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रविवार, 19 नवंबर 2017

ग़ज़ल १



ज़िद ही है तो कुछ यूं करो
धूप को मुटठी में बांधा करो
भूख लगकर मिटती भी तो है
जीने के लिए उसे मारा करो
इधर तुम और वो उस किनारे
इक हवा की नाव चलाया करो
दाद देनेवाले हैं बहुत पर कभी
पीठ पीछे खड़ा हो जाया करो
उसकी चूड़ियों में बनारस तो है
तुम मणिकर्णिका आ जाया करो 

सोमवार, 10 जुलाई 2017

टूटना एक नया जन्म भी है



टूटना एक सहज प्रक्रिया है. प्रकृति का नियम भी. जब मैं यह लिख रहा हूं, हर पल, समय की निरंतर धारा से टूट कर अलग हो रहा है. जब आप पढ रहे हैं, कुछ और पल टूट चुके होंगे. हम कहीं बैठें हों या सो रहे हों, लड़ रहे हों या फिर प्रेम कर रहे हों – यह टूटना जारी रहता है. टूटी हुई हर चीज अपनी जगह खाली करती है और वहां कोई और चीज आ जाती है. पेड़ से टूटे पत्ते को देखिएगा. टुकुर टुकुर उस डाल को निहारता रहता है, जहां से टूटा था. पीला होता जाता है. फिर हवा के झोंके उसे उड़ाकर कहीं और लेकर चले जाते हैं. आसपास किसी झाड़-झंखाड़ में फंस भी गया तो नियति उसकी वही है! सूख कर मिट्टी में मिल जाना. उसकी जगह उस डाल पर कोई नया पत्ता आ गया होता है.
अगर आप अपनी यादों को टटोलेंगे तो कोई बचपन की फूलदार कमीज या कोई हाफ पैंट याद आ जाएगी. पहन कर स्कूल जाते थे. नई-नई आई थी तो दोस्तों ने कहा अरे वाह तुम्हारी कमीज तो बहुत अच्छी है! उस कमीज का खयाल भी खूब रखा. लेकिन कद बढ गया, वो कहीं रह गई. हो सकता है मां ने स्टील के बर्तनवाले को देकर नया बर्तन ले लिया हो. लेकिन उसकी याद अचानक आ जाती है. उससे किसी ना किसी वजह से जुड़ाव था. वह कमीज टूटे वक्त का हिस्सा हो चुकी है अब. बस यादों की पगडंडी पकड़ उसतक जा सकते हैं. पकड़ नहीं सकते, देख नहीं सकते. आपके पास नई कमीज आ गई और ऐसी कई कमीजें आप पहनते-उतारते रहते हैं. हां एक ना एक दिन हर कमीज से आपका रिश्ता टूट जाता है. आखिरी वक्त में आप उससे नाता तोड़ निकल जाते हैं.
रिश्तों के साथ भी ऐसा ही होता है. बहुत सारे चेहरे अचानक सामने आ जाते हैं. कोई आदमी आचानक टकराता है. पूछता है- पहचान रहे हैं? बहुत जोर डालने पर भी वह चेहरा किसी बहुत पुराने चेहरे से मेल नहीं खाता. आप उसको देखते रहते हैं, दिमाग यादों के जंगल में उसके चेहरे-सा कोई चेहरा ढूंढता रहता है. कहीं स्कूल में तो नहीं था? या फिर कॉलेज में? हो सकता है किसी शादी ब्याह में कभी मिला हो? उस आदमी को पहचानने की कोशिश करते रहते हैं, उसे देखकर आधी बुझी मुस्कुराहट लिए खड़ा रहते हैं. थोड़ा बाल खुजलाकर, थोड़ा ठुड्डी रगड़कर, हां- हूं में बात जोड़कर, उसके बताने से पहले पहचानकर, एक जीतवाला भाव अनुभव करना चाहते हैं. वह आदमी आपकी जिंदगी का टूटा हुआ हिस्सा है. कभी कहीं साथ बैठा होगा. स्कूल में टिफिन साथ खाया होगा, बरसात में फुटबॉल खेला होगा और गलबहियां डालकर कीचड़ उछाला होगा, कहीं किसी पार्टी में मिल गया होगा और धीरे धीरे अपना सा हो गया होगा, या फिर कोई वह होगा जो बस या ट्रेन में सफऱ में मिल जाता है, यूं ही नजदीकी हो जाती है और फिर मिलेंगे कहकर विदा ले लेता है. लेकिन याद नहीं आ रहा. कुछ चेहरे तो पहचान में रहते हैं, ज्यादातर नहीं. ये आते-जाते चेहरे हैं जो मिलते हैं और फिर टूट जाते हैं. कमीज की तरह. जिस चेहरे को आपने देखा था अब वह वैसा नहीं है और ना तो कमीज वैसी की वैसी रहती है. ये बस पहचान के लिये होते हैं. सब समय हैं.
एक दिन अचानक कोई दोपहर याद आ जाती है और उसके मिट्टी का आधा खंडहर हो चुका मकान भी. किसी कोने में पड़ा बड़ा-सा संदूक और उसके पास घंटो कंचे खेलना. जो साथ में खेल रहे थे, कितने थे? पूरी तरह याद नहीं. अब कौन कहां है? एक दो की जानकारी हो भी, तो बाकियों के बारे में तो वाकई पता नहीं. वो चेहरे नहीं, छूटा हुआ वक्त हैं. भागती हुई जिंदगी में उतने समय के लिये वक्त ने उनसे जोड़कर रखा था. वे कुछ देर चलते रहे, फिर कहीं चले गए. जिंदगी ने आपको मौका नहीं दिया पीछे मुड़कर देखने और पूछ-परख करने का.
जाड़ों मे अलाव किनारे बैठकर बतियाने का फायदा ये होता था कि ऐसी बहुत सारी बातों और लोगों को समय की धूल झाड़-झाड़ याद किया जाता था. बतकहियों में वे उभरते रहते. जाड़ों की बात आई तो मुझे गांती याद आ गई. एक मोटी-सी चादर को माथे पर रखकर नीचे पैरों तक झुला दिया जाता और उसके सिरों को गर्दन के पीछे बांध दिया जाता. मैं सुबह जब भी बाहर निकलता मां गांती डाल देती. मकर संक्रांति यानी हमारे बिहार में खिचड़ी के मौके पर लाई को उसी गांती में लेकर घूरा ( अलाव ) किनारे बैठ खाने और यारों से बतियाने का मज़ा अब भी कहीं गुदगुदा जाता है. उस घूरे में कुछ आलू पका लेते तो कुछ बगल के गढ्ढे से घोंघा पकड़ उसको उसी में कुरकुरा बना लेते. फिर आराम से खाते रहते. ये सब टूटे हुए वक्त हैं- यादों की पगडंडी वहां तक जाती जरुर है लेकिन पकड़ नहीं सकते, देख नहीं सकते. ये घटनाएं या लोग बस वक्त हैं. उनको नाम, पहचान के लिये दे दिया जाता है.
जीवन अपने साथ कई समांतर रेखाएं खींचकर चलता है. बल्कि उनकी गिनती नहीं कर सकते आप. घर-परिवार से लेकर नाते-रिश्ते, प्रेम-घृणा, मतलब-कारोबार वगैरह-वगैरह की लकीरों पर चल रहे सैकड़ों लोग. सबकी जरुरतें, उम्मीदें औऱ उनसे आपका संबंध-साहचर्य. कहीं किसी कोने में बैठकर सोचिए कि कितने लोगों को जानते हैं आप. दिमाग औऱ यादों के पास कोई ऐसा साफ्टवेयर नहीं कि सारे नाम एक साथ याद आ जाएं. धीरे-धीरे आपकी लिस्ट बड़ी होती चली जाएगी. आपको लगेगा अभी तो पता नहीं कितने लोग छूट रहे हैं, जो हैं तो करीब लेकिन याद नहीं आ रहे. जब इत्मिनान हो जाए कि लिस्ट पूरी हो गई- तब भी यकीन नहीं रहेगा कि हां पूरी हो गई. अब देखिए कि इनमें से कितनों से आपने कब से बात नहीं की है. या कितनों को कितने साल से नहीं देखा होगा. लगेगा बहुत करीब ही कई हैं जिनसे हाय हेलो भी लंबे समय से नहीं हुई. ये हमारे रिश्तों की शाखों पर लगे पत्ते हैं. कुछ पता नहीं चलता कब गिर गए और कब उनकी जगह नए रिश्ते उग आए. इन तमाम रिश्तों में सबसे मजबूत प्रेम का रिश्ता होता है. मां का, पिता का, भाई-बहन का, औलाद का और पत्नी-प्रेमिका का. उनके पत्ते रिश्ते की शाखों से नहीं गिरते. अगर गिर भी गए तो उनकी जगह का निशान हमेशा दिखता है. उनका खालीपन नहीं भरता. फिर भी वे टूटते हैं. उनको यहां रहना नहीं है, कोई रिश्ता रहता भी नहीं. वह आपके जाने के साथ टूट जाता है. समय से टूटते पलों की बरसों लंबी कतार में खत्म हो जाता है. जो लोग याद रहते हैं, या फिर जिनको इतिहास, साहित्य, संस्कृति याद रखते हैं – वे लोग नहीं होते. सिर्फ विचार होते हैं. उनके चेहरे नहीं होते. उनके किए-कहे होते हैं. नाम बस पहचान भर के लिये होते हैं. उस पहचान से एक जाति, एक समाज, एक राष्ट्र या फिर एक संस्कृति अपने को जोड़कर अपनी पहचान बचाने की कोशिश करते हैं.
राम, कृष्ण, बुद्द, तुलसी, कबीर , पैंगबर मोहम्मद - अगर अभी कहीं चलने लगें तो कौन पहचानेगा? अब उनके चहरे महत्वपूर्ण नहीं, उनका कहा-किया इतिहास है. हम इतिहास ढोते हैं, इतिहास जीते हैं, इतिहास पहनते और बिछाते हैं, उसके नाम पर अपना पराया तय करते हैं, उसके आधार पर दोस्ती दुश्मनी तय करते हैं. किसी की जीत पर खुश और किसी की हार पर दुखी, इसी इतिहास की वजह से होते हैं. उसका कुछ भी आप नहीं देख सकते लेकिन उसका सबकुछ आपपर हावी होता है. आप समझें या नहीं, मगर वो आपपर सवार रहता है. दरअसल हम टूटे हुए को अपने भीतर भरते रहते हैं और उसके चलते अपने लिये चुनौतियां, परेशानी, मुसीबतें भी खड़ा करते हैं. अगर ठीक से समझें तो यह खाली जो हमारे भीतर भरा रहता है उसके चलते भी हम बहुत कुछ बड़ा कर लेते हैं. इसको आप स्वाभिमान, अस्तित्व, प्रेरणा जैसे शब्दों से जोड़ सकते हैं. टीम इंडिया की जीत पाकिस्तान पर होती है तो सारा देश झूमता रहता है. ऐसी खुशी किसी और जीत पर नहीं मिलती और ना ही टीम के भीतर वैसी आग किसी औऱ लड़ाई में दिखती है. यह हमारा टूटा हुआ समय है जो जुनून भर देता है. कोई अपने प्रेम के चलते कई सफलताएं हासिल कर लेता है, कोई दर्द को हथियार बनाकर वो कर गुजरता है जो शायद यूं उसके वश में नहीं था. हां, तो हम इतिहास या टूटा हुआ वक्त लिए चलते हैं- हर वक्त. वह हमारा धर्म तय करता है. धर्म यानी हम जो हैं. हम जो सोचते हैं और करते हैं. जैसे-जैसे हमारे अंदर वह टूटा हुआ बदलता रहता है- हम बदलते रहते हैं. यानी हमारे धर्म का कोई धर्म नहीं है. जिसके बारे में कल अच्छा सोच रहे थे उसके बारे में आज बहुत गलत सोच लेते हैं- यह उस टूटे हुए का ही दिया हुआ है. फिर भी, इस टूटन से ही जीवन है. इतिहास है. विचार है और विकार भी. प्रेम है औऱ घृणा भी. कल है और आज भी.

रात के आखिरी पहर का राग



कभी रात के आखिरी पहर में जगे हैं? मैं उनलोगों से नहीं पूछ रहा जो जगते ही हैं, बल्कि मेरा मतलब उनलोगों से है जो किसी वजह से बस जग गए. मसलन, वॉशरुम जाना था या कोई बर्तन गिर गया या तेज़ हवा ने खिड़की का पल्ला पटक मारा या फिर ऐसी किसी भी वजह से. थोड़ी देर में लगता है अब सोना नहीं चाहिए. हवा हल्की ठंड लिए आहिस्ता आहिस्ता चल रही है, आसमान एकदम साफ जैसे एक एक तारा गिन लो, चांद मानो बस नहाकर निकला है – आप सोचते हैं अब नहीं सोना है. ऐसा कहां मिलता है देखने को, निहारने को. आप बालकनी में आ जाते हैं या छत पर चले जाते हैं या फिर बाहर निकल जाते हैं. कहीं से कोई आवाज़ नहीं आती. कहते हैं आवाज़ें कभी खत्म नहीं होतीं. वे जिंदा रहती है इसी ब्राम्हांड में. अनंत से जो कुछ आवाज़ बनकर निकला वह आज भी है. जो चीजें कभी नहीं बोलतीं, हम मान लेते हैं उनकी आवाज़ नहीं होती. लेकिन होती है. पेड़ों से हवा गुज़रती है या फिर पहाड़ों पर आंधी चलती है- तब आपको उनकी आवाज़ सुनाई देती है. पहाड़ की अपनी आवाज़ होती है, पेड़ों की अपनी. जैसे पानी की अपनी और आंधी की अपनी. किसी की आवाज़ एक-दूसरे से नहीं मिलती. विज्ञान इस बात पर शोध कर रहा है कि क्या किसी ने कभी कुछ कहा और वह रिकार्ड नहीं है तो उसे वापस सुना जा सकता है?
रात के चौथे पहर में आप बस यूं ही जग गए होते हैं और फिर नहीं सोने की सोच चुके होते हैं- हवा, आसमान, तारे, चांद में उलझे होते हैं, उस वक्त ये सारी आवाजें शायद सो रही होती हैं. ये वो वक्त होता है जब आपको हर सोती हुई चीज़ अच्छी लगती है. लेकिन यही वक्त आवाजों के जगने का भी होता है. कुछ लोग जगने का नाता ऐसी ही आवाज़ों से जोड़कर रखते हैं. दूर से गुज़रती ट्रेन की आवाज़, मंदिर में घंटी की आवाज़ या मस्जिद में अज़ान की- बहुत सारे लोगों की नींद अपना बिस्तर इन्हीं के चलते समेटती है. आवाज़ें जग रही होती हैं. दिन और रात की संधि का पहर है यह. इस समय आसमान का रंग तेजी से बदल रहा होता है. कहते हैं हवा सबसे ताज़ा इसी पहर में होती है. आयुर्वेद के मुताबिक इस समय अगर आप तांबे के बर्तन में रातभर रखा पानी नियमित पीते हैं तो पेट और खून के रोग नहीं होते. और भी कई फायदे हैं इसके. आयुर्वेद की भाषा में इसे उषा पान कहते हैं. योग भी इसी समय जगने की सलाह देता है. और आप बस यूं ही जग गए होते हैं. हवा, आसमान, तारे, आसमान में खो से गए होते हैं.
कभी इसी समय जयशंकर प्रसाद भी जगे होंगे. लिखा होगा- बीती विभावरी जाग री! अंबर पनघट में डुबो रही तार-घट ऊषा नागरी!. भव्य आकर्षण होता है इस पहर में. अगर प्रेम दिखता तो शायद ऐसा ही होता. प्रेम करने का भी शायद इससे खूबसूरत कोई पहर नहीं होता होगा. इसीलिए हमारे यहां अलग-अलग पहर के अलग- अलग राग भी बनाए गए और रात के आखिरी पहर के लिए जो राग रचे गए, उनमें एक अलौकिक दिव्यता महसूस होती है. राग भैरव सुनिए कभी. या राजकपूर की फिल्म जागते रहो का गाना “जागो मोहन प्यारे” सुनिए. राग भैरव पर ही सलिल चौधरी ने इसे सजाया था. तब तो शंकर जयकिशन के साथ राजकपूर की जोड़ी जम गई थी, लेकिन एक खास सिचुएशन के लिये जो गाना चाहिए था उसकी समझ सलिल चौधरी को ही थी, ये राजकपूर जानते थे. जिन गीतों में वक्त को बांधने की ज़रुरत रखी गई, उनको साधने में सलिल चौधरी बेमिसाल रहे. मेरा एक पसंदीदा गाना है- कहीं दूर जब दिन ढल जाए, सांझ की दुल्हन बदन चुराए. इसको भी सलिल चौधरी ने ही संगीत दिया. सुनिएगा तो लगेगा कि दिल से निकला हुआ कुछ दूर तक बस चला जा रहा है. यह गाना भी दो पहरों के संधिकाल पर है. जैसे अभी हम ठहरे हुए हैं- रात और दिन के मिलन के नज़दीक. हवा, आसमान, तारे और चांद में उलझे हुए. आवाजें जाग रही हैं. जानते हैं जब 24 घंटे पहरों में बांटे गए होंगे तो सबसे पहले रात के आखिरी पहर को ही रखा गया होगा. आठ पहरों में दिन रात – तीन घंटे या सात घटी का एक पहर. घटी मतलब 24 मिनट. हर घटी या पहर की अपनी तबीयत और तासीर होती हैं. मूड भी उनके मुताबिक बदलता या बनता है. इच्छा, अनिच्छा भी कभी-कभी पहरों के मुताबिक पैदा होती रहती है. इस समय यानी रात के आखिरी पहर में, भोर के किनारे, सिर्फ प्रेम-सा कुछ रहता है. अलौकिक, दिव्य, अनंत, प्रशांत. ये शायद उनको कम समझ में आता होगा जो आदतन इस समय जागते हैं. इसीलिए मैंने पहले ही कहा कि मेरा मतलब उनलोगों से है जो बस जग गए. सोने जागने की आवारगी कभी कभी यूं भी कुछ दे जाती है.
मेरे मित्र अभिसार शर्मा ने आज अकबरुद्दीन ओवैसी के बयान पर एक पोस्ट लिखी और कहा कि "आखिर क्या गलत कह दिया अकबरुद्दीन ने? हां, उन्होंने बहुत इज्जत के साथ संबोधन नहीं किया" . अभिसार काफी सुलझे और पक्षपात से खुद को दूर रखने की कोशिश करनेवाले पत्रकार हैं. हमारी दोस्ती काफी गहरी है. लेकिन मुझे लगा यहां कुछ कहना जरुरी है. रात में अक्सर १२.३०- १ बजे तक पढने के बाद सोशल मीडिया का मुआयना करने आता हूं. सरसरी तौर पर देख-सुन कर चला जाता हूं. इसी क्रम में अभिसार की पोस्ट से टकरा गया और धक्का सा लगा!
सवाल ये है ही नहीं कि अकबरुद्दीन ने सम्मान-सूचक शब्द लगाए या नहीं. सवाल ये है कि देश के प्रधानमंत्री के लिये वह क्या कह रहे हैं? इससे बड़ी बात ये कि क्या अकबरुद्दीन को भी हम इतना वजनदार नेता मान लें कि उनके कहे-किए को सही गलत के चश्मे से देखने की कोशिश करें? कौम के नाम पर दो कौड़ी की राजनीति करनेवाले ऐसे नेताओं ने समाज और देश में सिर्फ ज़हर बोया है. ये दोनों तरफ है. अगर अकबरुद्दीन सही है तो कल कोई और साक्षियों, प्राचियों, तोगड़ियों को भी सही ठहराएगा. किसी भी नेता/पार्टी( कथित तौर पर भी अगर है तो) की राजनीति में फायदे का हिसाब-किताब होता ही है. मगर वह फायदा समाज और देश के बुनियादी ढांचे को चरमराने या फिर तोड़ने लगता है तो स्थिति खतरनाक होने लगती है. अकबरुद्दीन, जुनैद खान या पहलू खान या फिर अखलाक की चिंता नहीं कर रहे. उन्हें, उनकी मौत में फिरकापरस्ती के मजबूत होने की उम्मीद दिख रही है. बंद कमरे में ऐसे लोगों के होठों पर एक टेढी मुस्कान तैरती है, जो आम आदमी नहीं देख पाता. अगर अकबरुद्दीन की तरह के लोग ही हमारे देश के मुसलमानों के रहनुमा बन जाएं या फिर तोगड़िया जैसे लोगों में हिंदुओं को अपना खेवनहार दिखने लगे, तो देश विनाश के मुहाने पर खड़ा होगा. ऐसा होगा नहीं, क्योंकि इस देश की तहज़ीब और तासीर दोनों अकबरुद्दीनों और तोगड़ियों के खिलाफ हैं. मेरे लिए ये महज दो नाम नहीं हैं, बल्कि ज़हरीली सोच की दो जमातें हैं. अकबरुद्दीन ने जब दिसंबर २०१२ में आदिलाबाद की रैली में कहा था कि - "तुम सौ करोड़ हो ना और हम पच्चीस करोड़? १५ मिनट के लिये पुलिस हटाकर देख लो हम बता देंगे किसमे कितना दम है" . जानते हैं उसके करीब डेढ महीने बाद हैदराबाद के पास प्रवीण तोगड़िया की एक रैली थी. उसमें तोगड़िया ने अकबरुद्दीन का नाम नहीं लिया लेकिन कहा कि - " एक कहता है, पुलिस हटा लो, मैंने कहा 20 साल में जब-जब पुलिस हटी है, तब का देश का इतिहास देख ले। अगर तुझे पता नहीं है, तो आईने में इतिहास दिखा दूं।' तोगड़िया ने पिछले 20-25 साल में हुए दंगों का हवाला देते हुए कहा कि हमें चुनौती न दें।"
दोस्त! क्या कोई फर्क दोनों बयानों में है? ये एक धर्म के अस्तित्व और अभिमान के नाम पर लोगों को दिमागी तौर पर अपाहिज करने का खतरनाक खेल खेलनेवाले लोग हैं. ये एक-दूसरे को गाली नहीं देते. ये कौम को कौम से लड़ाने की साजिश करते हैं. ओवैसी परिवार की शानो शौकत और लाव-लश्कर कभी देख आओ. और हां तोगडिया जैसों का गुप्त राज समझ आओ. आपकी सोच की बुनियाद में इंसान, इंसानियत और नागरिक है ही नहीं तो फिर आपके कहे किए में कुछ अच्छा होगा, ये संभव ही नहीं. इसलिए अकबरुद्दीन कुछ भी कहें, हम उनको जैसे ही सही ठहराने की कोशिश करेंगे , हम खुद को किसी खाने-खांचे में अकारण ही खड़ा कर लेंगे. यह हमारे वह होने पर सवाल है, जो होने का दावा हम करते हैं या फिर ऐसा मानते हैं.
मेरा एक निजी अनुभव है. नींद आ रही है लेकिन चाहता हूं साझा कर लूं. बिहार के २०१५ के चुनाव थे. अक्टूबर का पहला हफ्ता रहा होगा. एक शो के लिये किशनकंज में था और उसी दिन अकबरुद्दीन भी वहां थे. दिन में उन्होंने मोदी के लिये उस रोज भी अपशब्द कहे थे. उनकी आदिलाबाद की रैली के समय मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे और किशनगंज की रैली के समय प्रधानमंत्री. जुबान बिना लगाम चली थी. शैतान, हत्यारा और पता नहीं क्या क्या. रात में मुझे पूर्णिया निकलना था तो सोचा क्यों ना मिलता चलूं. जिस होटल में अकबरुद्दीन ठहरे थे, वहां गया. एक कमरे में कुछ लोग बैठे थे, उनको मैंने बताया कि मैं फलां हूं और मिलना चाहता हूं. कहा गया - आप बैठ जाइए, उनको हम बता देते हैं. जिन लोगों के बीच मैं बैठा था, उनमें से किसी से भी अच्छा इंसान होने के संकेत नहीं मिल रहे थे. उनके बीच बैठना भारी हो रहा था. तभी कोई कमरे में आया- आप आ जाइए. मैं उस कमरे में गया जिसमें अकबरुद्दीन थे. कुर्ता पायजामा में खाने की तैयारी कर रहे थे. दुआ-सलाम के बाद बोले - आइए ना साथ ही खा लेते हैं. मैंने कहा - नहीं, मैंने अभी खाना खाया है, आप खा लें. वैसे मैं चाहता हूं कि आप थोड़ी देर कैमरे पर बात कर लें, आज की रैली औऱ बाकी बिहार के चुनावों को लेकर- मैंने लगे हाथ कह डाला. बोले भाई जान कैमरे पर अभी कुछ मत कहलवाइए. चुनाव के बाद ज़रुर बात करुंगा. मैंने कहा - ये जो आप आज रैली में कह रहे थे उससे आपको क्या मिलेगा? सर, यही तो आप नहीं समझ सकते- अकबरुद्दीन ने कहा. एक टेढी मुस्कान उनके चेहरे पर थी औऱ आंखें मुझसे कुछ दूर पर खड़े दूसरे इंसान की तरफ. मैंने उसे देखा. वह भी वैसे ही मुस्कुरा रहा था. ये बंद कमरों की मुस्कुराहटें थीं. ये इंसान के आंसुओं की वजहें ढूंढती हैं. उसके खून-खराबे का माल तैयार करती हैं. ये दोनों तरफ होती हैं. ऐसी मुस्कुराहटों को सजानेवालों के हक में कुछ भी बोलना, अपनी साख पर अनजाने में ही सही, सवाल खड़ा करना है. शुभ रात्रि

गुरुवार, 16 मार्च 2017

आप का "राजनीति" शास्त्र और पंजाब के सबक
अरविंद केजरीवाल की राजनीति के लिये पंजाब एक बड़े सबक की तरह है. गोवा में उम्मीदों के ज्वार का उठना और नतीजे में उनके भाटे की तरह गिरना जमीनी सच्चाई से दूर नहीं था, लेकिन पंजाब में चीजें बिल्कुल अलग थीं. आम आदमी पार्टी ने पंजाब में पिछले डेढ दो साल में जमीनी स्तर पर बहुत काम किया. लोगों में यह भरोसा पैदा कर दिया गया कि पंजाब का अगर कायाकल्प करना है तो "बादलों" को उखाड़ फेंकना होगा. केजरीवाल बार-बार यह भी कहते रहे कि "बादलों" और कैप्टन में अंदरखाने हाथमिलाई है. दोनों मिले हुए हैं. इनसे बचकर. सरकार से लोगों की बेहिसाब नाराज़गी ने आम आदमी पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं को गांव, कस्बा, शहर में जगह दिला दी. लोगों को ये लगने लगा कि अपना सब छोड़ छाड़कर पंजाब मे डेरा डाले हजारों लोग हमारी बेहतरी चाहते हैं, इनके साथ खड़ा होना चाहिए. लेकिन नतीजे आए तो कांग्रेस को प्रचंड बहुमत और आप से ज्यादा वोट शिरोमणि अकाली दल को मिला. "आप" को सीटें भले ज्यादा मिलीं लेकिन वोट उसे मिले २३.७% ही मिले जबकि अकाली दल को २५.२%. ऊपर से जिस विक्रम मजीठिया को ड्रग्स के मामले में चारों ओर से घेरा गया और पंजाब के नौजवानों को नशाखोर बनाने का सीधा सीधा आरोप लगाया , वह मजीठिया जीत गए. प्रकाश सिंह बादल और सुखबीर बादल भी जीत गए. यानी केजरीवाल के कैंपेन से सारे कल-पुर्जे खुलकर बिखर गए. जिस पंजाब से जीतकर केजरीवाल देश की राष्ट्रीय राजनीति में एक बड़ी ताकत बनने के सपने देख रहे थे, उस पंजाब ने दिन में तारे दिखा दिए. सवाल ये है कि ऐसा क्यों हुआ?

इसकी चार-पांच बड़ी वजहें हैं. केजरीवाल ने आखिर तक यह साफ नहीं होने दिया कि पार्टी अगर जीतकर आती है तो मुख्यमंत्री कौन होगा? यह बात मतदान तक चर्चा में रही कि पंजाब में कहीं कोई गैर पंजाबी या बाहर से आया आदमी शासन तो नहीं करने लगेगा! पंजाब और बंगाल ये दो ऐसे राज्य हैं जिनमें स्थानीयता और जातीयता से गहरा जुड़ाव रहता है और सांस्कृतिक पहचान को बनाए-बचाए रखने की चिंता भी लोगों में उतनी ही मजबूत रहती है. पंजाब में दिल्ली की तरह सिर्फ केजरीवाल को ही प्रोजेक्ट किया गया. हिंदी बोलनेवाला हरियाणा का आदमी जो दिल्ली का मुख्यमंत्री है. दो सिख पार्टी की तरफ से मजबूत चेहरे के तौर पर उतारे गए थे. वे थे एच एस फुल्का और जरनैल सिंह . दोनों दिल्ली के थे. यानी लोगों को ये समझ नहीं आ सका कि अगर वोट दोगे तो पंजाब की पहचान और परेशानी समझनेवाला ऐसा कौन होगा जिसको सीएम बनाया जाएगा. केजरीवाल की पहली मात यहीं हुई.
चुनाव आते-आते केजरीवाल के बारे में कुछ हद तक ये राय बन चुकी थी कि यह आदमी खालिस्तान समर्थकों के साथ भी उठ बैठ सकता है. बादल और कैप्टन अमरिंदर अपनी रैलियों में लगातार ये आरोप लगाते रहे कि केजरीवाल की खालिस्तान के पूर्व आतंकियों से नजदीकियां हैं, लेकिन केजरीवाल इसको मजबूती से काट नहीं पा रहे थे. कनाडा ,आस्ट्रेलिया और यूरोप के देशों से जो एनआरआई आकर पंजाब में डेरा डाले हुए थे, उनको लेकर शक बढने लगा था. सच यही है कि आज भी खालिस्तान की मांग के साथ जो लोग देश से बाहर रह रहे हैं वे इन्हीं देशों में हैं. ऊपर से भटिंडा के मौड़ में कांग्रेस उम्मीदवार के रोड शो में धमाका हो गया. तीन लोग मारे गए, बारह घायल हो गए. इससे कुछ ही रोज पहले पहले लुधियाना में एक हिंदू नेता की हत्या कर दी गई थी.

मौड़ ब्लास्ट के ठीक पहले केजरीवाल खालिस्तान कमांडो फोर्स के पूर्व आतंकी गुरिंदर सिंह के घर रुके थे. हालांकि उस घर में किराएदार रहते हैं और केजरीवाल वैसे ही एक समर्थक किराएदार के यहां रुके थे, लेकिन उनके पास गेस्टहाउस या फिर कई दूसरी जगहों पर रहने का विकल्प था. वे नहीं रुके. इस बात को सुखबीर बादल ने अपनी रैलियों और सभाओं में जोर शोर से उठाया कि ये आदमी आंतकियों का समर्थक है और बब्बर खालसा से जुड़ी संस्था अखंड कीर्तनी जत्थे के आरपी सिंह के साथ ब्रकफास्ट भी कर चुका है. पंजाब, १५ साल तक आतंक की मार झेलने के बाद अब उसके नाम से ही दहल जाता है. राज्य में खालिस्तान अब कोई मुद्दा ही नहीं है. दहशतगर्दी की दो घटनाओं के बाद लोगों को केजरीवाल की सरकार के आने की सूरत में खालिस्तानियों के सक्रिय होने का डर सताने लगा. आम आदमी पार्टी के लिये ये बड़े नुकसान की वजह बना.

केजरीवाल की जो राजनीति है, वह स्वस्थ्य और समझदार लोकतंत्र के लिहाज से अच्छी नहीं है. पार्टी मतलब केजरीवाल, सरकार मतलब केजरीवाल, चेहरा मतलब केजरीवाल और भविष्य मतलब केजरीवाल. मजबूत सांगठनिक ढांचे और लंबे संघर्षों के अनुभव से नहीं उपजी पार्टी में एक व्यक्ति के आसपास सबकुछ खड़ा कर दिया जाना, पार्टी की संभावनाओं को गिरवी रखने जैसा है. यह पहले से होता रहा है. केजरीवाल के मुख्यमंत्री बनने के बाद जिसतरीके से योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण की टीम को निकाल फेंका गया या फिर उससे पहले जस्टिस संतोष हेगड़े, एडमिरल रामदास, मधु भादुड़ी जैसे लोगों को चलता कर दिया गया, उसने संकेत यही दिया कि केजरीवाल को रोकनेवाले हर आदमी की जगह पार्टी से बाहर ही है. पंजाब में कन्वीनर सुच्चा सिंह छोटेपुर के साथ भी ऐसा हुआ. उन्होंने पार्टी हाईकमान पर आरोप लगाया कि प्रदेश की इकाई पर संजय सिंह और दुर्गेश पाठक जैसों को थोपा जा रहा है. बाहर के लोग यहां सब तय कर रहे हैं. बजाय इसके कि ऐसे नाजुक मामले को मुलायमियत से हैंडल किया जाता, पिछले साल सितंबर में सुच्चा सिंह को पार्टी से निकाल दिया गया. यह ठीक वैसे ही था जैसे केजरीवाल ने पंजाब से अपने दो सांसदों - पटियाला के धर्मवीर गांधी और फतेहगढ साहिब के हरिंदर सिंह खालसा को निकाला था. उन दोनों ने पार्टी हाईकमान पर अलोकतांत्रिक होने का आरोप लगाया था और "आप" ने उन्हें पार्टी विरोधी गतिविधि के आरोप में दरवाजा दिखा दिया. सुच्चा सिंह का जाना उसी तरह की कार्रवाई का नतीजा था. उनके साथ कई दूसरे लोग भी गए, लेकिन आम आदमी पार्टी को इसकी परवाह इसलिए नहीं थी क्योंकि पार्टी के अंदर लोग बड़ी तादाद में आ रहे थे. आनेवालों से ज्यादा अहम जानेवाले होते हैं- यह बात समझना बहुत जरुरी है. जानेवाले आपकी तमाम कमजोरियों और नाकामियों की पूरी जानकारी के साथ जाते हैं. जब वे बाहर चीजें मजबूती से रखते हैं तो लोगों की राय बदलती है. सुच्चा सिंह भले ही चुनाव बुरी तरह हार गए लेकिन वे और उनके साथ गए लोगों ने जो सवाल उठाया और आम आदमी पार्टी के बारे में जो कुछ भी कहा उससे पार्टी के बारे में लोगों की राय, थोड़ी ही सही लेकिन बदली.
अरविंद केजरीवाल को ये समझना होगा कि दिल्ली के फॉर्मूले को देश में लागू नहीं किया जा सकता. दिल्ली डायलॉग का पंजाब डायलॉग विकल्प नहीं हो सकता. हरियाणा का केजरीवाल दिल्ली का मुख्यमंत्री तो बन सकता है लेकिन कोई भी दिल्लीवाला पंजाब का मुख्यममंत्री नहीं बन सकता. खुद को चमकाकर कुछ वक्त के लिये पार्टी या सरकार तो चलाई जा सकती है लेकिन लंबे समय के लिये विश्वसनीयता हासिल करना जरुरी होता है. अगर अन्ना हजारे से लेकर योगेंद्र यादवों और प्रशांत भूषणों की जमात हर जगह आप पैदा करते चलेंगे तो लोग आपको आसानी से समझ जाएंगे. आप ६ साल पहले एक आंदोलन के संयोग से पैदा हुए हैं. आप ना तो कोई करिश्माई नेता हैं, ना ही देश की जमीनी समझ आपको उतनी है. ऐसे में पार्टी के नेताओं का आधार जितना बढेगा, उनका कद जितना बढेगा और उनकी ईमानदार राय को आप ईमानदारी से जितना सुनेंगे समझेंगे- पार्टी और सत्ता की सेहत के लिहाज से उतना ही बेहतर होगा. कभी कभी अपना उल्लू सीधा करने के चक्कर में आदमी खुद उल्लू बन जाता है- सिद्दू को बीच मंझधार में डालकर "आप" ने ऐसा ही किया. लिहाजा राजनीति में कुछ संयम, कुछ समझदारी, कुछ दबाव-दबंगई और कुछ मेलजोल बहुत जरुरी होते है. लोकतांत्रिक व्यवस्था में कामयाबी के लिये नायक तो चाहिए लेकिन बाकी जरुरी बातों पर भी उतना ही जोर होना चाहिए. गोवा आपके गड़बड़झाले का नतीजा है और पंजाब आपकी राजनीतिक सूझबूझ की कमी और केजरीवाल मार्का अड़ियलपन का सबूत.

रविवार, 12 मार्च 2017

उत्तर प्रदेश का जनादेश और मोदी होने के मायने
उत्तर प्रदेश से जो जनादेश है उसका चाहे जितना पोस्टमार्टम कर लें, खुद बीजेपी के लिये भी ये समझ पाना मुश्किल है कि ऐसा हुआ कैसे! लेकिन सुनामी आई और इसने कई जकड़बंदियों, राजनीतिक रिवाजों , फरेब के हवाईकिलों और बेहूदगियों-बदज़ुबानियों को ध्वस्त कर दिया. सामाजिक न्याय के नाम पर जातियों को अपनी जागीर बनानेवाले नेताओं के लिये ये जनादेश एक सबक है. कानून-व्यवस्था और सड़क-बिजली जैसी बुनियादी जरुरतों की जगह एक्सप्रेस-वे और स्मार्ट फोन देने की राजनीति के लिये ये जनादेश एक सबक है. दलितों के नाम पर लगातार मालदार-महलदार होते जाने और हाशिए पर खड़े समाज के भविष्य को बाबा साहेब और हाथियों की मूर्तियों से जकड़ देने के खतरनाक खेल के लिये ये जनादेश एक सबक है. और यही सारे सबक मोदी या फिर यूपी की नई सरकार के लिये संदेश भी है. संदेश, विरोध की बेलगाम-बदजुुबान राजनीति करनेवाले लोगों और किसी पार्टी या विचारधारा (वैसे ये बस कहने के लिये है) की पट्टी बांधे पत्रकारों के लिये भी है.
सच ये है कि मोदी अब एक ब्रैंड में बदल गए हैं. बाजार में आप कोई उत खरीदते हैं और समान तरह के उत्पादों के बीच सबसे ज्यादा अगर किसी उत्पाद पर विश्वास करते हैं तो सिर्फ इसलिए कि आप इस्तेमाल करते करते, विज्ञापनों और लोगों की बातचीत के जरिए ये भरोसा कर लेते हैं कि यही उत्पाद सबसे विश्वसनीय है. फिर वो ब्रांड हो जाता है. मोदी एक ब्रांड हो गए हैं. लोगों को उनपर भरोसा हो चला है. इसीलिए अगर वो कहते हैं कि नोटबंदी मैंने सिर्फ इसलिए की कि ये जितने कालेधन वाले और हराम की कमाई कर कोठी-अटारी भरनेवालों को सबक सिखाऊं तो लोग तालियां बजाते हैं. साठ दिन तक हलकान रहने, लाइन में खड़ा होकर परेशान रहने के बावजूद उबाल नहीं पैदा होता. जन-धन खाते खुलवाने के पीछे गरीब से गरीब को सरकार की योजनाओं से जोड़ने और बीमा से लेकर मुआवजे तक से सीधे जोड़ने की बात मोदी कहते हैं तो लोगों को लगता है कि कुछ नया तो ये आदमी कर ही रहा है. श्मशान कब्रिस्तान की बात मोदी जब करते हैं और कहते हैं कि तुष्टिकरण की नीति नहीं चलनी चाहिए, सबके साथ बराबर का व्यवहार होना चाहिए तो सेक्लूयरिम के नाम पर बहुसंख्यकों को हाशिए पर डालने की राजनीति लोगों को समझ में आने लगती है. ऐसा नहीं कि कोई दूसरा नेता इन बातों को नहीं कहता है या फिर नही कहा है, लेकिन मोदी पर लोग भरोसा सिर्फ इसलिये कर रहे हैं कि उन्होंने खुद को एक ब्रैंड में बदल लिया है. ये एक प्रक्रिया है जो धीरे-धीरे चलती रहती है और लोगों के दिल-दिमाग में बदलाव आता रहता है. परसेप्शन और ब्रैंडिग की फिलॉसोफी ही यही है. आप अपनी बात को किस तरह से रखते हैं, लोगों की जरुरत और उम्मीदों पर कितना खरा उतरते हैं और मुकाबले में चल रही संस्थाओं-मान्यताओं को कितना ध्वस्त करते हैं. मोदी तीनों मोर्चों पर लगातार काम करते रहे हैं. चाहे विदेशों में जाकर बड़े बड़े इवेंट खड़ा करना हो, म्यांमार में अंदर जाकर उग्रवादियों के ठिकानों को ध्वस्त करना हो, पाकिस्तान में घुसकर आतंकियों के कैंप खत्म करना हो, उज्ज्वला योजना के जरिए घर घर तक गैस सिलेंडर पहुंचाना हो, बिचौलियों का धंधा बंदकर हजारों करोड़ बचाने का एलान करना हो, जनता का पैसा लेकर बैठे नेताओं-पूजीपतियों को ना छोड़ने का शंखनाद करना हो, मैं आपका ऐसा प्रधानसेवक हूं जिसने आजतक आराम नहीं किया- ये याद दिलाना हो और ऐसी दर्जनों बातें आम, आदमी के दिमाम में मोदी के लिये एक अलग छवि तैयार करती रहीं. मोदी को फोकस कर नारे गढने और विज्ञापन तैयार करने की योजनाएं भी इस इमेज को मजबूत करती हैं. पिछले पौने तीन साल में मोदी और उनकी टीम ने नरेंद्र दामोदर दास मोदी की पूरी इमेज की जबरदस्त ब्रैंडिग कर दी.
आप क्या कहते हैं ये समझना बड़ा जरुरी है और बारीकी से समझना होगा. मोदी जब कहते हैं कि मेरा मालिक कोई नहीं है, मुझे किसी को जवाब नहीं देना है- मेरे मालिक आप हैं, मैं आपको जवाब देने के लिये हूं तो लोग गदगद हो जाते हैं. बनारस में वे कहते हैं मैं आपके दर्शन करने आया हूं तो लोगों के दिल पसीजता है. रैलियों में मोदी याद दिलाते हैं कि मैं यहां तब आया था और उस समय इतनी भीड़ थी, आज इतना बदला है भाई- कुछ होनेवाला है. ऐसी बातें चर्चा में आती है कि देखो पीएम होने के बाद भी कितना ध्यान रहता है इस आदमी को. दरअसल यह काम टीम करती है और लोगों में ऐसी ही बातों की चर्चा चलवाने के लिये बनाती है ताकि ब्रैडिंग की प्रक्रिया चलती रहे. लोगों की नेताओं, राजनीति औऱ शासन के बारे में राय बदलती रहे. इन तमाम मोर्चों पर देश के दूसरे नेता मोदी से कोसों दूर दिखते हैं. नतीजा ये है कि आज लालू- मुलायम की लाठी, लठैतों और जाति की जहरीली राजनीति लोगों को रास नहीं आ रही क्योंकि नौजवान ६५ फीसदी हैं और ये नए नजरिए की पीढी है. अखिलेश और राहुल नौजवान जरुर हैं लेकिन नौजवानों की पसंद-जरुरतों पर मोदी ज्यादा फिट बैठते हैं. वे साफ सुथरी राजनीति, करप्शन फ्री सिस्टम, बहाली और तरक्की की पारदर्शी व्यवस्था, जवाबदेह नौकरशाही और दुनिया में हिंदुस्तान की साख मजबूत करने की जो बात करते हैं- वह नौजवानों को रास आती है. यह पीढी हुल्लड़बाजों-लफंगो की भीड़ लेकर चलनेवाले और सनसनी पैदा करनेवाले काफिलों पर इतरानेवाले नेताओं को अब खारिज करने लगी है. अब डिलिवरी चाहिए, डेडिकेशन चाहिए और यही मोदी के लिये चुनौती है जिसका अंदाजा उन्हें बाकायदा है. मोदी के आसपास कोई नेता आज की तारीख में साख और सलीके के नजरिए से दिखता है तो वो नीतीश कुमार हैं लेकिन उनमें वो डायनामिज्म नहीं है जो मोदी में है. मोदी रिस्क लेते हैं और यह लोगों को पसंद आता है. बनारस में बीजेपी की हालत पतली थी. श्यामदेव राय चौधरी को टिकट नहीं देने का मामला जिले में बीजेपी नेतृत्व पर सवाल उठा रहा था. मोदी ने अपने गढ मे तीन दिन ताकत झोंक दी और नतीजा ये कि सभी सीटें निकाल गए. उत्तर प्रदेश में २१ रैलियों के जरिए मोदी १३२ सीटों तक पहुंचे और इनमें ९६ सीटें बीजेपी जीत ले गई. मायावती लगातार कहती रहीं कि मुसलमान बीेएसपी को वोट दें और उन्होंने १०० मुसलमान उम्मीदवार उतारे भी. दूसरी तरफ अखिलेश ने कांग्रेस से हाथ ही इसलिए मिलाया कि मुस्लिम वोट को बीजेपी के खिलाफ लामबंद किया जा सके. लेकिन हुआ ये कि वैसी १३४ सीटें जिनपर मुस्लिम मतदाता २० फीसदी या फिर उससे ज्यादा है, बीजेपी करीब सौ सीटें जीत गई. कुछ लोगों की राय में मुस्लिम महिलाओं ने मोदी का साथ तीन तलाक पर सरकार के विरोध के चलते दिया. उनका करीब १५ फीसदी वोट बीजेपी को मिला. लेकिन वजह ये नहीं है. वजह ये है कि जहां मुस्लिम ज्यादा है, वहां मोदी और उनकी टीम ने तुष्टीकरण की नीति को हवा दी. लगे हाथ इस बात को भी मजबूती से रखा कि विरोधियों ने आजतक बहुसंख्यकों के आगे अल्पसंख्यकों को अहमियत दी. तुष्टीकरण, ऐसा हथियार है जिसको बीजेपी कथिक सेक्यूलरिज्म के खिलाफ इस्तेमाल कर बाकी दलों को बेनकाब करना चाहती है. दूसरी तरफ वो मोदी को सबका साथ-सबका विकास के नारे-वादे के साथ समूचे हिंदुस्तान के नायक के तौर पर स्थापित करना चाहती है. मोदी का विश्वनाथ से सोमनाथ की पूजा अर्चना और गंगा से लेकर गो रक्षा के जयघोष को कवरेज देने-दिलवाने का इंतजाम, एक खास तरह की लेकिन बहुत मजबूत धार्मिक भावना से मोदी को जोड़े रखने और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के सिद्दांत को सही ठहराने की बड़ी योजना का हिस्सा है. जब आप मोदी की डिलिवरी वाले गवर्नेंस और करप्शनलेस ट्रांसपैरेंसी वाले सिस्टम के आगे किसी को खड़ा करेंगे तो वो छोटा और फीका लगेगा. यहां केजरीवाल जैसे आंदोलनकारी नेता, उनका निगेटिव कैंपेन और हर बार रोने वाली राजनीति धीरे धीरे खारिज होने लगेगी. आज मायावती की पूरी राजनीति के सामने अंधेरा है, अखिलेश के चमकने की उम्मीदें फिलहाल धूमिल हो चुकी हैं, राहुल गांधी ५ साल में २४ चुनाव हारकर समय से पहले की खंड-खंड खंडहर हो चुके हैं. फिर होगा ये कि मोदी के सामने कोई विरोधी नेता ही नहीं होगा. इसी लिहाज से ऊपर मैंने नीतीश कुमार का नाम लिया क्योंकि उनकी ही राजनीति कहीं ना कहीं मोदी से मेल खाती है. उमर अबदुल्ला अगर कहते हैं कि अब आप २०१९ नहीं २०२४ की तैयारी कीजिए तो ये बात बेमानी भी नहीं है. मोदी ने हिंदुस्तान में जिसतरह की राजनीति शुरु की वो परंपरागत राजनीति से अलग दिखने लगी, डिलिवरी और ट्रांसपैरेंसी के जोर से शासन की अलग इमेज खड़ा करनी शुरु की और स्वच्छता अभियान से लेकर उज्जवला योजना ने सरकार का सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना के एक नया चेहरा गढा, जैसा पहले नहीं दिखा. ये सब मोदी को एक क्रेडिबल ब्रैंड के तौर पर खड़ा करते जा रहे हैं. लेकिन इसी के साथ मोदी के सामने लोगों की उम्मीदों पर खरा उतरने की चुनौती भी बहुत बढ गई है. अगर मोदी खरा नहीं उतर पाए तो राजनीति की नई संस्कृति का मिसकैरिज ठीक वैसे ही हो जाएगा जैसा केजरीवाल के जरिए पैदा हुई विकल्प की राजनीति का हुआ।

गुरुवार, 5 जनवरी 2017

मशहूर फिल्म अभिनेता ओम पुरी नहीं रहे


हिंदी सिनेमा ने एक ऐसा कलाकार खोया है जिसने अदाकारी का झंडा कभी झुकने नहीं दिया. कलाकार, किरदार को कितना ताकतवर बना सकता है- यह ओम पुरी ने बार-बार साबित किया. एक बार सोचिए कि अर्धसत्य में इंस्पेक्टर का रोल अगर ओम पुरी नहीं करते तो क्या वो इतना मजबूत हो पाता? अगर तमस जैसे सीरियल में ओम पुरी नहीं होते तो उसमें वो ताकत पैदा हो पाती?

गोविंद निहलानी साहब को यह बात पता थी, इसीलिए उन्होंने ओम पुरी को चुना. वैसे निहलानी साहब को अपनी फिल्म आक्रोश में ही ये पता हो गया था कि यह कलाकार हटकर है. आक्रोश ओम पुरी की पहली हिट फिल्म थी. वे चेहरे से जितने अनगढ थे, जीवन में भी वही खुरदरापन लिए रहे. जुबान, जज्बात और जिंदगी तीनों के लिए उन्होंने कभी कोई लक्ष्मण रेखा नहीं तय की.

साधारण परिवार से निकलकर एनएसडी आना, वहां से एफटीआईआई जाना और फिर फिल्मों में अपना मकाम बनाना कोई साधारण काम नहीं है. ओम असाधारण कलाकार थे. भारतीय समाज में आम आदमी की तकलीफ, घुटन और घाव को बतौर कलाकार जीने में उनका कोई सानी नहीं रहा. मिर्च मसाला और धारावी जैसी फिल्में गवाही हैं.
ओम पुरी पर्दे के जीवन में जितने सधे रहे, निजी जीवन में उतने ही उलझाव में रहे. उनकी पत्नी नंदिता पुरी ने अपनी किताब unlikely hero : om puri में ओम के जीवन की सारी परतें उधेड़ कर रख दीं. इस किताब ने ओम को हिला कर रख दिया था.

ओम पुरी की पीढी ने हिंदी सिनेमा को बहुत ताकत दी है. नसीर, शबाना आजमी, स्मिता पाटिल, अनुपम खेर, कुलभूषण खरबंदा जैसे कलाकार बेमिसाल रहे हैं और ओम इनमें अपनी अलहदा पहचान के लिये हमेशा याद किए जाएंगे.



रविवार, 1 जनवरी 2017

नए साल पर नए संकल्प


नए साल पर नए संकल्प के साथ जीवन में नया करने की बात कहने की परंपरा रही है. ठीक से देखे तो हर वक्त नया है- सेकंड के बाद अगला सेकंड, मिनट के बाद अगला मिनट और इसी तरह घंटा, दिन, हफ्ता, महीना, फिर साल. दरअसल जीवन में सांस-सांस नई है. मुझे हमेशा लगता रहा कि नया करने का संकल्प किसी भी समय लिया जा सकता है, क्योंकि जीवन जब देखिए तभी नया है. लगातार नयेपन से गुजरते जीवन में कुछ ऐसा होना चाहिए जो नहीं बदले और कुछ ऐसा बदलना चाहिए जो फिर ना हो. 
हमें कैसा जीवन चाहिए.? हम जीवन में क्या कर सकते हैं? हम खुद से क्या उम्मीद करते हैं? उस उम्मीद को पूरा करने के लिये खुद क्या कर सकते हैं? और सबसे बड़ी बात कि हम जीवन में चाहते क्या हैं? यह एक पक्ष है जिसका दूसरा पक्ष ऐसी ही बातों का हमसे जुड़ा होना है. यानी हमसे परिवार क्या चाहता है या परिवार को लेकर हमारा फर्ज क्या है? मित्र-शुभेच्छु क्या चाहते हैं? समाज क्या उम्मीद करता है? और यहां भी बड़ा सवाल ये कि ऐसी तमाम जिम्मेदारियों और उम्मीदों को पुूरा किस कीमत पर करते हैं. यानी ऐसा करते हुए कुछ गंवाते हैं या फिर बनाते हैं. दरअसल बनाने के चक्कर में हमें गंवाने का अहसास ही नहीं होता. ये जो अहसास है इसको हमारा समाज, हमारी परंपरा ( कभी कभी रुढियां भी) और कथित नैतिकता पैदा नहीं होने देते. हमें कोल्हू के बैल की तरह जोत रखा गया है. नतीजतन, आपके पास कुछ देखने-सुनने की गुंजाइश ही नहीं रहती. 

जैसे मान लीजिए कि कोई वैज्ञानिक है या साहित्यकार है या पत्रकार है या समाजवसेवी या फिर कारोबारी है - कुछ भी ऐसा हैै जिसके पास बेहतर करने की संभावनाएं और क्षमता दोनों हैं. अब इस आदमी को पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारियों के नाम पर वैसे काम करने पड़ते हैं जिनसे उसके समय का हर्जाना होता है और जो काम उसे करना चाहिए उसे वह नहीं कर पाता है. ऐसे में उसको सोचना चाहिए, क्योंकि उसका विकास नहीं ह्रास हो रहा है. अब यह बात व्यक्ति सापेक्ष है, इसमें भी कोई शक नहीं है. मतलब ये कि हम जो कर रहे हैं उससे जरुरी और बेहतर कुछ और कर सकते हैं तभी ये सोचना जरुरी है. 

सच ये है कि इस तरह से हम अमूमन नहीं सोचते. हम नौकरी करते हैं, सब्जी भाजी लाते हैं, घूमने-फिरने जाते हैं, हंसी-ठहाके पर समय को कुतरते जाते हैं, मेले-ठेले, रिश्ते-नाते में रमते जाते हैं, परिवार की जिम्मेदारियों को कई दफा बेवजह लादे फिरते रहते हैें और अमूमन बेहतर करने के लिये जरुरी माहौल के ठीक उलट स्थितियों और मानसिकता में पहुंचा दिए जाते हैं. लेकिन कभी ये नहीं सोच पाते कि हम क्या खो रहे हैं. जो मौके हमारे पास हैं और जो प्रतिभा-क्षमता हममे है, दरअसल उसका हम अपमान कर रहे होते हैं. इसका अंदाजा समय गुजर जाने के बाद शायद होता है. 

इसलिए सबसे जरुरी ये है कि हम ठीक से ये समझ पाएं कि जो अपना सर्वेोत्तम कर सकते हैं और जो कर रहे हैं उसके बीच फासला किन वजहों से है. इन वजहों को कैसे कम किया जा सकता है और अपना सर्वश्रेष्ठ देने के लिये कितना श्रम-संसाधन लगाया जा सकता है. इस नजरिए से खुद को जब भी देखने लगते हैं समूचा जीवन-दर्शन बदल जाता है. 

मैने तभी कहा कि जब हर पल नया है और जीवन लगातार नएपन से गुजर रहा है
तो इसमें जो नहीं बदलना चाहिए उसको बनाए रखने का संकल्प लें और जो तुरंत बदल जाना चाहिए उसको आगे ना रखने का मन बनाएं. जीवन बस समय है जिसको इस आधार पर तौला जाता है कि आपने क्या दिया. क्या किया इससे नहीं. अब इस क्या देने में जो भी जरुरी तत्व हैं- मसलन प्रेरणा, संबल, ऊर्जा, साहस, संसाधन - वे जहां से मिल रहे हैं उनको संजोए-बचाए रखने की हर जरुरी कोशिश करें. आप सबों के जीवन में प्रेरणा का पर्व रोज रहे, ऊर्जा का उत्सव रोज चले, समय का सम्मान रोज हो और सफलता का संधान रोज हो. नए वर्ष की असीम शुभकामनाएं.