी होती है सच कहूं तो दुनिया इसी से चलती है!

इरोम शर्मिला इंफाल के चारों ओर के पहाड़ जैसे नींद से जागे हैं आज अलसाई नदियों की बांह पकड़ किसी ने उठाया है हौले से और पहाड़ों पर चढ़ते-उतरते थके-हारे रास्तों को अचानक जल्दी आन पड़ी है शहर में दूर-दूर से लोग आए हैं देश में दूर-दूर तक खबर फैली है सोलह साल बाद उंगली पर शहद आया है एक कसम टूट रही है हारकर सोलह साल बाद. लोकटक झील के हरे गोल-गोल घेरों में देहभर पानी लिए बादलों के साथ आसमान उतरा है मछुआरों के डेरे लिए चलती-फिरती इस झील में कहीं कोई मेइती उम्मीद का गीत गा रहा है मैरी कॉम के गांव जाती सड़क पर लड़कियों का झुंड संगाई हिरणों की तरह उछलता जा रहा है धान के खेतों पर आस के डोरे टंगे हैं आंखों में आंसू उतरे हैं अपनी तरह के पहली बार. गोलियों के छर्रों पर जो छींटे सवाल बनकर रह गए संगीन की नोंक पर जो आवाज़ दब गई हलक तक आकर बूटों से कांपते रहे जो घाटी और पहाड़ इमा कैथल में जो चूड़ियां खनकने से डर गईं उन सबकी रिहाई की कोई तारीख लिखी गई है मैं मुख्यमंत्री बनना चाहती हूं इरोम ने कहा है आज.


आना

आना जैसे आती है चोरी से कोई अच्छी बात. आना जैसे आता है बादल के देह में पानी. आना जैसे आते हैं तितलियों के पंखों पर रंग. आना जैसे आता है आधी राह की चांद में आधा चांद आना जैसे आती है रास्तों पर लीक. आना जैसे आती है किनारे पर नाव . शरणार्थी आधी रात हुंकारते समंदर में घिरे सीरिया के शरणार्थियों ने सोचा होगा शाम को लौटी चिड़िया ने अपना पेड़ नहीं पाकर सोचा होगा आतंकियों के हाथों मारे जाने से ठीक पहले हजारों लोगों ने सोचा होगा कर्ज में डूबे किसान ने आत्महत्या से ऐन पहले सोचा होगा रोटी और पानी के लिए दर-दर भटकते करोड़ों लोगों ने सोचा होगा काश ! दुनिया रहने लायक हो पाती.

उफ्फ्..! जो आदमी बीवी की लाश कोसों ले गया वो अपने कंधे पर धरती ढो गया. जिस बेटे को मां की लाश गठरी बनानी पड़ी होगी उसे अपनी आत्मा कितनी बार दागनी पड़ी होगी! राह के दबंगों से डरकर जो लोग तालाब से शवयात्रा ले गए मिट्टी की हांडी में सुलगता इंकलाब भी ले गए. जो औरत प्रसव पीड़ा में अस्पताल के लिए मीलों चली होगी हर आह सरकारों के मुंह पर कालिख मली होगी.


रविवार, 21 फ़रवरी 2016

अंधेरा या फिर अंधेरगर्दी ! सच क्या है भाई ?


देश में मीडिया पर गंभीर सवाल उठ रहे हैं. कुछ पत्रकार स्वंयभू देशभक्त होने का दम भर रहे हैं तो कुछ कह रहे हैं कि अगर इस विरोध को देशद्रोह कहते हैं तो आप मान लीजिए हम देशद्रोही हैं.

मामला - जेएनयू विवाद है औऱ इस विवाद से उठे कुछ बड़े सवाल हैं, जिनका लोकतंत्र से गहरा रिश्ता है. दरअसल, देश में पत्रकारों के दो तरह के गुटों ( आप चाहें तो गिरोह भी कह लें) का बोलबाला सा हैं. एक वो हैं जो सावन के अंधे हैं. मतलब ये कि उनको सरकार औऱ व्यवस्था में सब हरा दिखता है. दूसरे जेठ के अंधे हैं. इनलोगों को सरकार और व्यवस्था में सब झुलसा-जला ही दिखता है. जो लोग इन दोनों खेमों के विचारों ( वैसे विचार की परिभाषा कुछ अलग ही होती है) से सहमत नहीं हैं- वे दोनों के निशाने पर आते हैं.

ऐसे में सवाल ये है कि आप किसकी चिंता करेंगे?  इस देश की , समाज की, नागरिक की या फिर वामपंथ की, संघवाद की, मनुवाद की, सेक्यूलरिज्म की ? सवाल का जो दूसरा हिस्सा है और उसकी चिंता जो  पत्रकार करते हैं वे संक्रामक, समाजतोड़ू और भयानक हैें. इस पूरे समुदाय में तीन तरह की प्रजातियां हैं. एक मैकॉले स्कूलवाले, दूसरे मार्क्स स्कूल वाले और तीसरे संघ स्कूल वाले. तीनों एजेंडा सेटर हैं, तीनों हिपोक्रैट हैं और मज़ेदार बात ये कि तीनों सबसे कमजोर के हक के लिए छाती पीटनेवाले भी. लोकतंत्त में विरोध, विवाद , संवाद की पैरवी तीनों करते हैं लेकिन आप उनसे सहमत नहीं तो आप गलत हैं. वे सड़क पर उतर जाएं तो इंसानियत का तकाज़ा और आप अपने देश-समाज के लिए आवाज थोड़ी ऊंची कर दें तो इंसाफ, इंसानियत औऱ पत्रकारिता के दुश्मन हैं. साहब, दूसरा आपकी राय से अपनी राय जोड़े ही, इसतरह का रवैया तो दबंगई ही है ना ?

मेरी राय में देश के खिलाफ कोई भी ऐसी बात जो उसकी एकता, अखंडता और संप्रभुता को ललकारती है, चुनौती देती है - उसपर कोई बहस होनी ही नहीं चाहिए. विरोध और आजादी तभीतक अपना मतलब रखते हैं जबतक वो अपनी हद में रहते हैं. पिता का विरोध बेटा कर तो सकता है लेकिन ऐसा वो पिता को चार तमाचे मारकर करे तो फिर ये खांटी बदतमीज़ी है. कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि कश्मीर की आज़ादी बंदूक की नोक पर लेने की बात आप देश के अंदर करें और कहा जाए कि लोकतंत्र की यही खूबी है कि कोई भी अपनी बात रख सकता है तो ऐसा लोकतंत्र नहीं चाहिए.

आप आतंकवादियों की फांसी के खिलाफ देश की न्याय व्यवस्था को हत्यारा बताएं और कहें कि लोकतंत्र की तासीर यही है कि ये हर विरोध को जगह देता है तो फिर ऐसा लोकतंत्र नहीं चाहिए. अदालत के परिसर में कन्हैया पर और पत्रकारों पर वकील हमला बोल दें, विधायक टूट पड़े और सत्ता में बैठे या फिर उनसे जुड़े लोग इसलिए चुप रहे कि यह लोकतंत्र का राष्ट्रवाद है तो फिर ऐसा भी लोकतंत्र नहीं चाहिए. आप अपना मतलब बताओ कॉमरेड . आप अपना एजेंडा बताओ मैकॉलेमैन. और आप अपना अभिप्राय बताओ संघपुरुष. आप तीनों अपने-अपने चश्मे उतारो तो फिर आंखों में आंखें डालकर बात की  जाए.


कन्हैया कुमार पर देशद्रोह का मुकदमा है. कन्हैया के पास पूरा अधिकार है कि वो इंसाफ की लड़ाई लड़ें. लेकिन इससे पहले कन्हैया को बेकसूर साबित करने की कोशिश में कुछ लोग लग गए हैं. कन्हैया के खिलाफ अगर कुछ रखा जाता है तो उनको उसमें साजिश दिखती है. फिर वो दिखाई गई चीजों में ही मिलावट ढूंढने की कवायद में लग जाते हैं. मुद्बई भी आप, गवाह भी आप और अदालत भी आप. आप ये तय करेंगे कि बड़ा घालमेल है और बड़ा धोखा हो रहा है! मगर सवाल तो आपसे होना चाहिए कि आप इतना कुछ किस मंशा और मकसद से कर रहे हैं. यह सवाल इसलिए भी बनता है क्योंकि आपने पहले ही ऐसा कर रखा है . इस बार कम से कम गिरबान में झांकने की छटांक भर ही नैतिकता रख लेके.

मुजफ्फरनगर दंगों में फर्जी स्टिंग चलाने और माहौल बिगाड़ने का दोषी उत्तर प्रदेश की विधानसभा ने आपको माना है. अगल-अलग धाराएं आप पर लगी हुई हैं और उनमें क्या सजा हो सकती है - अगर नहीं पता है तो जांच समिति के अध्यक्ष एस के निगम की रिपोर्ट पढ लीजिए. मैं कभी फटे में हाथ डालने के हक में नहीं रहा लेकिन जब कोई कॉलर टाइट करके सीना तानता हो तो बताना पड़ता है भाई साहब आपकी जिप खुली हुई है.

एक भाई साहब हैं. अंधेरे हैं चले आओ कहां हो-  टाइप स्टाइल में - कहां आवाज़ दें तुमको वाले इंटेलेक्चुअल रोमांटिसिज्म का मज़ा लेने से ही नहीं आघाते. सारा अंधेरा है, काले सवाल है, सवालों के घेरे में सब हैं और आप भी. अपने को तो आप सवालों में खुद ही लाने की दरियादिली दिखाते हैं. वैसे, खुद को सवालों में ला देने से बचाव का सबसे मजबूत रास्ता निकल आता है. है ना ? फिर, आप मनमाफिक चीजें करने-कहने के लिए आज़ाद हो जाते हैं. आज़ादी के नियम आप तय करेंगे और आज़ाद मुल्क में जनता की परेशानी आपकी पेशानी पर ना झलके तो फिर लहू क्या है! मीडिया पर हमला हो तो आप सड़कों पर उतर आएं और किसी की पत्रकारिता को कंठलंगोट तक पकड़ लें . लेकिन, कोई कश्मीर की आजादी के खिलाफ बात ऊंची आवाज में कर ले तो वो अंधेरगर्दी है. जवाबदेही तय करने की जगह निशानदेही है.

आप लोकतंत्र के नाहक वाहक बन जाएं तो अच्छा और कोई देश की अखंडता को लेकर तैश में आ जाए तो गुस्ताखी. साहब, कभी ईडी की रिपोर्ट भी तो पढ लीजिए. सैकड़ों करोड़ रुपए जो कंपनी ने बाहरी देशों से गलत तरीके से अपने यहां ले आई, कई तरह का तिकड़म करके- वहीं आप काम करते हैं. ये गरीब गुरबों की ही तो पैसा होगा जिसको काले से सफेद करने का खेल आपके यहां खेला गया. आप कहें तो आरबीआई की वो रिपोर्ट भी रख दूं जिसमें उसने कई बार ये कहा है कि फलां कंपनी जिस तरीके से इतनी बड़ी रकम बाहर से अपने यहां ले आई उसमें बहुत कुछ काला लग रहा है.

नीरा राडिया की कंपनी वैष्णवी कम्यूनिकेशन का ही एक हिस्सा विट्कॉम आपकी कंपनी के एक चैनल का कारोबार देखता रहा . उसके बारे मेें भी पता करना चाहिए. नीरा राडिया और ए राजा की खास मित्र जो आप ही के यहां हैं, उनके साथ चाय तो पीते ही होंगे. उनसे भी पूछते कि कई तरह के प्रायोजित इंटरव्यू किस लिए किए गए. निशानदेही की बात तो मैं कर ही नहीं रहा, बस जवाबदेही के लिहाज से ही कभी ऊपरवालों से पूछ लेते - ये क्या कर रखा है ? बौद्धिक विलाप करके बौद्दिक विलास का सुख उठाने की लत खराब ही नहीं होती, खतरनाक भी होती है. टीवी के सामने बैठा दर्शक अगर ज़हर उगल रहा है तो उसकी वजहें भी थोड़ा ठीक से टटोलनी चाहिए.

मैं ठेंठ गांव से हूं और इस बात का दावा नहीं करता कि आखिरी पायदान पर खड़े आदमी का दर्द पूरी तरह महसूस करता हूं, मगर किसी से कम समझता हूं, ऐसा भी नहीं है.  उस आम आदमी के सवाल को किसी एजेंडे के तहत देखूं ऐसा गुनाह ना कभी किया और ना कर सकता हूं. दादरी मेरे लिए सवाल है तो मालदा भी है. गुजरात दंगा है तो सन ८४ औऱ भागलपुर भी दंगा ही है. सेक्यूलरिज्म के लिए गुजरात दंगे की लग्गी गिराऊं और ८४-भागलपुर को भूल जाऊं, मैं ऐसा नहीं कर सकता.

पत्रकार भला गरम क्यों नहीं होगा? क्या वो इस देश का नागरिक नहीं?  इस देश में होनेवाले भेदभाव, अन्याय, अत्याचार, लूट-खसोट, सांठगांठ, दंगा-फसाद पर वो क्यों बौखलाए नहीं?  वो माटी का माधव तो है नहीं!  इंसान है औऱ इस देश के प्रति उसकी भी कुछ तो नैतिक जिम्मेदारी है ही.
एक साहब हैं जिनको बोलने की आजादी औऱ विचारों की स्वतंत्रता से इतना लगाव है कि वो कश्मीर की आजादी औऱ पूर्वोत्तर राज्यों के संघर्षों की तरफदारी लोकतांत्रिक मर्यादा से जुड़े लगते हैं. मैं फिर कहता हूं संवाद के  लिये लोकतंत्र में किसी भी हद तक की गुंजाइश मांगना या पैदा करना जायज़ है लेकिन विरोध और आजादी की लक्ष्मणरेखा राष्ट्र और राज्य की प्रभुता के लिये जरुरी है. हां, तो उन साहब को बतौर पत्रकार और जिम्मेदार-ईमानदार पत्रकार कैश फॉर वोट वाली खबर के मामले पर देश के सामने असली तस्वीर रखनी चाहिए. आपने वो खबर दबा क्यों दी थी. राज-पथ पर किसी खास के लिए दीप जलाने से सर-देशवासियों का झुकाते हैं आप.

मैं आपकी इस बात से पूरी तरह सहमत हूं कि इस देश में एक कौम के लिए नारे लगानेवालों से समझौता नहीं किया जा सकता और राष्ट्रभक्ति का कोई सर्टिफिकेट दे ये भी बर्दाश्त नहीं किया जा सकता. लेकिन, बस इसी नाते मैं आपकी ईमानदारी पर यकीन कर लूं, ऐसा भी तो नहीं हो सकता. क्योंकि , मुझे ये पता है कि आपको एक खास दल में कभी कुछ अच्छा नहीं दिखता और एक खास परिवार में कभी कुछ खराब नजर नहीं आता. कभी परिवार, पार्टी, पक्षपात के लबादे उतारकर कैमरे का सामना कीजिए- हिंदुस्तान ज्यादा सराहेगा.

मीडिया के सामने संकट है. संकट ये है कि ज्यादातर तुर्रम खां पूंछ में आग लेकर अपनी अपनी लंका पर खड़े हैं और सोच ये रहे हैं कि आग दूसरे के यहां लगानी है. अपनी अपनी अंधेरगर्दी में ये लोग अंधे हुए पड़े हैं. ये कैसे हो सकता है कि आप इस देश की अखंडता की बात करें और भारत के टुकड़े करनेवालों ( भले ही मुट्ठीभर हों) की तरफदारी करें.  जो भागे हुए हैं उनकी तरफदारी भी करें. वे भगत सिंह या चंद्रशेखर आजाद तो है! हां, उनको इस देश की अदालतों में अपने लिये इंसाफ की खातिर लड़ने का पूरा अधिकार है. कन्हैया, मुमकिन है बेकसूर हो. लेकिन उसको अदालत से रिहा होने से पहले क्रांतिकारी का तमगा तो मत दीजिए.

एक मैडम ने शुक्रवार रात को लिखा कि आज देश को नींद कैसे आ सकती है- कन्हैया जेल में है. मैडम एक किसान अपनी झुलसी हुई फसल देखकर घर आता है, सामने जवान बेटी को देखता है, उसके हाथ पीले करने के सपनों को मरते देखता है औऱ फांसी लगा लेता है. उस खबर पर आपको नींद नहीं आती और आप उसपर कुछ लिखी होतीं तो मुझे लगता कि हिंदुस्तान का पत्रकार आपको मान जाना चाहिए. मुझे आप पर और आप जैसे उन तमाम पत्रकारों पर तरस आता है जो चमचमाती गाड़ियों में, ल्यूटियन जोन्स की तमाम तरह की बैठकों-दावतों में जाकर और अंग्रेजी में फांय फूंयकर हिंदुस्तान की समझ रखने का दावा करने लगते हैं. वैसे, तरस उन तमाम लोगों पर भी आता है जिनको हिटलर-मुसोलनी से नफरत है और स्टालिन-माओ के जुल्म सर्वाहारा की खातिर इंसाफ का तकाजा दिखते हैं.

हंगरी, पोलैंड, रोमानिया में मार्क्सवाद के नाम पर जो कुछ हुआ उसको कौन सही ठहरा सकता है. नक्सलियों का आतंकवाद अगर आपको बराबरी के हक के लिये सशस्त्र विद्रोह लगता है तो लानत है आपपर. जो गलत है वो गलत है. इंसान को दबाने कुचलने की परंपरा हो या फिर उसे दुत्कारने-फटकारने वाली मनुवाद सरीखी व्यवस्था या फिर जाति-धरम के नाम पर वोट का खेल खेलनेवाली सियासत तीनों को खुले मन से खारिज करने का साहस और नैतिकता मीडिया में जरुरी है.

अदालत में कन्हैया पर हमला हो या कारखाना मालिक के बेटे पर, आवाज दोनों के लिेये बराबर उठनी चाहिए. दिल्ली में पत्रकारों पर हमला हो तो सड़कों पर उतर आएं और देश के दूसरे हिस्सों में उनको पुलिस दौड़ा दौड़ाकर दोहरा कर दे तो महज खबर. इसलिए कि दिल्ली में प्वायंट जिसतरीके से बढ जाता है वैसा कहीं और के मामले पर नहीं बन सकता ? ये मेरा आरोप नहीं है, बस एक अदना-सा सवाल भर है.
कोई जातिवादी संज्ञा से चुनावी शो चलाए तो वो समाज का आईना है, बहन के नाम के आगे डॉट डॉट छोड़ दे तो बोल्ड एक्सपेरिमेंट है और कोई ऊंची आवाज में सवाल कर दे, एक वाजिब वीडियो दिखा दे तो मर्यादा और नैतिकता की सरेआम हत्या हो जाती है! हाहाकार मच जाता है. मैंने खबरों को तय करते समय, उनपर राय रखते समय, बहस के लिए उन्हें चुनते समय या फिर किसी मुद्दे के खिलाफ अभियान छेड़ते समय सिर्फ औऱ सिर्फ इंसान को देखा है. ना जात को ना कौम को ना पार्टी और ना पक्ष को. पक्षपात और पक्षधरता का अंतर हमेशा बनाए रखने में यकीन रखा. किसी के साथ गलत हो तो उसके साथ खड़ा होना पत्रकार का भी नैतिक धर्म है लेकिन उसके साथ इसलिए खड़ा हों कि उससे किसी का बनता या फिर किसी और का बिगड़ता है - तो ये पक्षपात है.

वक्त देश के पत्रकारों औऱ मीडिया के लिए चुनौती भरा है. खुद की धूल और गंध को झाड़कर खुले दिमाग और बड़े दिल से इस देश और समाज के लिये चलने-सोचने का है. मैंने जो विरोध किया, उसकी वजहें मुझे दुरुस्त लगीं. मुमकिन है आप मेरा भी करो. विरोध, विरोध के दायरे में ही अपनी पहचान रखता है जैसे आजादी, आजादी के दायरे में ही अपना मतलब रख पाती है.

बुधवार, 10 फ़रवरी 2016

जेएनयू बज़रिए राष्ट्रद्रोह

जेएनयू में कल पाकिस्तान जिंदाबाद और कश्मीर को चाहिए आजादी के नारे लगे. अफज़ल गुरु की तीसरी बरसी पर कुछ छात्रों ने एक सांस्कृतिक शाम रखी. जो पर्चा तैयार किया गया उसमें सबसे ऊपर लिखा गया- मकबूल बट्ट और अफजल गुरु की न्यायिक हत्या के खिलाफ, कश्मीरियों के संघर्ष के समर्थन में आप आमंत्रित हैं. इस जमावड़े में पाकिस्तान जिंदाबाद और हमें चाहिए आजादी, कश्मीर को चाहिए आजादी के नारे पूरे उबाल के साथ लगाए गए. इसका विरोध एबीवीपी वालों ने किया और फिर बवाल बढता चला गया. आज इस मामले पर तमाम न्यूज चैनलोंं पर लंबी बहसें हुईं. जिन छात्रों ने जेएनयू में सांस्कृतिक शाम रखी थी उन्होंने न्योते में यह भी लिखा था कि-यहां एक कला प्रदर्शनी भी होगी जिसके ज़रिए कश्मीर के अधिग्रहण और वहां के लोगों के संघर्ष को बताया जाएगा. कश्मीर की आज़ादी औऱ अफज़ल-मकबूल की हिमायत करनेवाले, लोकतांत्रिक मूल्यों और नागिरक की आज़ादी के अधिकार का हवाला दे रहे हैं. ये वही छात्र हैं जिनके नाम न्योते में छपे हैं. सवाल ये है कि क्या लोकतांत्रिक मूल्यों और आजादी के अधिकार की अवधारणा में नागरिक के किसी भी हद तक जाने की छूट है ? क्या राष्ट्र की अखंडता और राज्य की प्रभुता से स्वतंत्र और स्वैच्छिक हैं लोकतांत्रिक मूल्य और आजादी के अधिकार ? मैं हमेशा से नागिरक के अधिकारों का मजबूत समर्थक रहा हूं और रहूंगा. उसे अपने हक और अपनी बेहतरी के लिये हर वाजिब आवाज उठाने, धरना देने, प्रदर्शन करने , आंदोलन तक करने का अधिकार है. उसे हक है कि वह देश के सबसे बड़े ओहदे पर बैठनेवाले यानी प्रधानमंत्री और मौजूदा व्यवस्था की नीतियों की धज्जियां उड़ा दे अगर - उसके या फिर जिन समुदायों-समूहों-वर्गों के हक की वो लड़ाई लड़ रहा है - उनके हितों का ख्याल नहीं रखा गया है. लोकतांत्रिक व्यवस्था में दुनिया का विश्वास इसलिए है कि वो नागरिक के कल्याण के सिद्दांत पर खड़ी होती है. देश के साधन-संसाधन का इस्तेमाल आखिरी पायदान पर खड़े आदमी के लिये ज्यादा करने का नैतिक और नीतिगत विचार इस व्यवस्था में निहित है. आरक्षण, संरक्षण, प्रोत्साहन, समायोजन के लिये जरुरी नीतियां इसी व्यवस्था में संभव हो पाती हैं. और सबसे बड़ी बात, नागरिक की आज़ादी की गारंटी लोकतंत्र ही देता है. लेकिन यह गारंटी सापेक्ष होती है. किसी भी शब्द का अर्थ निरपेक्षता में होता ही नहीं. अगर बेईमानी का संदर्भ नहीं हो तो ईमानादारी को स्थापित नहीं किया जा सकता, बुरा का भाव नहीं हो तो अच्छा को समझा ही नहीं जा सकता, ऐसे ही आजादी का मतलब तभी समझ में आ सकता है जबतक बंधनों को आपके सामने नहीं रखा जाए. परिंदे को कुदरत ने उड़ने के लिए पूरा आसमान दे रखा है, लेकिन उसकी हद वहीं तक है जहां तक हवा है. उसके आगे कुदरत भी उसकी मदद नहीं करती. अब कुछ उदाहरण देखिए- पाकिस्तान में भारत का झंडा लहराया गया, लहरानेवाले को गिरफ्तार किया गया और मुकदमा चल रहा है. जुर्म साबित होने पर दस साल की कैद मुकर्रर है. अब एक सभ्य मुल्क की मिसाल लीजिए. फ्रांस में आतंकवादी गतिविधि के चलते नागरिकता जा सकती है. हमारे यहां क्या है? जेएनयू जैसे प्रतिष्ठित संस्थान में पाकिस्तान के नारे लग रहे हैं और कश्मीर की आजादी की अंगराइयां ली जा रही हैं. देखिए कैसे तालियां बज रही हैं और हलक में जितनी ताकत है, उससे नारे लग रहे हैं- सुन लो मोदी, सुन लोग मुफ्ती - हम कश्मीर लेकर रहेंगे. इस पूरे आयोजन में राष्ट्र के खिलाफ तीन अपराध हैं, जिनपर बहसों के आगे बात जा ही नहीं रही है. कल बहसें रुक जाएंगी और ये नीम हकीम जम्हूरियत के नए उस्ताद और खतरनाक हो जाएंगे. पाकिस्तान के नारे हिंदुस्तान की ज़मीन पर जिस तरीके से लगाए जा रहे थे, वो पाकिस्तानपरस्ती की गवाही दे रहे थे. हमारा नागिरक, दुश्मन देश या पड़ोसी देश के नाम पर अपनी छाती चौड़ी कर रहा है. दूसरा, अफजल गुरु और मकबूल बट्ट की फांसी को न्यायिक हत्या बताया गया. यानी हमारे देश की सर्वोच्च न्यायालय पर आप हत्या का आरोप लगा रहे हैं. जिस सुप्रीम कोर्ट ने उन दोनों को लंबी कानूनी लड़ाई के बाद आतंकवादी साबित होने पर फांसी दी - उसके फैसले को हत्या मान रहे हैं? इसी देश में यह हुआ कि याकूब मेमन जैसे आतंकवादी की फांसी रोकने के लिए आधी रात अदालत लगवाई गई और कोर्ट ने बाकायदा याकूब की पैरवी करनेवालों को सुना. तीसरा, आप भारत मे कश्मीर के शामिल होने को कश्मीर का अधिग्रहण कह रहे हैं और उसके खिलाफ संघर्ष में देश के लोगों को ही लामबंद कर रहे हैं. ये तीनों बाते देशद्रोह के दायरे में आती हैं. ऐसे लोगों के खिलाफ सख्त से सख्त कार्रवाई होनी चाहिए. जिन लोगों ने देश को बनाने में दो पाई की भूमिका नहीं निभाई, समाज में किसी तरह का सहयोग नहीं दिया वे महज नागिरक होने के नाते मौलिक अधिकार और मानवाधिकार के नाम पर देश के वजूद को ही आंखें दिखा रहे हैं. हनुमंथप्पा अभी जीवन और मौत के बीच जंग लड़ रहे हैं. उनके साथियों को सियाचन की बर्फ लील गई. अभी जब मैं लिख रहा हूं- जम्मू कश्मीर से लेकर अरुणाचल तक हमारे जवान संगीन की तरह सीधे और सतर्क खड़े होंगे. दुश्मन की गोली कभी भी चल सकती है, उन्हें पता है लेकिन मुल्क की खातिर हर वक्त जान को जोखिम में डालकर सीमा की रक्षा करते हैं. उन जवानों के बारे में कितना जानते हैं ये लोग ? देश का किसान मरता है , उसके लिये कब नारे लगाए ? महिलाओं पर अत्याचार की हाड़ कंपा देनेवाली घटनाएं सामने आती हैं- कितनी बार इनलोगों का गुस्सा फूटा ? देश के आम आदमी के पैसे पर पलने-पढनेवाली ये जमात देश की एकता-अखंडता को ही चुनौती देगी ? और हम इन्हें उदारवादी, मानवतावादी , प्रगतिशील और नवोत्थानवादी कहकर इनको अगरबत्ती दिखाएंगे. इनको भारत माता की जय कहने में वैचारिक संकट लगता है, कश्मीरी पंडितो की पीड़ा पर बोलने में पहचान का संकट लगता है और कोई फिर ये कहे कि खुले दिमाग से हम देश और समाज के बारे में सोचनेवाले लोग है तो लगता है कि खुलेपन का इससे भद्दा मज़ाक नहीं हो सकता. आधे-अधूरे पढे, आठ-दस लाइनें रटे , दस-बारह बयानों को बटोरे ये ऐसी जमात है जिसको देश दुनिया की ढेले भर की समझ नहीं है. उसूल और नजरिए से ऐसी उखड़ी-उजड़ी जमात है जिसको कथित बुद्दिजीवी होने का चस्का लगा रहता है. झोलाझापों की नस्ल खत्म हो गई लेकिन ये उनके खतरनाक हो चले खंडहरों की तरह बचे हुए हैं. इस देश में विरोध की वजहें बहुत हैं और विरोध के नायक भी . दादरी की घटना पर देश का बड़ा वर्ग और खासकर मीडिया अखलाक के साथ खड़ा हुआ. लेखकों-साहित्यकारों ने अखलाक के साथ कन्नड़ लेखक कलबुर्गी की हत्या को जोड़कर अपने पुरस्कार लौटाए. मालदा पर भी विरोध हुआ. अन्ना हजारे की अगस्त क्रांति हुई- पूरी व्यवस्था हिल गई, मेधा पाटेकर ने सरदार सरोवर योजना के खिलाफ लंबी लड़ाई लड़ी , मणिपुर में सेना के असीमित अधिकारों के खिलाफ एरोम शर्मिला पिछले १५ साल से अनशन पर हैं और इस देश के बुद्दिजीवियों-नागरिकों का एक तबका उनके साथ खड़ा रहता है. इसी देश का सु्प्रीम कोर्ट नक्सलियों के लिये काम करने के आरोप में गिरफ्तार डाक्टर विनायक सेन को जमानत देता है और सर रिचर्ड एटनबरो उनको गांधी शांति पुरस्कार देत हैं. विरोध डाक्टर सेन की गिरफ्तारी के खिलाफ भी खूब हुआ और मैने खुद भी किया. हाल के वर्षों का सबसे अच्चा उदाहरण अरविेंद केजरीवाल हैं. अन्ना की अगस्त क्रांति के रास्ते चलकर राजनीति में उतरने और फिर सड़क पर सत्ता को सीधी चुनौती देने में अरविंद ने बेहिसाब ताकत लगाई. लोगों का भरोसा जीता और दिल्ली की सत्ता बदल दी. सारे के सारे विरोध राष्ट्र की एकता-अखंडता के दायरे में अपनी-अपनी तरफ से पूरी ताकत के साथ हुए. लेकिन जेएनयू में जो हुआ उसमें देश, समाज , परिवार या व्यक्ति के अधिकार की लड़ाई नहीं है बल्कि संप्रभु राष्ट्र भारत को सीधी चुनौती है. कुछ लोगों का तर्क है कि दरअसल अफजल गुरु या फिर मकबूल बट्ट महज नाम हैं , लड़ाई तो फांसी की सजा के खिलाफ है. ऐसे लोगों से सवाल ये होना चाहिए कि फांसी के खिलाफ खड़ा होने के लिये अफजल और मकबूल का नाम ही क्यों. आजाद हिंदुस्तान में अबतक जितनी फांसी हुई है उनमें से सिर्फ ५-७ फीसदी ही मुसलमान थे. बाकियों में से किसी का भी नाम आपको याद नहीं. दो ऐसे लोग जिनको इस देश की सबसे बड़ी अदालत ने आंतकवादी माना उनको आप अपनी क्रांति का नायक बनाना चाहते हैं? आप नारा लगाते हैं कि एक अफजल मारोगे, हर घर से अफजल निकलेगा! इस देश की नई नस्ल में आप अफजल की फसल काटना चाहते हैं? याद रखिए, ये वो विश्वविद्यालय है जिसके हर छात्र पर तीन लाख रुपए सरकार के खर्च होते हैं और वो रकम आम आदमी के टैक्स से आती है. यानी जिनके पैसों पर आप पढ रहे हैं उन्हीं के खिलाफ आप आग बो रहे हैं. इस देश के आम विश्विद्यालयों में पैसे के संकट के चलते बच्चे दर-दर की ठोकरें खाते हैं, कक्षाओं में फटेहाली पसरी रहती है, साधन-संसाधन का टोटा रहता है और आप मज़े में पढते हैं. इसलिए कि इस देश के कल को आप संवार सकें, इसलिए नहीं कि कल होकर इस देश को आपसे ही खतरा हो जाए. वैसे ऐसे छात्रों की संख्या जेएनयू में भी ज्यादा नहीं है लेकिन जितनी भी है इस चिंता के लिये काफी है कि देश के सर्वोत्तम शिक्षण संस्थानों में आजादी और मानवाधिकार के नाम पर भारत का भविष्य अपनी ही आस्तीन में सांप पाल रहा है.

रविवार, 31 जनवरी 2016

शनि शिंगणापुर और आधी आबादी का युद्द

धूप तीखी हो चली थी. मैंने ड्राइवर से एसी ऑन करने को कहा. दिल्ली में अब भी ठंड है लेकिन यहां आकर मौसम ही दूसरा-सा लगता है. धूप में हल्का तीखापन है. मेरी नजरें बांयी तरफ थीं. कार सरपट भाग रही थी. सड़क की दोनों तरफ पीछे भागती छोटी- छोटी पहाड़ियां औऱ उनतक पसरे हरे भरे खेत. यार, अब कितने घंटे और, मैंने ड्राइवर से पूछा. सर, बस एक घंटा- उसने मराठी लहजे में हिंदी बोली. अच्छा- मैंने धीरे से कहा. अरे, मैंने तो तुम्हारा नाम ही नहीं पूछा और ढाई-पौने तीन घंटे से हम साथ है. क्या नाम है ? मैंने बस कुछ सेकंड बाद तपाक से पूछ डाला. उसने फिर उसी लहजे में कहा- सर अन्ना. अरे वाह, तुम तो अन्ना हजारे वाले हो- मेरे कहते ही वो हंस पड़ा. अरे नहीं साहब लेकिन अन्ना के गांव आप यहीं आगे से बाएं मुड़ जाएं तो जा सकते हैं. छोड़ो, अभी उधर नहीं जाना है, ये बताओ इधर क्या खेती होती है. अन्ना ने कहा- सर गेंहू, बाजरा, टमाटर, प्याज , ईंख... अन्ना तुम गाड़ी की रफ्तार बढाओ- मैंने उसकी बात को काटते हुए थोड़ी ऊंची आवाज़ कहा. मुझे अब मेरे ही सवाल का जवाब सुनने का मन नहीं कर रहा था. ११.३० बज गए हैं और एक घंटा अभी और लगेगा. यानी १२.३० तक तो हम पहुंच पाएंगे. मैं कब शूट शुरु करुंगा और कब वापस आकर फ्लाइट पकड़ूंगा? कुछ ही सेकंड में आने-जाने का मैंने जो हिसाब लगाया उससे शायद थोड़ा चिंतित हो गया और अन्ना पर रफ्तार बढाने का दबाव इसी वजह से बनाया. मैं अपने कैमरामैन शरत बारीक के साथ पुणे से शनि शिंगणापुर के रास्ते पर था. दिल्ली से बीती रात ही पुणे पहुंच गया था ताकि सुबह ही शिंगणापुर के लिये निकल पड़ूगा. जिस होटल में ठहरा था, वहां से नाश्ता कर सुबह साढे आठ बजे के आसपास निकल गया था.
पिछले कई दिनों से शिंगणापुर में शनि के चबूतरे पर जाने को लेकर देश में बवाल मचा हुआ है. जितने न्यूज चैनल हैं, सबपर रोजाना ये बहस चल रही है कि शनि की प्रतिमा तक जाने औऱ उनकी पूजा करने का अधिकार महिलाओं को क्यों नहीं. २६ जनवरी को भूमाता ब्रिगेड की महिलाओं ने पुणे से शिंगणापुर की ओर कूच किया तो देश में खलबली मच गयी. हालांकि ब्रिगेड की महिलाओं को शिंगणापुर से ७० किलोमीटर पहले सूपा गांव में ही पुलिस ने रोक लिया.  अभी थोड़ी देर पहले जब वो गांव गुजरा था तो मैंने शरत को टोकते हुए कहा कि देखो ये वही गांव है जहां तृप्ति देसाई और उनके साथ की महिलाओं को शिंगणापुर जाने से रोका गया था. याद है ना वीडियो - जमीन पर लोट-लोट महिलाएं नारा लगा रही थीं, मैंने आगे जोड़ा. आज चार रोज गुज़र गए लेकिन देश में बहस लगातार जारी है. मैंने अपने शो अर्धसत्य के लिये शिंगणापुर को इसीलिए चुना कि इस विवाद की असलियत मैं समझ पाऊं और दर्शकों को समझा पाऊं.
कार जब मंदिर के सामने रुकी तो १२ बजकर ४० मिनट हो रहे थे . बाहर निकलते ही धूप थोड़ी चुभी. मंदिर प्रशासन से पहले ही बात हो चुकी थी, सो सीधे अंदर गया.  दफ्तर में जो आदमी इंतजार कर रहा था उसने एक लड़के को बुलाया औऱ कहा कि साहब दिल्ली से आए हैं, शूटिंग का परमिशन है इसलिए शनि चबूतरे तक ले जाओ. मैं और शरत उस लड़के के पीछे हो लिए. लड़का हमें शनि चबूतरे की बाईं तरफ ले गया जिधर से सूरज था.  कैमरे के लिये भी यह हिस्सा ठीक था. चबूतरे पर स्टील की रेलिंग तो थी ही उससे करीब आठ-दस फीट के फासले पर भी स्टील का एक घेरा था . इस घेरे के बाहर दर्शन करनेवाले लाइन में लगे हुए थे. मैं जिस तरफ था यानी शनि की मूर्ति के लिहाज से चबूतरे की बायीं तरफ, उधर स्टील के घेरे की सीध में दो बड़ी- बड़ी ट्रे रखी थीं, जिनके ऊपर जालियां लगी थीं. उन ट्रे से स्टील की मोटी पाइप नीचे जा रही थी. जो लोग दर्शन करने आए थे वे सामने से आ रहे थे, ट्रे के ऊपर सरसों का तेल डाल रहे थे, सामने शनि की विग्रह मूर्ति को देख रहे थे और चबूतरे की तरफ आगे जाकर फूल और बाकी पूजा सामग्री चढा रहे थे. कतार में पुरुष और महिलाएं दोनों थे. जो लड़का मुझे लेकर गया था उससे मैंने पूछा- भाई ये ट्रे में तेल क्यों चढाया जा रहा है. उसने कहा कि सर पहले तो चबूतरे तक लोग जाते थे लेकिन भीड़ बहुत होती थी तो फिर चबूतरे पर जाना रोक दिया गया और यहीं से दर्शन की व्यवस्था कर दी गई. तभी ट्रे यहां लगाई गई . इसी में लोग तेल डालते हैं और आप नीचे ट्रे से लगी हुई जो पाइप देख रहे हैं वो जमीन के नीचे बने एक टैंक को जाती है. टैंक में तेल जमा होता रहता है और वहां से मोटर चलाकर पाइप के जरिए शनि के ऊपर लगे कमंडल तक पहुंचाया जाता है. अभी जो तेल शनि की शिला पर गिर रहा है वो उसी टैंक से जा रहा है. इसी दौरान मंदिर के ट्रस्ट से जुड़े योगेश वानकर आ गए और उन्होंने मेरे  सवालों का जवाब देने का जिम्मा संभाल लिया. योगेश के मुताबिक सारा मामला भूमाता ट्रस्ट और उसकी अगुआ तृप्ति देसाई के पब्लिसिटी स्टंट का नतीजा है. पांच साल से चबूतरे पर पुरुष और स्त्री कोई नहीं जाता. सब यहीं से दर्शन करते हैं. बस, शाम में पुजारी अभिषेक के लिये चबूतरे पर चढते हैं. इस मामले को उनलोगों ने इतना बड़ा बवाल बना दिया है कि लगता है जैसे महिलाओं का यहां प्रवेश तक वर्जित है. लेकिन पिछले साल २९ नवंबर को जब एक महिला चबूतरे पर चढ गई तो आपने मूर्ति का शुद्दिकरण तो करवाया ना. भूमाता ब्रिगेड इसी को तो महिलाओं का अपमान मानकर सिर्फ पुरुष के ही चबूतरे पर जाने की परंपरा को तोड़ने की बात कह रहा है- मैंने तपाक से सवाल दागा. योगेश थोड़ी देर के लिये सकपका से गए. ३०-३२ साल की उम्र होगी, लंबा कद है और बात को घुमा फिराकर परंपरा पर ला रहे थे. कुछ सेकंड थमकर बोले - सर ये भी गलत है. कोई शुद्दिकरण नहीं हुआ. शाम को अभिषेक होता है और अभिषेक ही हुआ. लेकिन तृप्ति उसको शुद्दिकरण कहकर लोगों को गुमराह कर रही हैं. मेरी जब तृप्ति से बात हुई थी तो उन्होंने यही कहा था कि २९ नवंबर की घटना महिलाओं का अपमान थी और उसका एक ही रास्ता है कि शिंगणापुर की इस भेदभाव वाली परंपरा को खत्म किया जाए. पुलिस ने हमें एक बार तो रोक लिया लेकिन ऐसा नहीं है कि हम चुप बैठेंगे. तृप्ति, पुणे सतारा रोड पर बालाजी नगर के पास धनकावड़ी में रहती हैं. मैंने उनसे पूछा था कि आप ये पूरा बखेड़ा अपनी पब्लिसिटी के लिए कर रही हैं, ऐसा आप पर आरोप लग रहा है तो तृप्ति ने कहा था कि नहीं ऐसा नहीं है. मेरा संगठन भूमाता बिग्रेड २०१० से काम कर रहा है और हमने अन्ना हजारे से लेकर बाबा रामदेव तक के आंदोलनों में हाथ बंटाया है. महिलाओं के साथ जहां भी अत्याचार और गैर-बराबरी होते हैं , हम आवाज उठाते हैं. शिंगणापुर में भी गलत परंपरा को खत्म करने के लिये हम आंदोलन पर उतरे. तृप्ति की बात का ख्याल मुझे यहां पूरी तरह से था और सामने मुझे जो दिख रहा था, दोनों को जोड़कर मेरे लिए ये समझना मुश्किल हो रहा था कि जिस बात को लेकर समूचे देश में महिला अधिकार और सम्मान का अलख जगा हुआ है, वो क्या सचमुच इतना बड़ा है! महिला और पुरुष कतार में तेल डालते, शनि की मूर्ति को प्रणाम करते आगे निकलते जा रहे थे. किसी के मन में गैर बराबरी का भाव आता होगा ये लगता नहीं है. पिछले पांच साल से तो ऐसा ही इंतजाम है.  हां ,अभिषेक करनेवाला पुजारी पुरुष ही होगा ये परंपरा है, लेकिन वो सिर्फ शाम में अभिषेक भर के लिये चबूतरे पर जाता है और इसतरह के भेद का भाव भी शायद ही किसी के मन में यूं आया होगा जैसा इनदिनों है. फिर भी मुद्दा तो है. लिहाजा मैंने योगेश से बतौर सलाह कहा कि क्यों नहीं आप ऐसा कर दे रहे हैं कि पुरुष पुजारी के साथ एक महिला पुजारी को भी शामिल कर उसे अभिषेक के लिये चबूतरे पर भेज देते हैं ताकि सारा बवाल ही खत्म हो जाए. मेरा इतना कहना था कि योगेश थोड़े तन और तमतमा से गए. देखिए, जो रूढि और परंपरा है उसको हम नहीं तोड़ सकते. महिला नहीं जाती है शनिदेव के पास तो नहीं जाएगी. इसके बारे में आप धर्मशास्त्र के जानकारों से राय ले सकते हैं.
इस देश के जाने माने आध्यात्म गुरु पवन सिन्हा के मुताबिक धर्मशास्त्रों में कहीं भी इस बात का उल्लेख नहीं है कि शनि के पास स्त्रियों का जाना धर्म-विरुद्द है या फिर पाप है. श्रग्वेद में ऐसे ४१४ श्रषियों का उल्लेख आता है जिन्होंने श्रचाओं की रचना की और इनमें ३० महिलाएं हैं. युजुर्वेद कहता है कि यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र: देवता: . उपनिषदों तक महिलाओं की स्थिति सम्मानजनक थी लेकिन स्मृतियों के काल में महिलाओं पर पाबंदियां बढने लगीं. और ऐसा समाज में हाशिए पर खड़ी आबादी के साथ भी हुआ. पवन जी के मुताबिक अव्वल तो शनि की स्थिति देवता की नहीं बल्कि ग्रह की है, लेकिन हिंदू परंपरा में ग्रहों का संबोधन भी सम्मानजनक रहा है. इसलिए शनि या वृहस्पति को साधारण आदमी देवता ही मान लेता है. सच्चाई ये है कि पूजा को जो विधान विष्णु के लिये होगा वो शनि के लिये नहीं हो सकता. शनि की आपकी कुंडली में कैसी स्थिति है इसपर उसका प्रभाव निर्भर करता है. कहते हैं कि कोबरा का काटा और शनि का मारा पानी तक नहीं मंाग पाता. शनि की दृष्टि जब खराब थी तो गणेश का सिर शिव ने काट डाला, राम को वनवास हो गया, रावण जैसे महापंडित का संहार हो गया, पांडवों को अज्ञातवास में दर दर भटकना पड़ा, राजा हरिश्चंद्र को दुर्दिन देखने पड़े और राजा विक्रमादित्य को कई तरह के कष्ट उठाने पड़े. पवन सिन्हा इन उदाहरणों को रखने के साथ साथ ये सावधानी बरतने को भी कहते हैं कि इसका मतलब ये नहीं है कि शनि के इसतरह के कुप्रभाव से बचने के लिये आपको धाम-धाम भटकें. उसके कुछ कारगर उपाय बताए गए हैं. अगर उनको आप अपना लें तो संकट से बचना आसान हो जाएगा. लेकिन जिसतरह से शनि का प्रभाव हर जातक यानी स्त्र- पुरुष दोनों पर पड़ता है, वैसे ही शनि की पूजा और उनकी मूर्ति पर तेल-फूल चढाने का अधिकार दोनों के पास होना चाहिए. पवन सिन्हा की राय जैसी ही राय देश के प्रतिष्ठित ज्योतिष और अंकशास्त्री अनुपम कपिल रखते हैं. वे कहते हैं कि शनि ग्रह है और उसका प्रभाव व्यक्ति पर तब पड़ता है जब उसकी दशा शुरु होती है. शनि को न्याय का देवता मानते हैं , इसलिए वो उन्हीं लोगों के लिये कष्टकर सिद्द होगा जिनके कर्म अच्छे नहीं हैं. दरअसल शनि की स्थिति व्यक्ति पर बुरा ना करने का डर और अच्छा करने की नैतिकता पैदा करनेवाले ग्रह की है. शनि से महिलाओं को दूर रहना चाहिए ऐसा कोई नियम कहीं नहीं लिखा है. यह एक रूढि है और समय के साथ इसका खत्म होना अच्छी बात है. अनुपम कपिल अपनी इन बातों के साथ कुछ सवाल भी रखते हैं.  वे कहते हैं कि आज से १५-१६ साल पहले जब मैं शिंगणापुर जाता था तो वहां धूल उड़ती थी. सबकुछ उजड़ा हुआ सा लगता था और आज देखिए तो करोड़ों की कमाई हो रही है. सिर्फ तेल का कारोबार ही ऐसा है कि लोग दिनभर में पीपा का पीपा सरसों का तेल चढा देते हैं और वही तेल फिर निकालकर बाजार में उतार दिया जाता है. इसके खिलाफ कोई आंदोलन नहीं होता. देश के मंदिरों में गिरोहबंदी और लूट है इसको लेकर आवाज नहीं उठती. लेकिन शिंगणापुर में महिला शनि के चबूतरे तक जाए इसके लिये समूचे देश को आंदोलित कर दिया गया है. अपनी बात में थोड़ा बदलाव कर अनुपम कहते हैं कि आप ही बताइए कि क्या इस देश को पता नहीं है कि शिंगणापुर में असली मामला क्या है? चबूतरे पर चढने की लड़ाई को लेकर देश के सभी टीवी चैनलों पर घंटो बहस होगी और अखबारों के पन्ने भर जाएंगे, लेकिन किसानों की रोज-रोज की मौत पर चुप्पी रहेगी. हमारे धर्मग्रंथ कहते हैं कि पत्नी की उम्र पति की उम्र की एक तिहाई होनी चाहिए. क्या आप ये चाहते हैं कि आठ साल की बच्ची का विवाह २४ साल के आदमी से कर दिया जाए. पिता अगर बेटी के पहली बार रजस्वला होने से पहले ही उसका विवाह नहीं करता तो वो पाप का भागी होगा, यह भी हमारे धर्मग्रंथ कहते हैं, क्या बेटियों का विवाह १४-१५ साल पर कर दिया जाए. समय के साथ ऐसी अंधेरगर्दी खत्म होनी चाहिए.  अगर शिंगणापुर में महिलाओं को लगता है कि ये अपाहिज परंपरा नहीं रहे तो नहीं रहनी चाहिए. मेरा एतराज बस इतना है कि इतने बड़े देश में मुद्दे इतने जरुरी और बड़े हैं कि शिंगणापुर का सवाल बहुत छोटा दिखता है. लेकिन इसी पर हम समय खराब कर रहे हैं. इतना कहते-कहते अनुपम का चेहरा लाल हो गया था, मैंने महसूस किया.  पुणे एयरपोर्ट से जैसे ही बाहर निकला था अनुपम कपिल बाहर मेरा इतंजार करते हुए दिखे . मैं उन्ही की गाड़ी में बैठा और होटल तक गया. दस साल पुरानी पहचान है और अब दोस्ती गहरी हो चुकी है. शिंगणापुर निकलने से पहले मेरी अनुपम से लंंबी बात हुई और मैंने उनका इंटरव्यू भी किया. ठीक वैसे ही जैसे दिल्ली से निकलने से पहले पवन सिन्हा से शनि और हिंदू धर्मशास्त्रों में स्त्रियों की स्थिति पर बात की थी. इन दोनों की बातों से जो सवाल शिंगणापुर शनि मंदिर प्रशासन के ऊपर उठ रहे थे, उनको भी मैंने शनिधाम से जुड़े लोगों के सामने रखा. इसीलिए योगेश ने जब ये कहा कि आप धर्माचार्यों से पूछिए कि महिलाओं को शनि की मूर्ति को स्पर्श करना चाहिए की नहीं तो मैंने उनसे एक ही बात कही. आप सिर्फ एक धर्मग्रंथ बता दीजिए जिसमें महिलाओं को शनि से दूर रहने की बात कही गई है. योगेश के पास कोई जवाब नहीं था. यही प्रश्न मैंने शनिधाम के पुजारी अशोक देवा के सामने भी रखा, लेकिन उनके पास भी रटा-रटाया जवाब था- ये परंपरा है और वो भी चार सौ साल पुरानी, नहीं बदल सकती. हम कोई अकेले फैसला थोड़े कर सकते हैं. पूरा गांव है, शनि की कृपा रहती है यहां. आपके कहने से हम कोई फैसला ले लें और फिर हमें शनि का कोप भोगना पड़े , ऐसा हो नहीं सकता. पुजारी अशोक देवा ये बात कहते-कहते गांव की उस परंपरा का भी हवाला देने लगे जो हिंदुस्तान में इकलौती और आश्चर्यजनक है. अगर शनि यहां सबकुछ नहीं देख रहे होते तो सैकड़ों साल से शिंगणापुर गांव के घरों में दरवाजे नहीं हैं और चोरी नहीं होती.  अगर कोई कुछ चुरा भी ले तो गांव के सीवान से बाहर सलामत नहीं जा सकता. क्या ये सब ऐसे ही है. अशोक देवा मुझसे ही सवाल करने लगे थे. मुझे थोड़ी हंसी भी आई . यह बात ठीक है कि शिंगणापुर में किसी भी घर में , दवाखाने में , दुकान में मैंने दरवाजा नहीं देखा लेकिन इस परंपरा भर से इस औरतों को शनि से दूर रखने की प्रथा को चलते रहने की अनुमति मिल जाती है?  इस तरह के भय ने समाज में एक बड़े तबके को सहमति में हाथ बांधे , पीढियों दुत्कार खाते और अपने हालात के लिये अपनी पैदाइश को कोसते रखा है . शिंगणापुर में औरतों के साथ भी ऐसा ही रहा है. यह ठीक है कि लगता है कि मामला पैदा किया गया और उसपर बवाल खड़ा किया गया लेकिन सवाल तो बराबरी का ही है. समाज में समानता के हक में और भेदभाव के खिलाफ जैसी बाकी लड़ाइयां या मुद्दे हैं , शिंगणापुर में महिलाओं के साथ गैर बराबरी भी वैसा ही मुद्दा है. मंदिर के प्रांगण से मैं यही राय लेकर निकल रहा था,. लगभग चार बजने को थे. दिल्ली वापसी की फ्लाइट के लिये अभी ६ घंटे बचे थे और पुणे लौटने में चार साढे चार घंटे लगने थे. कार में बैठते समय मैंने शरत से कहा यार रास्ते में गन्ने का रस निकालनेवाले कोल्हू लगे थे, गाड़ी रोक लेना. दो चार ग्लास गटक कर निकलेंगे.