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बुधवार, 9 सितंबर 2015

आधी रात एक दोपहर


शनिवार की दोपहर चढ़ चुकी थी. दिन दमक रहा था. दफ्तर में मेरे कमरे के बाहर वाले हिस्से पर शीशे की दीवार है, इसलिए आसमान के आखिरी सिरे तक नजर बेरोकटोक जाती है. आसमान बिल्कुल नीला, बादलों के हल्के छोटे-छोटे छौने आहिस्ता आहिस्ता तैर रहे थे, दूर चार चीलें देर से चक्कर लगा रही थीं और सड़कों पर भी आवाजाही बहुत कम थी. बड़े दिनों बाद दिल्ली-नोएडा में किसी यूरोपीय शहर जैसी शांति पसरी थी. ऐसा माहौल कई बार कहता है कि कुछ लिखूं लेकिन हो नहीं पाता. दफ्तर में मैं उसूलन कोई और काम नहीं कर सकता, इसलिए मन को मोड़ देता हूं जब कभी ऐसा ख्याल आता है तो. शनिवार को अंदर से ऐसा ही महसूस होने लगा कि चलो मोहन प्यारे आज कुछ कर ही देते हैं. लेकिन उसूल मजबूत निकला और दफ्तर के जरुरी काम में धंस-फंस गया. ये मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मैं दफ्तर से घंटे भर के लिये भी बाहर जाता हूं तो लगता है गलत कर रहा हूं. मुझे मेरा समय अपनी टीम, अपने चैनल को देना चाहिए. कहीं बाहर हूं तो कोशिश करता हूं कि एडिट मीटिंग तक कोई भी फ्लाइट-गाड़ी पकड़ कर ऑफिस आ जाऊं. जाने का समय तो वही है- रात साढे दस के आसपास. कोई कमरे में देर तक बैठ जाए तो उकताहट सी होने लगती है. इसलिए मुझे कई बार यह सवाल परेशान करता है कि किसी दिन काम ना रहे तो क्या मैं जीवित रह पाऊंगा. ये सवाल जीवन से जुड़ा है, इसलिये जरुरी है. मगर जैसी मेरी फितरत है, अक्सर ये ख्याल मज़बूत हो जाता है कि कल की कल देखेंगे. आज को पूरा जियो और इतना कि कोई अफसोस ना रहे. कुछ बातें जिन्हें मैंने उसूल के तौर पर अपनाया- उन्होंने मुझे बहुत सहेजा संवारा. काम के रास्ते में कोई समझौता नहीं, अपने साथियों के बारे में कोई उल्टी सीधी बात सुननी-कहनी नहीं, बेमतलब दूसरों के बारे में सोचना- समय बर्बाद करना ठीक नहीं, इंसान हैं इसलिए गलतियों-आलोचनाओं से आप परे नहीं- पहचानिए और ठीक करते रहिए, आपके किसी मित्र को आपके बारे में कोई गलतफहमी है तो समय का इंतजार करें- जवाब वही देगा और हर किसी को जवाब देना जरुरी नहीं- जिसका आपके लिए मतलब नहीं उसपर समय खर्च नहीं. इन बातों में हर किसी पर सौ फीसदी अमल करता हूं. जो चूक रह जाती है वो समय के साथ तालमेल ना बिठा पाने की है. लाख चाहकर भी इसका बहुत हिस्सा बेकार चला जाता है और जाते जाते तकलीफ दे जाता है. 
अब आप कहेंगे कि इतना प्रवचन आप किसको सुना रहे हैं या फिर अपना सर्टिफिकेट खुद क्यों दे रहे हैं तो मान लीजिए कि बस यूं ही. जी में कुछ बातें बैठी रहती हैं, मन करता है किसी से साझा करुं - कह नहीं पाता. कभी-कभी तेज बारिश खिड़की के बाहर दिखती है - मन करता है झूम झूम भीगूं. ऐसा कर नहीं पाता. कभी कभी शाम इतनी खामोश और खूबसूरत होती है कि कहती है कुछ ना करो, बस किसी के साथ निकल चलो- निकल नहीं पाता. कुछ अच्छा लगता है तो दिल चाहता है इस अच्छे के अहसास में कोई शामिल होता - हो नहीं पाता. जीवन में बहुत कुछ होते रहने के बावजूद बहुत कुछ के ना होते रहने का भी सिलसिला चलता रहता है. इस सिलसिले को कभी-कभी हम समझ पाते हैं लेकिन ज्यादातर दफा ये मर-खप जाता है. मैंे शायद इसको लगातर जीता रहता हूं . इसलिए जो करता हूं उसके बराबर जो नहीं कर पाता वो भी चलता रहता है. और ये रोज का मामला है. आप खुद ही सोचिए ना - चाहते हैं कि ऐसा करूं लेकिन करते करते भी बहुत सारी वजहों से वैसा नहीं हो पाता. इस करने और उस नहीं हो पाने दोनों के बीच आप ही तो हैं. इसलिए चलते दोनों हैं. अब आप किसको याद रखते हैं और किसको भूल जाते हैं ये आपके खुद के नजरिए पर निर्भर करता है. 
मुझे दो बातों से नफरत की हद तक चिढ है. एक है चुगली और दूसरी चाटुकारिता. मुझे दोनों में लिजलिजापन महसूस होता है. ये दोनों कमज़ोर और कमज़र्फ इंसान के साफ लक्षण हैं. वैसे तो अच्छा होने की कोई पहचान नहीं होती लेकिन कुछ बातों से दूर रहें तो आप खराब भी नहीं कहे जा सकते. इतना जरुर है कि आप चाहें तो हर ख़राबी को ख़त्म भी कर सकते हैं. मैं जब नौकरी में आया तो कुछ दिनों बाद सोचा कि दो तीन महीने बतौर ट्रेनी हो गए, अब वीओ करते हैं. लोगों को कम से कम मेरी आवाज तो सुनाई पड़ेगी. जब वीओ बूथ में गया तो वहां जो सज्जन अक्सर रहते थे, जिन्हें हम चाचू कहा करते थे , उन्होंने कई बार टोका और आखिकार कह दिया - यार तुम व्वॉयस ओवर कर ही नहीं सकते, तुम्हारे लहजे में बिहारीपन इतना है कि मज़ाक बन जाएगा. मैं दुखी हो गया लेकिन इसके बाद बाकियों को गौर से सुनने लगा. न्यूज देखता, रिपोर्ट सुनता और फिर वैसा ही बोलने की कोशिश करता . शुरुआत में लगा ये मेरे वश का नहीं लेकिन धीरे धीरे अंदर ये विश्वास मजबूत होता गया कि अगर मैं इतना अच्छा लिख-समझ सकता हूं तो बोल क्यों नहीं सकता. सालभर के भीतर उसी ज़ी न्यूज़ में मेरी आवाज़ दो तीन चुनिंदा आवाजों में शामिल हो गई. मैंने अपनी कमजोरियों से ही सीखा है, इसलिए मेरी गुरु वही हैं. पहले सपाट सीधा कहने में बहुत हिचक होती थी लेकिन अब जो खरा वो सही और जो खोटा उसको तुरंत टोका. 
आपके अंदर का विश्वास और लगातार लड़ते रहने का जज़्बा ही आगे के रास्ते खोलते हैं. इनमें से एक भी छूट जाए तो कामयाब होना मुश्किल है. करियर शुरु हुआ और उसी तेईस साल की उम्र में शादी हो गयी. दिल्ली शहर में दो लोगों का रहना और एक ट्रेनी की बहुत मामूली सी नौकरी . गद्दे,रज़ाई, तकिए चादर के लिये दीवाली के पहले पैसे की जरुरत पड़ी. दो शाम की रसोई चलाने के पैसे तो बचे थे लेकिन इन सब जरुरतोें के लिये कोई रास्ता भी नजर नहीं आ रहा था. तब बेरसराय में रहता था. पत्नी के साथ मुनिरका गया औऱ उन्होंने अपनी दो अंगूठियां बेचीं. ऐसी थी शादी के बाद की पहली दीवाली. पहला बच्चा अबॉर्ट हो गया क्योंकि डाक्टर की फीस और अल्ट्रासाउंड कराने लायक पैसे सिर्फ सैलरी से ही आ सकते थे और उसके आने में तीन दिन बाकी थे. जिस रोज पहुंचा डॉक्टर ने कहा दो दिनों से ब्लीडिंग थीं, आपने देर कर दी. 
जो जीवन दिखता है उसमें इन गहरे दबी, अनकही बातों-घटनाओं की जो भूमिका होती है उसको हम अक्सर भुला देते हैं. लेकिन हमारे आज को इन्हीं बातों-घटनाओं ने तैयार किया होता है. जब शनिवार को चीलों को उड़ते और बादल के छौनों को टहलते देखा तो शाम के नजदीक वाली ऐसी कई दोपहरें याद आ गयीं. कुछ मीठी तो कुछ खट्टी भी. मुझे चढी रात, चढी दोपहरी, फटती भोर हमेशा खींचती रहती हैं. इनमें दिलकश खामोशी होती है. बार बार दिमाग और दिल दोनों तो दावत देती हैं कुछ टटोलने- तलाशने, गुनने-बुनने के लिए. जीवन को समाज की खींची लक्ष्मण रेखाओं में नहीं बांधता लेकिन जीने की अपनी लक्ष्मण रेखाएं जरुर खींचता हूं. बिना सीमा-मर्यादा के इंसान और पशु का अंतर खत्म हो जाता है. लिहाजा इसका रहना जरुरी है. जिस दोपहर में दफ्तर में होने की वजह से लिख नहीं पाया वह आधी रात याद आई और आपके साथ न जाने क्या क्या साझा कर गया. उस वक्त लिखता तो शायद कोई कविता बनती लेकिन आज उसतरफ जाने का मन हुआ ही नहीं. वैसे भी मैंने एक दफा जो लिखा वही पहला और आखिरी लिखा होता है. ना कभी कविताएं काटी-छांटी ना कुछ और. मेरे लिखे में कुछ ऐसा-वैसा लगे भी तो टोकिएगा मत. बहुत निजी और बहुत अंदर की शायद पहली बार लिखी . शुभरात्रि.