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रविवार, 21 जून 2009

वो फिर नज़र आएगा ( शैलेन्द्र की याद में )

स्याही भर सपना
आँख भर पानी
और छाती भर रिश्ता
इससे ज़्यादा उसे
कुछ चाहिए भी नहीं था ।

उसमे बची थी
ठंडे चूल्हों की आंच
जिंदा थी
बंजर होते जाने की बेचैनी
बाकी था
पसीने में नमक भी
नहीं तो लीक को लातिआने की ताकत
खबरखोरी ने छोड़ी कहाँ है !

वक्त सोख लेगा
कपडों में बसी उसकी गंध
तस्वीरों पर धुंध डेरा दाल देगी
सूख जाएगा शब्दों का हरसिंगार
लेकिन जब कभी कोई
कद भर ही नज़र आएगा
शोर सन्नाटे का गीत गायेगा
या फिर कोई आवारा
सड़कों को रात भर जगायेगा
वो अगले मोड़ पर
सजधज कर
नई नज़्म के साथ नज़र आएगा।

रविवार, 26 अप्रैल 2009

वो जनतंत्र को जुतिया रहा है ......

कल अहमदाबाद की रैली में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर इंजीनियरिंग के एक छात्र ने जूता फेंक दिया । वैसे ये जूता मंच से करीब २० मीटर दूर गिरा था लेकिन इसने विरोध के लोकतान्त्रिक तरीके को एकबार फ़िर जुतिया दिया। सिलसिले की शुरुआत दिल्ली में कांग्रेस मुख्यालय से हुई जहाँ दैनिक जागरण के पत्रकार जरनैल सिंह ने गृह मंत्री पी चिदंबरम की तरफ़ भरी प्रेस कांफ्रेंस में जूता उछला था जरनैल को सीबीआई की तरफ़ से ८४ दंगों के सिलसिले में जगदीश त्य्त्लेर को क्लीनचिट देने पर ऐतराज़ था । ऐतराज़ हो सकता है , नाराज़गी या गुस्सा भी समझ में आता है लेकिन एक पत्रकार की हैसियत से बैठकर किसी समुदाय का गुस्सा इस तरह से निकालना ना सिर्फ़ पत्रकारिता पर बदनुमा दाग छोड़ गया बल्कि बोतल से जैसे किसी जिन्न को निकाल गया । जरनैल उस रोज़ चैनल चैनल घूम-घूम ये कह रहे थे कि उनसे भारी चूक हो गई लेकिन कई सिख संगठन उनके नाम की बलैयाँ लिए जा रहे थे , इनाम - वनाम देने का ऐलान किया जा रहे थे । ये कुछ वैसा ही था जैसे अमेरिकी राष्ट्रपति जोर्ज बुश पर जूता फेंकेवाले मुन्तजिर जैदी के नाम अरब मुल्को के संगठनों की तरफ़ से शादी से लेकर सम्मान तक का ऐलान । मुन्तजिर भी पत्रकार ही थे और उसी हैसियत से वो बग़दाद की प्रेस कांफ्रेंस में बुश के सामने बैठे थे । लेकिन इराक़ की जनता , बच्चों और विधवाओं का हवाला दे देकर मुन्तजिर ने बुश पर अपने दोनों जूते चला दिए । ये दीगर बात है कि दोनों से बुश ने ख़ुद को बचा लिया - मगर विरोध का ये वायरस अगले डेढ़ महीने में इंग्लैंड पहुँच गया । २ फरवरी को कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में एक छात्र ने चीन के पी एम् जिआबाओ पर उस वक्त जूता फेंका जब वो ग्लोबल इकोनोमी पर भाषण दे रहे थे । और अप्रैल के पहले हफ्ते में दिल्ली में गृह मंत्री चिदंबरम पर जूता फेंकते जरनैल को भी दुनिया ने देखा । इसके बाद तो ऐसा लगा जैसे देश में जूते चप्पल ही विरोध का हथियार रह गए हैं और यही जनता को खूब जंच भी रहा है । चुनावी मौसम में रैली का रेला आ गया और नेताओं पैर जूते चप्पलों के चलने की खबरें आने लगीं- तस्वीरें दिखने लगीं । कुरुक्षेत्र में नवीन जिंदल पर एक किसान ने जूता फेंक मारा तो कटनी में लाल कृष्ण आडवानी पर लकडी कि चप्पल जिसे गावं -देहात में चटाकी कहते हैं - वो चली और फ़िर धुले में फिल्मस्टार जीतेंद्र पर किसी ने चप्पल चला दी । इसी सिलसिले की अगली कड़ी अहमदाबाद में दिखी जहाँ प्रधानमंत्री पर जूता फेंका गया और एक चार घंटे बाद उसी शहर में एक साधू अडवाणी पर चप्पल फेंकने से पहले धर लिया गया । ये तमाम मामले इस बाद की तरफ़ भी इशारा कर रहे होंगे कि नेताओं को लेकर जनता में कितना गुस्सा है - मगर उससे कहीं बड़ा सवाल ये उठता है कि विरोध का ये तरीका क्या जनतंत्र को नही जुतिया रहा ? क्या ऐसी भोंडी और बेहूदा हरकतों से बुनियादी अधिकारों की तौहीन नहीं होती ? मैं यहाँ इस मुद्दे को नहीं उठा रहा कि संसद और विधानसभाओं में बैठकर हमारे जन प्रतिनिधि किस तरह का सलूक करते हैं । माइक्रोफोन से लेकर टेबल कुर्सियां तक चलते हैं....नोटों की गद्दियाँ लहराई जाती हैं....एक दूसरे की गिरेबान पकडी जाती है । लेकिन यहाँ भी सवाल घूम फिरकर जनता पर ही आता है कि ऐसे नुमाइंदों को चुनने वाला समाज आख़िर कबतक भीष्म ध्रितराष्ट्र या ड्रोन बना रहेगा और कबतक वो अपने दुर्योधनों को पलता रहेगा ।

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009

वो क्यों रोते हैं....?

आजतक के छपरा स्ट्रिंगर आलोक जयसवाल का ई मेल आज उठते ही देखा । कहानी ऐसी है कि छोटे शहरों के लोगों को बात आसानी से समझ में आ जायेगी लेकिन बड़े शहरवालों के हलक में ही सच फंस जाएगा और फ़िर बौद्धिक वमन करने के बाद ही उन्हें चैन पड़ेगा। मामला छपरा स्टेशन पर १७ अप्रैल की रात का है । धंधा करनेवाली एक लड़की से एक लड़के ने सौदा किया लेकिन बाद में चार लड़के हो गए । पैसे का हिसाब बिगड़ा और लड़की ने भगवन बाज़ार थाने में रेप की शिकायत दर्ज करा दी । एक लड़का पकड़ा गया है , बाकी को पुलिस तलाश रही है । अब ज़रा ऍफ़आईआर का मजमून सुनिए । लड़की ११ बजे छपरा से थावे जानेवाली ट्रेन में अपने पिता के साथ बैठी थी और वक्त करीब ११ बजे रात का था । अचानक ट्रेन में ४ बदमाश घुस आए और चाकू की नोक पर लड़की को स्टेशन के पीछे ले गए फ़िर रेप किया । अब पुलिस को ये पता नहीं कि उस रात ट्रेन ९ बजे थावे जा चुकी थी और उसके जाने का वक्त भी वही है । शिकायत के बावजूद लड़की का पिता आजतक नज़र नहीं आया । लेकिन दिल्ली में बैठे उदय भास्कर को इसमें ८४ के दंगों की बू आती है । अब उन्हें कौन समझाए की समाज की कड़वी सच्चाइयाँ स्त्रतेजिक अफेयर्स से कोसों दूर होती हैं । एयर कंडीशंड कमरों में बैठकर ज़मीन के सवाल उठाना आत्म सुख के लिए तो ठीक है लेकिन उसमे आत्मा का सूखा हमेशा पड़ा रहता है। देह के धंधे को किसी तरह सही नहीं ठहराया जा सकता लेकिन अपने धंधे को चमकाने के लिए देह कि आड़ नहीं ली जा सकती - इसके लिए ज़मीन पर उतरकर लडाई लड़ी जाती है । वैश्यावृत्ति इस देश में विमर्श का सामान बनकर पलती पनपती रही है लेकिन विरोध और जीविका के विकल्प की लड़ाईयां संकल्प के साथ नहीं लड़ी जाती । दोस्तोवस्की से लेकर शरत बाबू और महेंद्र मिश्रा को तो समाज के कोढ़ का सारा सच पता था क्योंकि उनका जीवन उस सच के धरातल पर खड़ा था । ये उदय भास्कर जैसे बुद्धिजीवियों की कलम से अरण्यरोदन की तरह लगता है ।

जाते जाते आज फ़िर वो जो ख़ुद के लिए लिखा था -

जेठ की धुप थी , बरसाती बजबज पानी था / रिसता हुआ एक रिश्ता मिला , जब देखा वहां कि क्या था

उसकी हाँ मासूम थी , बेशक थी ना भी / यकीन मेरी भूल था, वो था तो आदमी saari ईटें चाची की , माँ को मिली बस मिटटी / आँगन भी जितना मिला , मेरे लिए था गाजापट्टी

देश क्या दुनिया क्या , अब तो सब बित्ते भर में / दिल्ली में दुर्गन्ध है , लाशें बग़दाद कर्बला में

वो अदबी लोग हैं , सलीका सवूर तो पूछेंगे / नहीं आएंगे पास अगर तेरे हाथ आईना देखेंगे

बुधवार, 22 अप्रैल 2009

सात महीने बाद लौटा हूँ

पिछले सात महीनों में ब्लॉग पर आकर लिखना तो कई बार चाहा लेकिन किसी न किसी वजह से चाहना लिखने में तब्दील नहीं हो सका। अलबत्ता इस दौरान कुछ गज़लें ज़रूर लिखी हैं , बावजूद इसके कि मुंबई पर २६/११ के हमले के बाद से ख़बरों की दुनिया काफी रफ्तार में रही है । अब जब चुनाव चल रहे हैं , टीवी न्यूज़ चैनल काफी बदल चुके है । दर्शकों की पसंद में भी बदलाव आया है और इसने ख़बरों के बूते ख़बरों का चैनल चलाने की गुंजाइश ज़्यादा पैदा की है । बहरहाल , बात जहाँ से उठाई थी वहीँ लौटता हूँ कि - हाल के महीनों में कुछ गज़लें मैंने लिखी है जो मेरे लिहाज़ से अच्छी हैं । उन्हीं ग़ज़लों को यहाँ जगह दे रहा हूँ और उम्मीद कर रहा हूँ कि आप सबको भी पसंद आयेंगी ।

१- उसके जाने पे तड़प न दिल मेरे
धूप है वो वो आएगी और जायेगी

दिल जुबान का फर्क तो होता है
इक कहेगा इक से कही न जायेगी

बाज़ार है बस मोल तू अपना बता
जिस्म क्या है रूह तक बिक जाएगी

आँख का पानी बचा दिल जिंदा है
चोट का क्या कल परसों भर जायेगी

२- गीली छत में रह गई आँखें निंदिया जाओ ना
बरसाती रातों का सवेरा अच्छा लगता है
गाँव में फसलों कि खुशबू है तुम भी आओ ना
बस्ती में बंजारों का डेरा अच्छा लगता है
शहर में चौराहों के बच्चे एकदिन बोलेंगे
शीशे के उस पार का चेहरा अच्छा लगता है
मेरे चाहनेवाले लाखों वो नहीं तो क्या
मेरे दिल पे उसका पहरा अच्छा लगता है
सबकी ईद है सबकी दीवाली सबकी होली रे
क्या करता है तेरा मेरा सब अच्छा लगता है

३- पास तो है मगर फासला सा रखता है
बात टूटे नहीं सिलसिला सा रखता है
है खुदा तो जानेगा दिल कि ख़ुद ही
इसी उम्मीद पे मुझको जिंदा रखता है
कांच पर हैं लकीरें तो चेहरे उतने हैं
हरेक शख्स यहाँ आईना सा दिखता है
नसीब पे रोना क्या क्यों ज़िन्दगी से गिला
देख वो उड़ता परिंदा आसमान रखता है
हदों को तोड़कर किसका क्या बना फ़िर भी
चलो गिरा दे दीवारें जिनमे खुदा रहता है