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सोमवार, 6 जुलाई 2015

माफीनामा

माफ करना छोड़ने की आदत सी हो गई है
नए पुराने कुछ खुशबूदार लम्हे
तुम्हारी यादों के सिरहाने रह गए होंगे
सहेजकर रख लेना.

अब तो सबसे पहचानी राह पर भी
अक्सर भटक जाता हूं
जैसे चांद भूल जाता है
रोज रात का पता.

मेले के बैल और बाजार के माल सा हो गया हूं
खरीददार टटोलकर देखता है पानी
कितना तकलीफदेह है साबित करना कि
अभी काम का बचा हूं .

पढ़ लेता हूं दफ्तर से घर लौटते लोगों के चेहरे
जरुरत और बची रकम की खींचतान
दुबकती रहती है पहचाने जाने के डर से
जैसे सहमा रहता है शफाखाने से निकलता मरीज.

हां तुम्हारे लिए बेकार बेदाम सही
क्या करुं चाहकर भी फितरत बदलती नहीं मेरी
अब तो शायद मुमकिन भी नहीं बदलना
कभी धूप और हवा का मोल लगाकर देखना.

मैं तुम्हारी पूजा की आरती नहीं
ना ही तुम्हारे भगवान का छप्पन भोग
मैं आदमी की थाली का नमक हूं
पहले ही निवाले में खल जाता है मेरा ना होना.