पानी पकड़ता हूँ
ख़ुशबू चुनता हूँ
समय थामे रखता हूँ
तुमसे ही जाना
देह में भी उतरता है वसंत
फूटती हैं प्रेम की कोंपलें असंख्य
आत्मा का उत्सव चलता है साँस-सांस
तुम नदी चढ़ी हुई उछाल मारती
लहरों में अनहद उल्लास भरती
तुम्हारी हथेलियों पर रची होती है
मीठी आँच की मेंहदी ख़ुशबूदार
सहलाती रहती हो पूनम का चाँद
निहारती हो मन के मेले को बार बार
मुस्कुराती हो
और अचानक उनींदी रात को गुदगुदा देती हो
उसके आँचल से झड़ते हैं तारे बारम्बार
खिड़की के बाहर रोशनी की लकीर आर-पार
मुरादों की लौटती बारात
खुलते रहते हैं कामनाओं के करोड़ों रंध्र
आसमान होने लगता हूँ
प्रशांत
अनंत.