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सोमवार, 20 जुलाई 2015

साँस साँस उत्सव


पानी पकड़ता हूँ 
ख़ुशबू चुनता हूँ 
समय थामे रखता हूँ 
तुमसे ही जाना
देह में भी उतरता है वसंत 
फूटती हैं प्रेम की कोंपलें असंख्य
आत्मा का उत्सव चलता है साँस-सांस
तुम नदी चढ़ी हुई उछाल मारती
लहरों में अनहद उल्लास भरती
तुम्हारी हथेलियों पर रची होती है
मीठी आँच की मेंहदी ख़ुशबूदार
सहलाती रहती हो पूनम का चाँद 
निहारती हो मन के मेले को बार बार
मुस्कुराती हो 
और अचानक उनींदी रात को गुदगुदा देती हो
उसके आँचल से झड़ते हैं तारे बारम्बार 
खिड़की के बाहर रोशनी की लकीर आर-पार
मुरादों की लौटती बारात 
खुलते रहते हैं कामनाओं के करोड़ों रंध्र 
आसमान होने लगता हूँ 
प्रशांत
अनंत.

रविवार, 19 जुलाई 2015

फूल


जहां सच और सपने मिलते हैं
वहां उगते हैं
फूल.
पूजा की थाल में आस्था हैं
देवता तक मनोकामना ढोते हैं
फूल.
प्रेम का नीरव संगीत हैं
होंठों के गीले कोरों पर
आत्मा की भाषा लिखते हैं
 फूल.
आधा जल हैं, आधा सुगंध
आधा विश्वास हैं, आधा निर्बंध
आधा पुरस्कार हैं, आधा द्वंद
ओस की आखिरी सांस में बचे रहते हैं
चिता की पहली आंच में सजे रहते हैं
फूल.

फूलों ने जीवन को मुस्कान दिए
घर को आंगन
धर्म को ईमान
संबंध को मर्यादा
परिश्रम को परिणाम
मकान को खिड़की-दरवाज़े
खेत को खलिहान
और धरती को हरियाली भी
फूलों ने ही दिए
जहां इंसान नहीं होता
कोई पशु-पक्षी तक नहीं
कोई आवाज, कोई उम्मीद, कुछ भी नहीं
वहां भी खिलते हैं
फूल.

फूलों को धंधे में उतारता है बाज़ार
समय से पहले पनपाए-गदराए जाते हैं
बनाए जाते हैं चमकदार-गमकदार
हर सुबह, हर शाम
हजारों करोड़ का होता है कारोबार
खुली धूप, हवा से परे
चमकदार-शानदार कमरों में
सजाए जाते हैं
हर रात थमाए और ठुकराए जाते हैं
रौंदे-कुचले जाते हैं
जो रंग और सुगंध के दुश्मन होते हैं
उनकी शान में बिछाए जाते हैं
फूल.

कोई अनसुना संगीत
कोई अजनबी गीत हैं
फूल.
आल्हा-फाग-रागिनी
सोरठी-बिरहा-कजरी
सबके सुर मिल जाते हैं कुछ-कुछ
कुछ बंदिशें पता नहीं किस देश की हैं
समझ नहीं आता
जैसे कोई नदी रोती हो खून के आंसू
जैसे कोई पहाड़ पछाड़ खाता हो
जब बामियान में बुद्द टूटते हैं
बगदाद में बम गिरते हैं
सीरिया के खेतों में खून बहता है
दजला फरात की घाटियों में
कश्मीर की वादियों में
चीखते हैं-दहकते हैं
फूल.














शनिवार, 18 जुलाई 2015

डरे हुए लोग

दुनिया का सबसे बड़ा आतंकी है - डर
जिंदा लाश होते हैं डरे हुए लोग
बोलते हैं, आवाज़ नहीं उठा पाते
प्रेम करते हैं, स्वीकार नहीं कर पाते
सपने देखते हैं, सपने जी नहीं पाते
रिश्ते बनाते हैं, निभा नहीं पाते
डरे हुए लोग.
उनकी कोई अलग पहचान नहीं होती
गलत काम पर आह भरेंगे
लेकिन घर से नहीं निकलेंगे
जुलूस-जलसा देखकर सो जाएंगे
छोटी छोटी सहूलियतों के लिये
आंखें बंद रखने की इंतेहा करते हैं
डरे हुए लोग.
कमाल करना चाहते हैं
जोखिम नहीं उठा सकते
दुनिया बदलना चाहते हैं
खुद को नहीं बदल सकते
रोटी, बेटी और अगली पुश्त में फंसे रहते हैं
खुद के बारे में सोच नहीं पाते
डरे हुए लोग.
निहायत शरीफ होते हैं
घर से काम पर और काम से घर लौटते हैं
उनके लिये जीना सबसे जरुरी काम है
बस जीने के लिये सारी हिकारतें सहते हैं
कंधों पर बेहिसाब बोझ ढोते हैं
कहना तो सच ही चाहते हैं
लेकिन कह नहीं पाते
डरे हुए लोग.
करते खुद हैं, यकीन किस्मत पर करते हैं
पंडे-बाबा, मठ-मंदिर सब आबाद करते हैं
भूखे को भगाते हैं, भगवान को भरते हैं
फरेब को भी पुण्य समझते हैं
लीक से हटकर चल नहीं सकते हैं
नौकरी भर की ही पढते हैं
डरे हुए लोग.
वे देखकर भी नहीं देखते
सुनकर भी नहीं सुनते
जो सोचते हैं वो नहीं कहते
पसीने में खून, खून में पसीना भरते हैं
छोटे छोटे फायदे के लिए मारकाट करते हैं
फिर भी सच और इंसाफ की दुनिया चाहते हैं
डरे हुए लोग.

बुधवार, 15 जुलाई 2015

डायरी मेरी ज़िंदगी का दस्तावेज सी हैं. जब कभी पलटता हूं तो सबकुछ दिखने सा लगता है. 22-23 की उम्र में जो डायरी मेरे पास थी आज उसको निकाला. उस वक्त जो कविताएं लिखीं उनमें से कुछ आपसे साझा कर रहा हूं.

सुनो श्यामली
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श्यामली!
आज महीनों बाद तुम्हें लिखने बैठा हूं
इसलिए नहीं कि मेरे पास लिखने को कुछ नहीं
या तुम्हें भूलने की कोशिश में था
दरअसल मेरे पास तुम्हारे सवालों के जवाब नहीं
और अब भी टटोल ही रहा हूं.
इतने दिनों में न जाने कितनी बार
कांपा होगा तुम्हारा मन- कंप से
धड़का होगा हृदय - धक से
छलके होंगे नयन - छल से
भीग गया होगा तकिया जल से
जिनके कोमल रेशों से होकर कई सवाल
जा गिरे होंगे तुम्हारे सिरहाने निढाल
केन सारोवीवा, नज़ीब और दलाई लामा होंगे
नरसिम्हाराव, सुखराम और लालू भी होंगे
और वहां होऊंगा मैं भी
वहां होंगी कुछ टूटी चूड़ियां
कुछ उजास राहें
कुछ बिछड़े तारे, कुछ तड़फड़ाती आहें
और किश्तों में जमा हंसी भी
इस चिट्ठी को पाते ही
उन सबको समेटकर भेजना
शायद उन्हीं के बीच कहीं खोए हैं
वे सारे जवाब जिन्हें
तुम्हें भेजना चाहता हूं.

श्यामली !
मेरी अलगनी पर
अभी जो कबूतर बैठा है
उसे मैं पसंद नहीं करता
इसलिए नहीं कि मुझे शांति पसंद नहीं
बल्कि इसलिए कि वो
विरोध का भाषा नहीं जानता
और खुली आंख ही हलाल हो जाता है.
मुझे मोर पसंद है
जो मौसम के साज़ पर थिरकता है
और विषधर का मान-मर्दन भी करता है
मुझे नेवला सुंदर लगता है
कोमल काया का दुर्धर्ष योद्धा.
हमारी त्रासदी यह है कि
हम आज भी कबूतर में विश्वास करते हैं
मोर को चिड़ियाघरों में रखते हैं
और नेवले को खेत-बधार में.

श्यामली
प्रेम और दुर्घटना एक ही होती हैं
घटने के बाद ही मालूम पड़ती हैं
दोनों का बुखार धीरे धीरे
उतर ही जाता है
फिर हम दिन तारीखों में लपेटकर
इन्हें एक भीड़ में धकेल देते हैं
जहां हर चीज औपचारिक होती है.
हम इतने औपचारिक होते जा रहे हैं
कि प्रेम और दुर्घटना का फर्क मिटता जा रहा है
बस कुछ शब्दों के हरफेर
और मुद्राओं को फेरबदल का मामला सा लगता है
ऐसे में क्या तुम्हें नहीं लगता
कि प्रेम भी एक दुर्घटना ही है.

चौराहे की मूर्ति
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यह सोचकर वह सफर पर निकला
कि कहीं भी घर बसाने के लिए
पर्याप्त होगी उसकी हथेलियों की पूंजी
जिनमें उसने सहेजकर बांधा था
एक टुकड़ा धरती
और एक टुकड़ा रोशनी.
सामने बंदूक की नोंक पर
जब टंग गयी सांसें
तो अनायास खुल गयीं मुठ्ठियां
फिर उसे बाइज्जत बख्श दिया गया.
अब उसके हिस्से में था
पूरा का पूरा आसमान
भरे पूरे चांद-सूरज
बादलों की आबाद बस्ती
और तारों की बेशुमार दुनिया
ऐसे में
सिर्फ निहारने के सिवा
और किया भी क्या जा सकता था.
लोगों ने कहा -
वह मर गया लेकिन चांद तारों की ख्वहिश नहीं छोड़ी
शहर के बीचोबीच खड़ी उसकी मूर्ति
अदम्य इच्छाशक्ति की प्रेरणास्रोत मानी जाती है.






रविवार, 12 जुलाई 2015

इतनी बारिश में उसका आना

नौवीं में जब था तभी दिल्ली आ गया था सर. पिताजी से खूब झगड़ा हुआ था, बहुत पीटा था उन्होंने. १४ साल की उम्र में ही बागी हो गया. घर छोड़ा और दिल्ली की जो पहली ट्रेन मिली उससे आ गया. पिछले चार साल से उसको जानता हूं लेकिन यह पहली बार था कि उसने अपनी जिंदगी का इतनी दूर का हिस्सा खोल रहा था. मुझे तनिक भी अंदाजा नहीं था कि इतनी बारिश में भी वो आ जाएगा. सुबह दस बज रहे थे और बारिश इतनी तेज की घर की बालकनी से सामने का ब्लॉक धुंधला दिख रहा था. फोन बजा तो मैंने अपने अंदाज में कहा - हां हीरो बोलो. सर घर के बाहर खड़ा हूं. अभीतक बस मेरा अनुमान ही था लेकिन आज सचमुच लगा कि वो जुनूनी है. दो रोज पहले फोन आया था- सर कुछ प्लान है, साझा करना चाहता हूं. देखो समय की तंगी रहती है, तुम रविवार को सुबह दस बजे आ जाना बात कर लेंगे - कहकर मैंने फोन काट दिया था.
उसकी बातों में मेरी दिलचस्पी बढने लगी थी. तुम दिल्ली में आकर कहां रहे और किया क्या- मैंने अपनी बात जोड़ी. सर मौसी के लड़के यहीं दिल्ली में रहते थे उनके पास रहने लगा. थोड़े ही दिनों बाद किराने की एक दुकान पर नौकरी लग गयी. सेठ आठ सौ रुपए देता था. तब घर के किराए के पांच सौ रुपए देने होते थे. साझेदारी में मेरे हिस्से सौ रुपए आते थे. कुछ महीनों बाद दूसरे सेठ ने बुला लिया. चौदह सौ रुपए देता था. अब कुछ पैसे मां को घर भेजने लगा था. दुकान से लौटकर कंप्यूटर सीखने लगा. कुछ समय बाद एक मददगार मिल गया. उसकी मदद से धीरे धीरे मेरे पास दस सिस्टम हो गए और मैंने साइबर कैफे खोल दिया. बड़े भाई को बुला लिया था. उनको कैफे संभालने को दे दिया.  इस दौरान गांव के स्कूल से दसवीं और ग्यारहवीं पास कर आया. पढने लिखने में बचपन से ही ठीक रहा इसलिए नंबर भी बहुत अच्छे आएं. कहां के हो- यह पूछते समय मुझे पहली बार लगा कि बताओ इतने सालों में यही नहीं जान पाया कि किस जिले का है. २०११ का शायद सितंबर का महीना था. एक मित्र का देर रात फोन आया.  अरे सर प्रणाम प्रणाम. सुनिए ना. जरा ठीक से सुनिएगा. अपना एक बच्चा है. और वो भी ब्राम्हण बच्चा है. ठाकुर साहब लोगों को तो वैसे भी कुछ ना कुछ ब्राम्हणों के लिए करना ही चाहिए. बहुत जरुरतमंद है. आपको नौकरी देनी होगी. इसतरह से यही एक आदमी है जो मुझसे बात करता है. पूरे अधिकार के साथ. लोगों के लिये बेहद अनगढ, उद्दंड, मुंहफट और बदतमीज लेकिन मैंने उसमें अक्सर बनावटीपन, फरेब, खुदगर्जी और हवाहवाईपन से परे एक ठेंठ और टटका आदमी देखा. खैर, मैंने कहा - कल दोपहर बाद भेज देना. इस लड़के से पहली मुलाकात मेरे दफ्तर में चार साल पहले हुई. मैंने नौकरी दे दी लेकिन बात कभी कभार ही हुआ करती. हां काम देखकर मुझे इतना समझ आ गया था कि आगे अच्छा करेगा. आज कर भी रहा है. सर सुल्तानपुर का हूं. गांव का नाम डेरा राजा है. मेरे सवाल के जवाब में उसने कहा. बाहर बारिश अब भी उतनी ही तेज थी. दिल्लीवाले ऐसे मौसम के लिये तरसरते रहते हैं. लेकिन खबरों की दुनिया के लोग दिल्ली में जाम और जलजमाव को लेकर एमसीडी और सरकार के पीछे तेल पानी लेकर पड़े रहते हैं. देरा या डेरा - बारिश की आवाज के चलते मुझे सुनने में थोड़ी दिक्कत हुई तो मैंने पूछा. नहीं सर डेरा- उसने जवाब दिया. दरअसल, हमारे यहां एक राजपरिवार है. उसने ही ब्राम्हणो को जमीन देकर गांव बसाया. राजा का डेरा यहीं था तो हो सकता है लोग राजा का डेरा या डेरा राजा कहने लगे हों और बाद में यही नाम हो गया हो- डेरा राजा. वैसे, अब जो राजा हैं उनकी कोई औलाद है नहीं. इसलिए, यह आखिरी पुश्त ही है. मैंने जब छानबीन की थी तो पता चला कि १२ सदी से यह राजपरिवार है. अब आठ सौ साल बाद यह अपने आखिरी पड़ाव पर है. धीरे धीरे अपनी बात वो मेरे सामने रखता रहा . बार बार गीले बालों में हाथ फेर रहा था, अपनी हथेलियां रगड़ रहा था और कॉफी का कप उठाकर चुस्कियां ले रहा था. एक बार धीरे से कहा- सर कॉफी मस्त है. मेरी नजर उसके गीले कपड़ों पर थीं जो धीऱे धीरे सूख रहे थे. हां तो फिर क्या हुआ. तुम ११ वीं १२ वीं कर गए तो क्या किया- मेरे भीतर शायद यह जानने की अकुलाहट बढ रही थी कि किस-किस तरह के हालात से होकर लड़के मीडिया में आते हैं. इन्हीं के चलते गांव देहात और आम आदमी की हालत को खबर में ठीक से पकड़ा-समझा जाता है. वर्ना एक जमात अब आ रही है जो पैडी और व्हीट से नीचे जानती नहीं और जेनिफर लोपेज-लेडी गागा से ऊपर कुछ समझती नहीं .  यह जमात आनेवाले दिनों में पत्रकारिता के लिये एक खतरा होगी. मेरे जेहन में यह बात उमड़-घुमड़ रही थी कि उसने खुद को थोड़ा संभालते हुए कहा - सर बस इंटरनेट कैफे से कुछ आ जाता था और मैं कुछ टाइपिंग वाइपिंग का काम करके कमा लेता था. घर चल जाता था. २०११ में जब बीकॉम कर लिया तब आपके पास भेजा गया था. मां, भाई और बहन को साथ रखने लगा था. इसलिए महीने की आमदनी का फिक्स होना जरुरी था. आपने नौकरी दे दी तो जिंदगी पटरी पर आ गई. उसके बाद तो लोग खुद बुलाकर नौकरी देते रहे. उसने अपने आप को मेरे सामने धीरे धीरे ही सही लेकिन पूरा खोल दिया था. वैसे मुझे यही लगता रहा कि आजकर की नई पीढी की तरह - मस्तीखोर, बिंदास और बेलौस तबीयत का है . लेकिन इस घंटे भर की बातचीत में मेरी राय पूरी तरह से बदल चुकी थी. बीच बीच में मैंने उसके उस प्लान पर भी अपनी राय रखी जो वो लेकर आया था. लेकिन रह रहकर उसकी जिंदगी में घुसपैठ करने के लोभ से खुद को रोक नहीं पा रहा था. टुकड़ों में ही सही, उसने अपना सारा सच सामने रख दिया था. उसकी कमीज लगभग सूख चुकी थी लेकिन जींस अब भी गीली थी. सर नौकरी मजबूरी है. ना करुं तो परिवार नहीं चल सकता. मां, बहन, भाई साथ रहते हैं. पिताजी को भी यहीं रखा है लेकिन अलग. उनका खर्च भी मैं ही उठाता हूं. लेकिन सर अपनी मर्जी का कुछ करना चाहता हूं. यह वो नहीं है जिससे इस देस समाज का कुछ बनता है. जहां आप काम करते हैं वहां कुछ ऐसा वैसा करना चाहें तो ऊपरवालों को लगेगा कि इसके पर निकल आए हैं. दो चार दिन में चलता कर देंगे.  उसने निकलने के लिये सोफे से उठते हुए कहा. मुझे लगा शायद इसी भड़ास ने उसको आज मुझतक इस बारिश में आने को मजबूर किया है. हमारे पेशे में एक जमात है जो लीक से हटकर कुछ करना चाहती है. कुछ जिसका समय के पैमाने पर मतलब निकल सके. लेकिन रोटी दाल की मजबूरियों ने जोखिम उठाने की हिम्मत चाट रखी है. एक आग बार बार भड़कती है और फिर ठंडी पड़ जाती है , कुछ दिनों बाद फिर भड़कने के लिए. उसके भीतर भी मैंने आज वही आग देखी. उसको विदा करते समय कई सवाल दरवाजे खड़े रहे, जिनमें एक सवाल यह भी कि उसने अपने पिताजी तो मां से अलग क्यों रखा है. वो अपनी बाइक पर फिर बारिश के बीच था. सामने के ब्लॉक अब भी धुंधले थे. बस वक्त डेढ घंटे आगे निकल चुका था, कभी नहीं लौटने के लिए.ो 

शनिवार, 11 जुलाई 2015

पानी


कितना मुश्किल है
पानी होना
बंध जाना
पसर जाना
ढल जाना
सब बहा लेना
सब उठा लेना
सब सह लेना
लेकिन चोट पड़़ते ही
तन जाना
मिट जाना
पर नहीं टूटना
कितना मुश्किल है
पानी होना.



सोमवार, 6 जुलाई 2015

माफीनामा

माफ करना छोड़ने की आदत सी हो गई है
नए पुराने कुछ खुशबूदार लम्हे
तुम्हारी यादों के सिरहाने रह गए होंगे
सहेजकर रख लेना.

अब तो सबसे पहचानी राह पर भी
अक्सर भटक जाता हूं
जैसे चांद भूल जाता है
रोज रात का पता.

मेले के बैल और बाजार के माल सा हो गया हूं
खरीददार टटोलकर देखता है पानी
कितना तकलीफदेह है साबित करना कि
अभी काम का बचा हूं .

पढ़ लेता हूं दफ्तर से घर लौटते लोगों के चेहरे
जरुरत और बची रकम की खींचतान
दुबकती रहती है पहचाने जाने के डर से
जैसे सहमा रहता है शफाखाने से निकलता मरीज.

हां तुम्हारे लिए बेकार बेदाम सही
क्या करुं चाहकर भी फितरत बदलती नहीं मेरी
अब तो शायद मुमकिन भी नहीं बदलना
कभी धूप और हवा का मोल लगाकर देखना.

मैं तुम्हारी पूजा की आरती नहीं
ना ही तुम्हारे भगवान का छप्पन भोग
मैं आदमी की थाली का नमक हूं
पहले ही निवाले में खल जाता है मेरा ना होना.

रविवार, 5 जुलाई 2015

ईंट

ईंट
सिर्फ मिट्टी
पानी
और आग का
संघटन नहीं
एक विचार भी है
जिसमें पलती है
एक घर की अवधारणा
सुरक्षा का बोध
संस्कृति का इतिहास
और
एक राष्ट्रीय समस्या.

आसमान

धरती को चाहिए ही चाहिए
एक आसमान
आसमान जो बादलों को संभाल सके
कहकशां को अटा सके
चांदनी को पसार सके
और धूप को समेट सके
क्योंकि इन्हीं बादलों, कहकशां
चांदनी और धूप में
पलते हैं
धरती के कई सपने.

आशा

रात-विरात
दिन-दोपहरी
वह मेरे आंगन में गिरी
धम.
कणों में कंपन हुआ
हवाओं में स्फुरण
आकाश में बिजली
कौंधी.
मैंने खिड़की से बाहर देखा
नंगे पर्वतों पर
बर्फ जम आई थी
वह नदी से लौट रही थी
तेज़कदम.
बाग में फूल निकल आए थे
दरवाज़े पर दस्तक हुई
खट.
आकाश से
बूंदे टपकीं
टप..टप..टपाटप.

टीवी पत्रकार और मित्र शैलेेंद्र का जाना

स्याही भर सपना
आंख भर पानी
और छाती भर रिश्ता
इससे ज्यादा उसे
कुछ चाहिए भी नहीं था.

उसमें बची थी
ठंडे चूल्हों की आंच
ज़िंदा थी
बंजर होते जाने की बेचैनी
बाकी था
पसीने में नमक भी
नहीं तो लीक को लतिआने की ताकत
ख़बरखोरी ने छोड़ी कहां है.

वक्त सोख लेगा
कपड़ों में बसी उसकी गंध
तस्वीरों पर धुंध डेरा डाल देगी
सूख जाएगा
शब्दों का हरसिंगार
लेकिन जब कभी कोई
क़दभर ही नज़र आएगा
या कोई आवारा
सड़कों को रातभर जगाएगा
वो अगले मोड़ पर
सजधज कर
नई नज्‍म के साथ नज़र आएगा.

( जून २००९ - शैलेंद्र के साथ आजतक में काम किया और कई दफ़ा साथ बैठकर घंटो गपिआए. )

कटोरा भर पानी

चाबी की नाव चलाने के लिए
बंटी को चाहिए
कटोरा भर पानी.

आटा गूंधने के लिए
मां को चाहिए
कटोरा भर पानी.

आंगन में चांद उतारने के लिए
बालेश्वर चाची को चाहिए
कटोरा भर पानी.

आचमन के लिए
पापा को चाहिए
कटोरा भर पानी.

छोटू के निपटान के लिए
दादी को चाहिए
कटोरा भर पानी

दादा की हजामत के लिए
सुदर्शन ठाकुर को चाहिए
कटोरा भर पानी.

कपड़ों पर इश्तरी के लिए
रामायण धोबी को चाहिए
कटोरा भर पानी.

एक भरी पूरी गृहस्थी को
चाहिए ही चाहिए
कटोरा भर पानी.

लेकिन दुनिया के लिए
मुश्किल हो रहा है बचा पाना
कटोरा भर पानी.

( कॉलेज के दिनों की कविता, जून १९९५ ) 

शुक्रवार, 3 जुलाई 2015

मेरे हमदम

मेरे हमदम तेरे आगे मैं इक अफसाना लिखता हूं
थोड़ा ज़िद्दी,थोड़ा पागल,थोड़ा दीवाना लिखता हूं.
तुझे ज़िद है कि मैं बोलूं, मेरी मुश्किल पुरानी है
ज़ुबां दिल की मिले फिर मैं, दिन रात लिखता हूं.
कई रातों की उलझन है, कई बातें सुनानी हैं
जो धरती से कहे चंदा, वो सारी बात लिखता हूं.
मुझी से है मोहब्बत और मुझसे ही लड़ाई है
तू भी तो यार है मुझसा,यही हर बार लिखता हूं.
कहीं रिमझिम, कहीं रुनझुन,कहीं रुत आसमानी है
तू मौसम है मेरे दिल का, मेरी कायनात, लिखता हूं.
ज़मीं होकर फ़ना होना, फ़ना होकर ज़मी होना
सनम इस इश्क़ पे सौ जिंदगी क़ुर्बान लिखता हूं.