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सोमवार, 20 जुलाई 2015

साँस साँस उत्सव


पानी पकड़ता हूँ 
ख़ुशबू चुनता हूँ 
समय थामे रखता हूँ 
तुमसे ही जाना
देह में भी उतरता है वसंत 
फूटती हैं प्रेम की कोंपलें असंख्य
आत्मा का उत्सव चलता है साँस-सांस
तुम नदी चढ़ी हुई उछाल मारती
लहरों में अनहद उल्लास भरती
तुम्हारी हथेलियों पर रची होती है
मीठी आँच की मेंहदी ख़ुशबूदार
सहलाती रहती हो पूनम का चाँद 
निहारती हो मन के मेले को बार बार
मुस्कुराती हो 
और अचानक उनींदी रात को गुदगुदा देती हो
उसके आँचल से झड़ते हैं तारे बारम्बार 
खिड़की के बाहर रोशनी की लकीर आर-पार
मुरादों की लौटती बारात 
खुलते रहते हैं कामनाओं के करोड़ों रंध्र 
आसमान होने लगता हूँ 
प्रशांत
अनंत.