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बुधवार, 12 मई 2021

नोबल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी जी का कॉल

 



नोबल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी जी के यहां से फोन आया। कहा गया कैलाश जी आपसे बात करना चाहते हैं। कैलाश जी के साथ मेरा आत्मीय संबंध है। समय-समय पर उनके पास जाकर कुछ जरुरी बातों पर चर्चा करता रहता हूं। मुझ पर उनका स्नेह रहता है। फोन जैसे ही उनको दिया गया- उसी अपनेपन से उन्होंने बात शुरु की। मुझे अचरज हुआ कि आजकल कोरोना मरीजों की खातिर जो कुछ मैं कर रहा हूं, उसकी खबर उनतक पहुंचती है।

कोरोना के इस दौर में वैसे मैं कुछ महान नहीं कर रहा हूं। एक सजग नागरिक के नाते जो करना चाहिए, वही कर रहा हूं। अपने संपर्कों, साधनों, संसाधनों की मदद से जो कर पाने की गुंजाइश बनती है उतना कर रहा हूं।
देश में साथियों की एक जमात बन गई है, जो आवाज लगाते ही जुट जाती है और जहां जरुरत होती है, मदद पहुंच जाती है। इस दौर में मेरा निजी अनुभव ये रहा है कि इस देश में संकल्प और नीयत- यही दो ठीक हों तो आपके साथ समाज का हर आदमी खड़ा हो सकता है। मैंने बस उन्हीं दोनों का आसरा ले रखा है और मदद में लगा रहता हूं। यह अभियान उसी ताकत और शिद्दत से आप इंडिया न्यूज पर भी देख सकते हैं।
कैलाश जी को मेरा प्रयास भला लगा , उन्होंने अपनी सदिच्छा मुझतक पहुंचानी चाही और बात की। 20 मिनट की बातचीत में अधिकांश निजी और वैचारिक था- जो सिर्फ हम दोनों के लिए ही था। इसलिए कैलाश जी का शुभ संदेश ही आप लोगों के बीच रख रहा हूं। बहुत शुक्रिया कैलाश जी।


राजीव प्रताप रुडी ऐंबुलेंस कांड पर पत्रकार गिरीश मालवीय की पोस्ट

 पत्रकार गिरीश मालवीय ने राजीव प्रताप रुडी ऐंबुलेंस कांड पर एक पोस्ट लिखी है। जस का तस रख रहा हूँ।

द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ राजीव प्रसाद रूड़ी एम्बुलेंस स्कैम :
कल से सोशल मीडिया पर धमाल मचा हुआ है कि बीजेपी के पूर्व केंद्रीय मंत्री व राष्ट्रीय प्रवक्ता राजीव प्रताप रूडी के अमनौर स्थित कार्यालय परिसर में 40 एंबुलेंस खड़ी है ओर जनता महामारी के इस दौर में मरीज़ो को अस्पताल पुहचाने के लिए परेशान हो रही है दर दर की ठोकरे खा रही है,......दरअसल यह सारा मामला पप्पू यादव के ट्वीट से शुरू हुआ .......उसके बाद क्या घटनाक्रम चल रहा है वो आप सब खबरों के जरिए जान ही लेंगे उसे बताने में मेरी रूचि भी नही है.....
मुद्दे की बात तो यह है कि जब ऐसी महामारी चल रही है तो ये सारी एम्बुलेंस आखिर खड़ी ही क्यो थी !.......
दरअसल इसको समझने के लिए आपको सांसद विकास निधि का गणित समझना होगा , इसे सिर्फ राजीव प्रताप रूड़ी ओर पप्पू यादव की आपसी राजनीतिक प्रतिद्वंदिता के रूप में मत देखिए यह बड़ी पिक्चर है......
क्या आप जानते हैं कि हर संसद सदस्य को अपने क्षेत्र के विकास के लिए हर साल 5 करोड़ का फंड अलॉट किया जाता है !....इस फंड के अंतर्गत संसद सदस्य अपने संसदीय क्षेत्र में विकास के छोटे-मोटे कार्य करा सकता है. फंड की मॉनिटरिंग केन्द्रीय सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय द्वारा की जाती है. फिलहाल 6 अप्रैल 2020 को मोदी सरकार ने इसे दो साल के लिए सस्पेंड कर दिया गया है शायद 500 से अधिक संसद सदस्यों को देने के लिए मोदी सरकार के पास फंड ही नही है.......
दरअसल इस फंड में जमकर भ्रष्टाचार होता है लेकिन यह भ्रष्टाचार सामने नही आता, क्योकि सेटिंग जबरदस्त होती है..... स्कीम के मुताबिक़, सांसद सिर्फ़ कामों की अनुशंसा कर सकते हैं लेकिन असल में होता ये है कि सांसद अनौपचारिक रूप से ज़िला प्रशासन को बताते हैं कि काम किसे दिया जाना है खरीदी कैसे होने हैं कौन सी संस्था/ NGO उनकी फेवरेट हैं जिसे यह वाहन चलाने को देने चाहिए......
सांसद क्षेत्र विकास निधि की स्कीम जिस तरह से चल रही है वो सिर्फ सांसदों के फायदे के लिए है. एम्बुलेंस खरीदना भी इस फंड को ठिकाने लगाने का बहुत बढ़िया रास्ता है क्योंकि कीमत चुकाने में अच्छी खासी कमीशन बाजी होने की संभावना रहती है
रूड़ी जी की एम्बुलेंस खरीद तो कुछ भी नही है, दिल्ली के सांसद मनोज तिवारी ने सांसद निधि से 3 गुना दामों में 200 ई-रिक्शा खरीदवा दिए जो ई-रिक्शा 60-70 हजार रुपए मिल जाता है, उसे 2.25 लाख रुपये में खरीदा गया अब वह सब कबाड़ हो रहे हैं भाजपा की ईस्ट एमसीडी के गराज में दो साल पहले खरीदी गई 200 गाड़ियां खड़ी-खड़ी कूड़े में तब्दील हो गयी.....
एम्बुलेंस बनाने में भी वाहनों में कुछ अंदरूनी परिवर्तन किए जाते हैं और कुछ तकनीकी परिवर्तन भी होते हैं जैसे GPS लगाना आदि... इससे कीमतों में अनाप शनाप बढ़ोतरी दिखा दी जाती है और उसे सांसद और जिला प्रशासन की मिलीभगत से बड़ी खरीद का ऑर्डर देकर एक ही बार मे सांसद निधि को निपटा दिया जाता है...... यह बहुत कॉमन प्रेक्टिस है..... लेकिन रूड़ी जी का मामला एक ओर स्टेप आगे बढ़ गया था.....
दरअसल एम्बुलेंस ख़रीदी के बाद जिला प्रशासन इसे चलाने के लिए किसी NGO को दे देता है ओर उसे प्रतिमाह लाख-दो लाख रुपये इन एम्बुलेंस के संचालन के लिए जिला प्रशासन को देने होते हैं .....ओर इस नाते NGO संचालक मोटा भाड़ा मरीजो से वसूलता है....जब यह होता है तब स्थानीय सांसद महोदय का पेट दुखने लगता है क्योंकि उसे लगता है कि माल तो उसने लगाया ओर कमाई कोई और खा रहा है यानी लालच का मोटा सा कीड़ा उनके दिमाग मे कुलबुलाने लगता है ......वो सोचते है कि यह NGO वाला काम भी अपने अंडर ही करवाए..... राजीव प्रताप रूड़ी वाले केस में एग्जेक्टली यही हुआ है........
रूडी जिस लोकसभा सीट से आते हैं वो एक ग्रामीण बाहुल्य इलाका है इसलिए उन्होंने अपने संसदीय कोष से करोड़ों की एंबुलेंस खरीद तो लिया लेकिन किसी एक NGO को सौपने के बजाए उसे अलग अलग ग्राम पंचायतों में संचालन के लिए अलग अलग पंचायत प्रतिनिधियों को सौपने का निर्णय लिया, ताकि पूरा कंट्रोल रहे इसके लिए उन्होंने एक बडी मीटिंग बुलाई ....ओर 'सांसद-पंचायत एंबुलेंस सेवा' की शुरुआत की (न्यूज़ 18 में इस बाबद पूरी रिपोर्ट विस्तार से छापी हैं....लिंक कमेन्ट बॉक्स में ) लेकिन इन एंबुलेंस को संचालित करने से पंचायत प्रतिनिधियों ने इनकार कर दिया, उसके एग्रीमेंट की शर्तों से वह सहमत नहीं थे....
जिला प्रशासन भी इस विवाद में पड़ना नही चाहता क्योंकि रूड़ी सत्ताधारी दल के मजबूत सांसद हैं केंद्रीय मंत्री रहे हैं और राष्ट्रीय प्रवक्ता भी है....... इसलिए पिछली मीटिंग के बाद से ही वह सारी एम्बुलेंस उनके कार्यालय के पीछे खड़ी हुई है..... इसे डेढ़ साल से भी ऊपर हो चुका है और पड़े पड़े एम्बुलेंस वाहन कबाड़ में बदल रहे हैं.......
तो यह थी रूड़ी जी की दर्जनो एंबुलेंस की असली अनटोल्ड स्टोरी.....अगर आप अपने जिले के सांसद की सांसद निधि की अंदरूनी जानकारियां निकलवाएंगे तो आपको भी ऐसी ही कई कहानियां पता चल जाएंगी.......

परहित सरिस धरम नहीं भाई

कोरोना डायरी 8 मई 2021 

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देश के किसी भी हिस्से में बात कीजिए, वहां के सांसद साहब औऱ विधायक शायद ही लोगों के संपर्क में आजकल हैं। अपवाद होता है, होगा भी। लेकिन सामान्य स्थिति यही है। महानगरों औऱ दूसरे दर्जे के शहरों में मीडिया की मौजूदगी से वहां के कोहराम और लचर इंतजाम की खबरें देश देख-सुन रहा है। लेकिन छोटे-छोटे शहरों और दूर-दराज के गांवों तक पर कोरोना का कहर टूटा हुआ है। पत्रकार औऱ निवाण टाइम्स के संपादक कपिल त्यागी के ट्वीट को उदाहरण के तौर पर रख रहा हूं। वे एक जगह लिखते हैं कि – “ रोहतक के टिटौली गांव में कोरोना का कहर, 10 दिन में 40 लोगों की मौत, 1 दिन में 11 चिताएं जलने के बाद मानो लोगों की सांसे तक रुक गई हैं। गांव के लोग घर से बाहर निकलने में कतरा रहे हैं।“ दूसरे ट्वीट में वे लिखते हैं- “ मेरठ के इकरी गांव में पंचायती चुनाव ने कहर बरपा दिया है। गांव मे सिर्फ 40 टेस्ट किए गए, जिनमें से 21 पॉजिटिव निकले। अबतक छह लोगों की मौत हो चुकी है। यह केवल इकरी गांव की कहानी नहीं है, गांव-गांव का यही हाल है। युद्धस्तर पर काम करना होगा।“ कपिल के ट्वीट हरियाणा औऱ उत्तर प्रदेश के गांवों की असलियत बता रहे हैं। अब बिहार चलिए। दो हफ्ते पहले भोजपुरी फिल्म के गीतकार-संगीतकार श्याम देहाती की कोरोना से मौत हो गई। उनके अंतिम संस्कार में 54 लोग शामिल हुए और वे सब कोविड पॉजिटिव हो गए। एक ही गांव के 54 लोग। सोचिए आज उस गांव का क्या हाल होगा! हुआ ये कि श्याम देहाती मुंबई से अपने गांव महुई आए। जब संक्रमित हुए तो इलाज चला, लेकिन बच नहीं सके। बिहार के कई गांव ऐसे हैं जहां लोग बड़ी तादाद में कोविड पॉजिटिव हैं। इलाज का इंतजाम नहीं है। य़ह स्थिति देश के सभी राज्यों में है। लेकिन क्या मजाल कि सांसद और विधायक- जो मौजूदा व्यवस्था है उसका पूरा फायदा लोगों को मिल सके- इसके लिए मुस्तैद और संपर्क मे हों! 102 की एंबुलेंस सेवा पर फोन लगाकर देखिए क्या हाल है! कई जगहों पर संसाधन हैं लेकिन उनका इस्तेमाल नहीं हो रहा है, क्योंकि जिनलोगों पर जवाबदेही है, उनको इस बात से मतलब ही नहीं रहता कि एंबुलेंस-बेड-ऑक्सीजन-दवा से लोगों का इलाज हो सकता है। मानसिकता औऱ संस्कार ही लापरवाही और लुंजपुज व्यवहार से भरे हैं। आज ही एक चैनल पर खबर देख रहा था, सहरसा में दो सौ करोड़ का कोविड अस्पताल बनकर चकाचक तैयार है। 60 मरीजों के लिए पूरी तरह लैस।लेकिन बंद है। ऐसे ही खड़े-खड़े सड़ जाएगा लेकिन कोई पूछेगा नहीं कि आखिर ऐसा क्यों है? डीएम, बीडीओ, विधायक, सांसद सब अपने-अपने में रमे रहते हैं। लूट करवा लो। कमीशन खिलवा लो। अटारी पिटवा लो। लेकिन जो काम जरुरी और जनहित का है, उसके बारे में चिंता नहीं करनी है।
ऐसे में कुछ नेताओं को मैंने निजी तौर पर अपनी जमात से हटकर लोगों की मदद में जुटे देखा। आप यह भी कह सकते हैं कि ऐसा वे अपने भविष्य को ठीक करने के लिए कर रहे हैं तो यह भी बताना चाहिए कि जो कहीं नहीं दिख रहे, फोन और घर के दरवाजे बंद किए बैठे हैं- वे आगे लोगों के बीच नहीं आएंगे क्या? फिर? मैं यह मानता हूं कि इन लोगों में इंसानियत और समाज को लेकर अपनी जिम्मेदारी का एहसास है।
कल मैं बचपन के अपने मित्र के रिश्तेदार को टाटा हॉस्पिटल, जमशेदपुर में आईसीयू बेड दिलवाने की कोशिश में लगा था। उनकी हालत तेजी से बिगड़ रही थी। मैंने झारखंड के सीएम हेमंत सोरेन से लेकर राहुल गांधी तक को अपने ट्वीट में टैग किया। इसके बाद में अपनी जान-पहचान के लोगों को मदद के लिए फोन भी कर रहा था। इसी क्रम में टीवी पत्रकार और मेरे लिए छोटे भाई की तरह चंदन सिंह का फोन आया। “सर, मैंने कुणाल सारंगी जी को कहा है, वे लग गए हैं। थोड़ा समय दीजिए, काम हो जाएगा” चंदन ने कहा। मैंने कहा थोड़ा फॉलो कर लेना जरुरी है। करीब तीन घंटे बाद मेरे मित्र के रिश्तेदार को आईसीयू बेड मिल गया। कुणाल सारंगी ने ऐसा नहीं कि मेरे लिए अलग से जाकर कुछ नया किया, बल्कि पता करने पर मालूम हुआ कि वे दिन-रात लोगों को इलाज दिलवाने और उनकी जान बचाने में लगे हुए हैं। वे
पूर्व विधायक हैं और आज की तारीख में झारखंड में बीजेपी के प्रवक्ता हैं। पढे-लिखे, सुलझे और समझदार नेता है। आज जब नेता नजर नहीं आ रहा है, कुणाल सारंगी जनता के बीच हैं। जनता की खातिर टेस्ट से लेकर एडमिशन तक की लड़ाई लड़ रहे हैं। इस देश को खासकर झारखंड के लोगों को यह जरुर याद रखना चाहिए।
गुरुवार की रात कानपुर से मेरे एक नजदीकी परिवार का फोन आया। लखनऊ में एक सज्जन मनोज वर्मा को तुरंत आईसीयू बेड की जरुरत थी। ऑक्सीजन लेवल सपोर्ट के साथ 65 था। ऐसे तो 50 या उसके नीचे आ रहा था। मैंने ट्वीट और पोस्ट करने के बाद दो लोगों को फोन किया। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के मीडिया सलाहकार मृत्युंजय कुमार सिंह को औऱ समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता अनुराग भदौरिया को। मैंने यह भी कहा कि जिस अस्पताल में हैं, वहां आईसीयू बेड नहीं है तो एक काम कर सकते हैं- मुख्यमंत्री दफ्तर अगर सिफारिश कर दे तो डीआरडीओ ने जो अस्पताल बनाया है, वहां आईसीयू बेड मिल सकता है। दोनों युद्दस्तर पर लग गए। इस तरह की तीन-चार मिनट में अनुराग भदौरिया ने सरकारी अप्रूवल का कागज मुझे व्हाट्सैप कर दिया। मृत्युंजय जी का फोन आने लगा – उनलोगों को बोलिए फोन उठाएं, लगातार करने पर भी कोई उठा नहीं रहा। मैने परिवार को बोला- बात हुई। संयोग ऐसा बना कि मरीज को उसी अस्पताल में आईसीयू बेड मिल गया।
अनुराग भाई को आप दिन भर लोगों को ऑक्सीजन सिलेंडर पहुंचाते, बेड दिलवाते, उनका टेस्ट करवाते पाएंगे। बहुत मुमकिन है कि उनकी राजनीतिक महत्वाकाक्षाएं उनसे ये करवाती हों, लेकिन आदमी समाज के काम आ रहा है यही बात ऐसे हर सवाल को बेमानी कर देती है। मृत्युंजय जी राजनेता नहीं हैं लेकिन मुख्यमंत्री से जुड़े हैं। उनको पता है कि उनकी छवि से मुख्यमंत्री को फायदा या नुकसान हो सकता है। लिहाजा वे खुद से जितना संभव हो पाता है, लोगों की मदद में लगे रहते हैं, यह मैने निजी तौर पर देखा है।
नोएडा में बिहार के पूर्व डीजीपी नीलमणि साहब के बेटे मनोज श्रीवास्तव आम्रपाली सिलिकॉन सिटी में रहते हैं। ऑक्सीजन लेवल 80 पहुंच गया और शहर में किसी भी अस्पताल में जगह नहीं मिल रही थी। बीजेपी के पूर्व सांसस स्व. लालमुनि चौबे के पुत्र और छोटे भाई सरीखे शिशिर चौबे ने मुझे यह बात बताई। मैं मदद के लिए तुरंत ट्वीट और पोस्ट करने के बाद फोन करने लगा। उधर ट्वीटर और फेसबुक पर लोग उनके लिए अस्पताल और फोन नंबर डालने लगे, जहां से सहायता मिल सकती थी। इसी दौरान फिल्म एक्ट्रेस तापसी पन्नो ने भी मेरे ट्वीट को रीट्वीट किया। मुंबई में बैठकर एक फिल्म स्टार को नोएडा के एक आदमी की चिंता हुई यह इंसानियत की पहचान तो है ही। खैर, कुछ देर बाद मेरी दोस्त स्वाति शर्मा का फोन आया कि रोहित ने इंतजाम करवा दिया है, आप उनको बोलिए कि फोन उठाएं। रोहित मतलब हम दोनों के कॉमन फ्रेंड औऱ बीजेपी के प्रवक्ता रोहित चहल। मैंने शिशिर को फौरन फोन किया औऱ कहा कि उनको बोलो फोन उठाएं। मनोज जी का मेट्रो अस्पताल में एडमिशन हो गया। अभी वे बेहतर हैं। रोहित का जिक्र मैं इसलिए करना चाहता हूं क्योंकि वे कोविड के इस भयानक दौर में अपनी क्षमता से आगे जाकर लोगों की काफी मदद कर रहे हैं।
जीवन में कुछ लोग बहुत जरुरी से होते हैं। उनके बिना आपका अपना दायरा पूरा नहीं होता। उनमें से ही हैं- अमित आर्या। हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर के मीडिया सलाहकार। अमित भरोसे और अपनेपन का दूसरा नाम हैं। मेरे जीवन में ऐसे लोगों की संख्या गिनी-चुनी है। फोन आया। सर, एक मित्र हैं – संजय पांडे। चंडीगढ से निकले हैं, सोनीपत तक आ गए हैं। उनके पिता जी नोएडा के आम्रपाली प्लैटिनम में रहते थे, उनकी मौत हो गई है। एक एंबुलेंस चाहिए नोएडा से गढ मुक्तेश्वर तक के लिए। मैंने बिना डिटेल्स साझा किए बस इतना ही ट्वीट किया कि एक मित्र के पिता का निधन हो गया है। अंतिम संस्कार के लिए नोएडा से गढमुक्तेश्वर तक के लिए एंबुलेंस मिल जाएगी क्या? ये दुनिया जिसे आभासी कहते हैं, निहायत अपनी है। बिल्कुल पास और जज्बाती। कई दोस्तों ने मदद के लिए लिखा। इसी दौरान देश के जाने माने कवि और प्रखर वक्ता कुमार विश्वास के दफ्तर का ट्वीट आया- सर, नंबर दे दीजिए हमलोग बात कर रहे हैं। मैंने नंबर दे दिया।
कुमार विश्वास ( वैसे मैं कुमार भाई कहता हूं) मेरे जीवन के उसी दायरे में आते हैं जिसमें अमित आर्या और कुछ और चुनिंदा दोस्त-भाई, जिनके बिना जीवन पूरा नहीं होता। जो आपके भरोसे और भाईचारे की दुनिया को लबालब भरकर रखते हैं। यारों के यार, जानदार और शानदार इंसान कुमार विश्वास। हमारे रिश्ते पर फिर कभी लिखूंगा लेकिन एक इंसान जो टके की बात और टनाटन कहने में ही जीता है, जिसने कहने और कह जाने के कारण क्या-क्या नुकसान नहीं उठाया है, उसकी सबसे बड़ी खूबी ये है कि वो 16 आने इंसान है। कुमार की दुनिया बड़ी है, लेकिन अपने सीमित। उनका दफ्तर आज लोगों का दुख कम करने और पीठ पर अपनों जैसा हाथ रखने में लगा रहता है। गाड़ी, ऑक्सीजन सिलेंडर, एडमिशन के लिए कई लोगों से निवेदन और ना जाने क्या-क्या। कुमार ना भी चाहें तो कोई सवाल नहीं कर सकता। लेकिन अपने जरिए अपने आगे रखे जानेवाले सवालों का जवाब देने के लिए कुमार विश्वास लोगों के बीच हैं। उनकी टीम ढूंढती रहती है कि कहां मदद पहुंचायी जा सकती है। यह कुमार की कथनी-करनी के संतुलन का उदाहरण है।
मैंने ऊपर जिन लोगों का जिक्र किया है, उनकी खूबी क्या है? वे बड़े बड़ों का सहयोग कर सुर्खियां बटोरने में यकीन नहीं कर रहे, बल्कि वे इस देश के साधारण और मदद के लिए मुंह ताक रहे लोगों की तरफ हाथ बढा रहे हैं। ऐसे लोगों को याद रखा जाना चाहिए। इनकी तरह हजारों लोग देश में लगे हुए हैं। मैं इन सबके जरिए उन लोगों को भी अपना प्रणाम भेज रहा हूं। अपने घरों में बैठकर अपनी जान की खैर मनाने वाले वैसे लोग जो खुद को सामाजिक सरोकार और देश हित से जोड़कर देखते हैं, उनको इनकी तरफ भी देखना चाहिए।

सब्र की सीमा जिस दिन टूटेगी व्यवस्था में बैठे सारे जिम्मेदार नापे जाएंगे...


कोरोना डायरी 3 मई  2021 

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 रोज एक मैसेज तो ऐसा रहता ही है कि सर अब परेशान मत होना। वे नहीं रहे या नहीं रहीं। एडमिशन से लेकर ऑक्सीजन तक, आईसीयू में एडमिशन दिलवाने से लेकर ब्लड प्लाज्मा तक- कई तरह की जरुरत के साथ लोग रोज बार-बार मैसेज या कॉल करते रहते हैं। परेशान लोग, रोते-बिलखते लोग, जिंदगी की भीख मांगते लोग। सबकुछ होने के बावजूद कुछ कर पाने में लाचार लोग। कुछ नहीं होनेक कारण बस जिंदगी की खैर मनाते लोग। 135 करोड़ लोग। डर से मरे हुए लोग। रोज-रोज मरते हुए लोग।

आज शैलेंद्र का दोपहर में मैसेज आया - सर, अब छोड़ दीजिए। ही इज नो मोर। शैलेंद्र मेरे पुराने कुलीग और मित्र रजत अमरनाथ के रेफरेंस से मुझतक पहुंचे। मैसेज किया, फोन किया । कोशिश इस बात की कर रहे थे कि उनके दो करीबी ( दोनों जवान ) बच जाएं। दोनों को कई दिनों से बुखार। एक का ऑक्सीजन लेवल 60 और दूसरे का 70 आ चुका था। एडमिशन के लिये रोज की लड़ाई चल रही थी। लेकिन कहीं कोई जगह नहीं। कोई सुनवाई नहीं। मैने भी लगातार कोशिशें की लेकिन उनका भी कोई फायदा नहीं हुआ। अजीब से हालात हैं। आप मरने की हालत में हैं, अगले दो-तीन दिन में मर जाएंगे यह भी पता है लेकिन इलाज नहीं हो सकता। लीबिया-सीरिया जैसी बदइंतजामी है। शैलेंद्र जिन दो लोगों को बचाने की लड़ाई लड़ रहे थे - उनमें से एक आज तड़प-तड़प कर मर गया। दूसरे की बारी कभी भी आ सकती है। यह भी हो सकता है कि सारा देश मर जाए। सिर्फ देश के भारी-भरकम, बड़े-बड़े नेता बचेंगे क्योंकि देश के सारे साधन-संसाधन और सुविधाओं पर उनका कब्जा है। उनके लिए सारी सहुलियतें हैं। आम नागरिक चाहे मालदार हो या गरीब, मौत के सामने निहत्था खड़ा है। बच गया तो उसकी किस्मत। मारा गया तो कोई कुसूरवार नहीं। नेता और व्यवस्था कभी दोषी नहीं होते। भगवान ना करे लेकिन आपके घर में कोई सदस्य बीमार हो जाए और आपको टेस्ट करवाना हो या फिर उसका इलाज- आपको यकीन हो जाएगा कि जिस देश में आप अपना कीमती वोट देकर सत्ता बनाते हैं, उसने आपके लिए क्या किया है!
पिछले एक साल में कोरोना से लड़ने के लिए जरुरी बंदोबस्त किये जा सकते थे। ऑक्सीजन प्लांट बिठाए जा सकते थे, ऑक्सीजन टैंकर बनाए जा सकते थे। तमाम अस्पताल बेड-ऑक्सीजन-दवा से लैस किए जा सकते थे। लेकिन नहीं हुआ। क्यों? निपट लापरवाही औऱ बेफिक्री! अब जागे हैं। लेकिन यह मान लीजिए कि जबतक चीजें पटरी पर आएंगी, हजारों-हजार घरों में मातम पसर चुका होगा। सवाल वही है - इसका दोष किसपर? केंद्र, राज्यों पर और राज्य केंद्र पर उंगली उठा रहे हैं। उधर लोग मर रहे हैं। मरते जा रहे हैं। ना आज इंतजाम है ना अगले कई दिनों तक रहने के आसार हैं। आंकड़ों और तस्वीरों का एक फरेबी खेल खेला जा रहा है। उससे तत्काल कुछ नहीं होनेवाला है। किसी एक दल को आप हत्यारा मत मानिए, सब हैं। ये एक दूसरे की गिरेबान पकड़ रहे हैं लेकिन इनको पता है कि इसी फर्जी लड़ाई से वो जनता को कंफ्यूजन में डाल सकते हैं। लोगों के क्रोध से खुद को बचा सकते हैं। आजतक कभी ऐसा लगा नहीं कि इतना बड़ा देश इस तरह अपाहिज और असहाय हो जाएगा, मगर कर दिया गया। अभी कुछ लोगों ने तड़प कर दम तोड़ा होगा, कुछ आनेवाले घंटों मे तोड़ेंगे...तोड़ते जाएंगे। इस देश में जो लोग हैं, उनकी सब्र की सीमा को कोई होगी ही! जिस दिन टूटेगी व्यवस्था में बैठे सारे जिम्मेदार नापे जाएंगे।

बंगाल के इस नतीजे के आख़िर कारण क्या रहे

बंगाल चुनाव के नतीजे 2 मई 2021  

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बंगाल में ममता बैनर्जी की पार्टी को प्रचंड बहुमत मिला है। इतने की उम्मीद तो ममता तो छोड़िए उनके चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने नहीं की होगी। 2016 के मुकाबले ज्यादा सीटें और वोट में 5 फीसदी से ज्यादा का इजाफा। गजब है। बीजेपी को तो समझ नहीं आ रहा होगा कि ऐसा हो कैसे गया! पते की बात ये है कि बंगाल में खेला होबे वाला पत्ता चल गया। बीजेपी आसोल पोरिबर्तन और सोनार बांग्ला करती रही, लेकिन ममता के आगे एक नहीं चली। बंगाल की जनता के फैसले को जब आप समझने की कोशिश करते हैं तो चार बातें बड़ी साफ साफ दिखती हैं।
बीजेपी का ममता पर हद से ज्यादा हमला करना -
चुनावी रण में बीजेपी भारी भरकम सेना के साथ बंगाल में उतरी थी। हर जिले हर गांव में बीजेपी के लोग मौजूद थे। एक माहौल तैयार किया गया कि ममता ने बंगाल का बेड़ा गर्क किया है। कटमनी औऱ टोलाबाजी ने लोगों का जीवन मोहाल कर रखा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तोइन मुददों को लेकर ममता के खिलाफ खिलाफ कार्पेट बॉम्बिंग की। बल्कि तीखे तंज वाले लहजे में दीदी ओ दीदी भी कहते रहे। उसी तीखेपन के साथ अमित शाह और पार्टी के बाकी नेता भी ममता पर हमला करते रहे। कई बार यह निजी भी हो गया। ममता के भतीजे अभिषेक बैनर्जी के की पत्नी से पूछताछ के लिए सीबीआई का घर चले जाना और ममता के पैर टूटने की मेडिकल रिपोर्ट मांगने जैसे मामलों ने बीजेपी का नुकसान ही किया। लोगों को यह सब ममता के साथ खड़ा करता रहा।
ममता का पैर टूटना और टीएमसी का बंगाल की बेटी के नारे को मजबूत करना-
प्रचार के दौरान ममता बैनर्जी का बांया पैर टूट गया। उनका इलाज हुआ, प्लास्टर चढा और करीब 48 घंटे बाद ममता फिर प्रचार के लिए निकल पड़ीं। वे स्ट्रेचर पर आतीं लोगों से बैठकर ही बात करतीं। ममता की चोट के बाद भी उनका तेवर जुझारुपन से भरा था। टीएमसी ने ममता को बंगाल की बेटी कहकर लोगों के बीच रखा और बीजेपी के लोगों को बाहरी बताया। कोशिश ये थी कि बंगाली समाज जो अपनी अस्मिता को लेकर संवेदनशील रहता है, उसकी नाजुक कड़ी को पकड़ा जाए। टीएमसी ने नारा दिया - 'बांग्ला निजेर मेये के ई चाए.' यानी 'बंगाल अपनी बेटी को ही चाहता है'. इस अभियान ने बंगाली समाज की चेतना को ममता से जोड़ने का काम किया।
ममता के खिलाफ एंटी इंकंबेंसी का ना होना -
ममता बैनर्जी की सरकार भले ही दस साल से है लेकिन उनको नापसंद करने का कोई मजबूत कारण बंगाल में नहीं था। बीजेपी ने आरोपों की लंबी फेहरिस्त रैलियों में और प्रचार में रखीं। लेकिन ममता की सादगी और स्ट्रीट फाइटर की उनकी इमेज के के कारण ये आरोप उनपर चस्पा नहीं हो पाए। अलबत्ता ममता ने बीजेपी को डिस्क्रेडिट करने की कोशिश की औऱ इसमें वो कामयाब दिख रही हैं। टीएमसी से बड़ी तादाद में नेता बीजेपी में आए। ममता ने उन तमाम नेताओं को बेईमान और दगाबाज कहा और यह मैसेज भेजने देने की कोशिश की कि बीजेपी ऐसे ही लोगों को अपने यहां जगह दे रही है जिनको उन्होंने पूछना बंद कर दिया था। टीएमसी से बीजेपी में आए ज्यादातर नेता चुनाव हार गए हैं।
बीजेपी के तुष्टिकरण के दांव का नहीं चलना -
मुस्लिम आबादी का कुल आबादी के एक तिहाई होने के बावजूद बंगाल का समाज उत्तर भारतीय राज्यों के समाज की तरह नहीं है. बीजेपी ने ममता बैनर्जी की सरकार को मुसलमान परस्त और हिंदू विरोधी साबित करने की बहुत कोशिश की। ममता पर इसका दबाव भी नजर आया जब उन्होंने खुद के ब्राम्हण और शांडिल्य गोत्र से होने की बात कही। इस बयान को बीजेपी ने काफी उछाला भी लेकिन ऐसा लग रहा है कि इसका वोटर पर कोई असर पड़ा नहीं। उधर मुस्लिम मतदाता ममता के साथ पूरी ताकत से खड़ा था। और इतना कि अब्बास सिद्दीकी और ओवैसी का खाता नहीं खुल पाया। उधर कांग्रेस और लेफ्ट का भी बंगाल के इतिहास में अबतक के सबसे खराब प्रदर्शन रहा है। सच पूछिए तो प्रदर्शन ही नहीं है।

नेताओं पर नरसंहार का मुकदमा क्यों नहीं चलना चाहिए?

कोरोना डायरी 29 अप्रैल 2021 

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इस देश में अगर आम आदमी की आबादी मिलकर एक इंसान में तब्दील हो जाए तो उसका रुप इतना वीभत्स होगा कि पहचानना मुश्किल होगा। शरीर का रोम-रोम छलनी दिखेगा. छल-कपट, शोषण-दमन, फटकार-दुत्कार, लतियाने-जुतियाने, आघात-विश्वासघात से वह इतना छिला-उधड़ा होगा कि चमड़ी तक दरारें-वरारें नज़र आएंगी। एक-एक आदमी अपने-अपने दुर्भाग्य और दुर्दिन का बोझ लिए उम्मीद की मृगतृष्णा (फरेब) के पीछे लड़खड़ाता चलता रहता है। यह फरेब राजनीति गढती है औऱ गढती जा रही है।
कल से मेरी बेटी ने मुझसे कई बार हाथ जोड़कर कहा कि पापा शौर्या के दादा को बचा लो। शैर्या मेरी बेटी की दोस्त औऱ उसके दादाजी संतोष गुप्ता। कोविड से उनकी हालत बिगड़ रही थी और बेटी की दोस्त उससे बार-बार कह रही थी कि अपने पापा को बोलो मेरे दादाजी के लिए कुछ करें। .मैंने ना सिर्फ पोस्ट और ट्वीट किया बल्कि दो विधायकों को क़ॉल भी किया। फॉलोअप भी किया। लेकिन एक अच्छे-खासे परिवार का मुखिया सबकुछ होते हुए तड़प कर मर गया। वेंटिलेटर चाहिए था, नहीं मिला। लाख हाथ पांव मारने, रिरियाने-गिड़गिड़ाने के बावजूद।
मेरी बेटी ने मुझे शाम में फोन किया। आवाज भर्राई हुई थी। पापा। मैंने कहा- हां बेटा। आप शौर्या के दादा जी के लिए अब किसी को मत बोलिएगा। आवाज लड़खड़ा रही थी। मैंने पूछा- क्या हुआ बेटा? वो फूटकर रोने लगी। मैं पूछता गया बेटा क्या हुआ? उसको जहां सांस आई वहां बोली - ही इज नो मोर। आई थिंक दिस वॉज ओनली बिकॉज ऑफ मी। आई डिड नॉट प्रेशराइज यू दैट मच। मैंने कहा नहीं बेटा आपने मुझसे बार बार कहा और मैंने भी बार-बार कोशिश की। हम उनको नहीं बचा पाए क्योंकि इस शहर में वेंटिलेटर नहीं है। यहां इंसान के पास पैसे बहुत हो सकते हैं लेकिन जीने के लिए ऑक्सीजन नहीं है, वेंटिलेटर नहीं है। वह सारी जायदाद के बावजूद मर सकता है। मैंने बेटी को समझाने की कोशिश की कि गलती उसकी नहीं है। दरअसल यह इस सिस्टम का दोष है, जिसमें हम जी रहे है। मैंने किसी तरह उसको चुप कराकर फोन रखा और देर तक परेशान रहा।
एक छोटी सी बच्ची एक बुजुर्ग को बचाने के लिए जरुरी कोशिश ना कर पाने के अपराध बोध में मरी जा रही है और इस देश के नेता इतनी बड़ी तादाद में लोगों के मरने के बावजूद खुद को सही ठहराने में लगे हैं। एक दूसरे के सिर टोपी पहनाने और तमाम तरह के फरेब गढने में लगे हैं। हफ्ते भर से ऑक्सीजन का संकट है और अब भी है, मगर आसमानी किले बनाए जा रहे हैं। दरअसल इस देश में अभी जो कुछ हो रहा है वह नरसंहार जैसा अपराध है। मगर कोई नेता इसके लिए गुनहगार नहीं है। भला क्यों? एक हत्या पर एफआईआर दर्ज होती है, मुकदमा चलता है, सजा होती है। क्या देश में इतनी बड़ी तादाद में बदइंतजामी और लापरवाही के चलते लोगों की मौत का गुनहगार तय नहीं किया जाना चाहिए? क्या जांच के लिए कोई कमीशन नहीं बैठना चाहिए जो दो महीने में रिपोर्ट सौंपे औऱ जो भी या जितने भी अपराधी तय होते हैं उसको सजा दी जाए? कम से कम दोषियों को आजीवन राजनीति से बाहर किया जाए। लोग जितनी तकलीफ, डर और लाचारी में है, उसकी कोई सीमा नहीं है। एसी कमरों में और सुविधा से भरी जिंदगी जी रहे लोगों को कैसे मालूम होगा कि लोग किस तरह ऑक्सीजन-सिलेंडर के लिए भाग रहे हैं। अगर सिलेंडर मिल गया तो ऑक्सीजन के लिए धक्के खा रहे हैं। बेचैन और बदहवाश हैं क्योंकि कहीं किसी की जिंदगी सांसों के लिए तड़प रही है।
जो भर्ती हो गया उसे अस्पताल कहता है बेड है लेकिन ऑक्सीजन ले आओ। जो भर्ती नहीं हो सका उसको बचाने के लिए ऑक्सीजन ढूंढने-लाने में परिवार लस्त-पस्त हुआ पड़ा है। बहुत भयावह और हाहाकारी हालात हैं। ऐसी-ऐसी मुसीबत में फंसे लोग फोन करते हैं- ऐसे बिलखते हैं कि रुह दहल जाती है। हर बात की लड़ाई है यहां। सिम्पटम हैं तो पहले इस बात के लिए लड़िए कि टेस्ट कैसे होगा। अगर हो गया तो पांच-सात दिन रिपोर्ट के लिए इंतजार कीजिए। इस दौरान हालत बिगड़ गई तो अस्पताल लेगा नहीं क्योंकि रिपोर्ट नहीं है। जबतक रिपोर्ट आएगी हो सकता है तबतक मरीज अल्लाह को प्यारा हो जाए। गनीमत रही कि वो जिंदा रहा तो अस्पताल-इलाज के लिए भागना-हांफना पड़ेगा। किस्मत या जुगाड़ से कोई भर्ती हो गया तो वहां के हालात से ही अवसाद में चला जाता है। उधर, घरवाले परेशान रहते हैं कि मरीज का क्या हुआ। बताया ही नहीं जाता। कोविड वॉर्ड ज्यादातर जगहों पर गैस चैंबर वाला टार्चर सेंटर है। बेटी का फोन रखने के बाद आज मैं खुद को कितना लाचार महसूस कर रहा था, उसे मैं उसको बता नहीं सकता था। मैं नहीं सह सकता था कि बेटा मैं दिनभर हाथ जोड़ता हूं, मिन्नतें करता हूं, दोस्तों को बार-बार परेशान करता हूं, मेरे पास ऐसा कोई अधिकार नहीं कि चाह देता तो तुम्हारी दोस्त के दादा को भर्ती करवा देता। यह तो देशभर के दोस्तों के बूते है कि लोगों के लिए लड़ता हूं और ज्यादातर को इलाज मिलता है। जो लोग साथ दे रहे हैं उनमें से अधिकतर को मैं सीधे तौर पर नहीं जानता, लेकिन उनको मेरी कोशिश नेक लगती है और वे भले लोग इंसानियत निभाने में खुद को खपा रहे हैं। आज की भयानक स्थिति में अपने देश के लोगों के लिए जो संभव है कर रहे हैं।लेकिन सवाल इस देश की राजनीति और राजनेताओं का है। यह जमात आखिर कैसे इतने बड़े अपराध के बावजूद बिना नपे निकल सकती है?

सरकार के लिए पत्रकार फ्रंट वॉरियर्स क्यों नहीं ?

कोरोना डायरी 28 अप्रैल 2021 

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कोरोना के इस ख़ूनी कहर में पत्रकार भी बड़ी तादाद में चपेट में आए हैं। रोज कई साथियों की मौत की खबर देखता हूं। सोशल मीडिया भय और मातम का मंच बना हुआ है। कोई ऐसा मीडिया संस्थान नहीं है जिसका कम-से-कम आधा हिस्सा ( संख्या के लिहाज से) ध्वस्त नहीं हो गया हो। उनमें से कइयों की जान चली गई। मेरे साथी मनोज मनु ने कल एक पोस्ट ह्वाट्सैप पर भेजी। सहारा समय मध्य प्रदेश-छत्तीसगढ की एंकर निकिता सिंह तोमर को समय पर इलाज नहीं मिल सका औऱ उनकी जान चली गई। वेंटिलेटर की जरुरत थी, लेकिन इंतजाम जबतक हुआ बहुत देर हो चुकी थी। कुछ मित्रों ने न्यूज नेशन के एंकर साकेत, वीडियो जर्नलिस्ट मनोज सिंह और सेटकॉम (टेक्नीकल डिपार्टमेंट का एक हिस्सा) सुरेंद्र की तस्वीरें डालकर उनको याद किया है। उनके जुझारूपन, उनकी लगन और उनके अपनेपन पर आंसू बहाए हैं। जनता टीवी के एंकर साकेत सुमन को भी कोरोना ने लील लिया। उनके कई करीबी मित्रों ने सोशल मीडिया पर अपना दर्द साझा किया है।
देश भर में ऐसे अनगिनत नाम है- बिहार के मधेपुरा से लेकर महाराष्ट् के बीड तक- जो इसलिए मारे गए क्योंकि वे फर्ज निभा रहे थे। वे पत्रकार थे। घर में बैठकर खुद को बचाने की गुंजाइश उनके पास नहीं थी। या शायद वो ऐसा चाहते भी नहीं थे। जो लोग टीवी में काम करते हैं उनको यह बात ठीक से समझ में आएगी कि चाहे वो सेटकॉम में बैठा साथी हो या मैदान पर काम करता रिपोर्टर, सबका जोखिम कमोबेश बराबर है। आप घर से बाहर निकलते हैं औऱ खतरे के दायरे में आ जाते हैं। आपकी जिंदगी वहीं से मौत से खेलने लगती है। काम के दौरान तमाम एहतियात के बावजूद आपके सिर पर खतरा मंडराता रहता है। रोजाना आपके साथी पॉजिटिव होते रहते हैं और आप अपने धराशायी होने तक काम करते रहते हैं। चारों ओर कोहराम-सा है लेकिन पत्रकार जो बचा है, वह डटा है। मैं यह मानता हूं कि इस दौर में जब इंसान घर के अंदर भी मौत के आतंक से दहला हुआ है, उस समय जो लोग निकलकर अपना काम पूरी शिद्दत से कर रहे हैं- वे जिगर वाले लोग हैं। उनका दूसरा कोई इम्तिहान हो ही नहीं सकता। उनके लिए इससे बड़ा कोई और सर्टिफिकेट भी नहीं। ये सारे लोग मौत की आंख में आंख डालकर काम करते हैं। लेकिन मुझे हैरत इस बात पर रही कि सरकार ने जब फ्रंट वॉरियर्स तय किए तो उसमें पत्रकारों को नहीं रखा। वैक्सीन जिनको उम्र की सीमा के बगैर लगनी थी उनमें पत्रकार नहीं थे। डाक्टर, नर्सिंग स्टाफ, सफाईकर्मी, पुलिसवाले वगैरह तो उस दायरे में आए लेकिन जो तबका दिन रात सड़क पर रहा, अस्पतालों के बाहर, लोगों के बीच रहा- उसको हाशिए पर डाल दिया गया। यह एक तरह की अमानवता औऱ नाइंसाफी रही। पत्रकार विरादरी को व्यवस्था ने एक हथियार या औजार के तौर पर इस्तेमाल किया लेकिन उसके जोखिम, जरुरतों की कभी फिक्र नहीं की। जो संस्थाएं पत्रकारों की खातिर बनी हैं, ऐसी बातें उसकी समझ तक ही नहीं पहुंचती। कोई ऐसा संगठन नहीं बना जो पत्रकारों के जीवन बीमा, स्वास्थ्य बीमा, यात्रा सुविधा जैसी सहूलियतों की चिंता करे। या फिर ये फ्रंट वॉरियर्स में उनको शामिल करने के लिए लड़े। विशेषतौर पर टीवी इंडस्ट्री में बड़ी आबादी 45 से नीचे की है और अबतक अगर वो असुरक्षित रही या फिर उसकी जान गई तो इसलिए कि मीडिया के लोग फ्रंट वरियर नहीं माने गए। उनको वैक्सीन से दूर रखा गया। अब एक मई से जब देशभर को वैक्सीन लगेगी तो उसी का हिस्सा मीडियाकर्मी भी होंगे। सच तो ये है कि हर पत्रकार बिरादरी में होते हुए भी अकेला योद्धा है। उसका अपना मोर्चा है। अपनी जीत है औऱ अपनी हार भी।
मैं अभी भड़ास के लिंक्स देख रहा था तो लगा कि कितने पत्रकार कोरोना की चपेट में आए। ये तो एक जगह दर्ज मामले हैं. ऐसे हजारों मामले होंगे।
कई अख़बारों में जनरल मैनेजर रहे बीरेन्द्र शाही का निधन ☛ https://www.bhadas4media.com/birendra-shahi-aakash-nikita/
निवाण टाइम्ज़ के वरिष्ठ पत्रकार की मौत ☛ https://www.bhadas4media.com/nivan-times-raju-mishra-death/
बिलासपुर के पत्रकार गणेश तिवारी का निधन ☛ https://www.bhadas4media.com/ganesh-tiwari-bilaspur-death/
रवीश कुमार भी कोरोना की चपेट में आए! ☛ https://www.bhadas4media.com/ravish-bhi-corona-ki-chapet.../
अमृत विचार अख़बार के दर्जनों मीडियाकर्मी संक्रमित होने के बाद स्वस्थ हो गए ☛ https://www.bhadas4media.com/amrit-vichar-ke-karmiyon-ne.../
बनारस के वरिष्ठ पत्रकार बद्री विशाल भी नहीं रहे ☛ https://www.bhadas4media.com/badri-vishal-corona-death/
वरिष्ठ पत्रकार अनिल वार्ष्णेय को भी कोरोना ने छीन लिया ☛ https://www.bhadas4media.com/anil-varshney-corona-death/

क़तार और हाहाकार का मारा देश

कोरोना डायरी 27 अप्रैल 2021 

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कल रात के 8 बज रहे थे। मेरे पास मेरे पुराने सहयोगी और छोटे भाई जैसे विवेक भटनागर का फोन आया। आवाज में बेचैनी थी। हां विवेक- मैने फोन उठाते ही कहा। सर, बहुत तनाव में हूं। बड़ी बहन कोटा में हैं, एमडीएस अस्पताल के बाहर हैं, उनका ऑक्सीजन लेवल 70 आ गया है। उनको तुरंत आईसीयू चाहिए सर।
मैंने कहा डिटेल्स भेजो। परेशान मत हो, ऊपरवाला है। थोड़ी देर में डिटेल्स आ गई। मैंने पोस्ट किया, ट्वीट किया और उसके बाद अपने मित्र आशीष मोदी को फोन लगाया। आशीष जैसलमेर के कलेक्टर हैं। मैंने कहा आशीष भाई- ऐसे-ऐसे है, विवेक छोटे भाई जैसा है और बहन की जान मुश्किल में है। आपकी मदद चाहिए। उन्होंने कोटा के कलेक्टर से बात की, सीएम ऑफिस का हेल्पडेस्क सक्रिया हुआ, उसने मेरे ट्वीट पर जवाब दिया और विवेक की बहन के पास फोन चला गया। आप सुधा अस्पताल में चलिए, वहां आपका एडमिशन हो जाएगा। पांच मिनट बाद जब आशीष भाई का फोन आया तो उन्होंने यह बात बताई। कहा कोटा का सबसे अच्छा अस्पताल है। एडमिशन हो रहा है, आईसीयू मिल जाएगा और बाकी कोई जरुरत होगी तब भी आपको चिंता करने की जरुरत नहीं है। मैंने धन्यवाद कहकर फोन रखा। विवेक की बहन की स्थिति ठीक होने लगी लेकिन आज सुबह रेमडेसिविर की जरुरत पड़ गई। विवेक ने मुझे फोन किया। मैंने फिर आशीष भाई का नंबर डायल किया। उन्होंने अस्पताल के मालिक से बात की और इंजेक्शन दे दिया गया। अभी यह पोस्ट लिखते लिखते आशीष भाई का मैसेज ड्रॉप हुआ जिसे उनको अस्पताल ने शायद भेजा है। लिखा है मरीज वेंटिलेटर सपोर्ट पर है। 90 का सेचुरेशन लेवल मेंटेन हो रहा है। बीमारी ने बहुत नुकसान किया है लेकिन सुधार हो जाना चाहिए। यानी वे पूछ-परख में लगे हुए हैं। आशीष मोदी ने जो काम किया वो मेरी मित्रता में भले किया लेकिन वे ऐसे अधिकारी हैं जो अपनी जिम्मेदारी में इंसानियत का उसूल डालकर चलते हैं। मैंने बहुत सारे जरुरतमंद लोगों की ठीक-ठाक मदद करते हुए उन्हें देखा है। बच्चों की पढाई-लिखाई मे सहयोग करते पाया है। उनकी सजगता और सक्रियता से एक जान नहीं बची बल्कि एक परिवार बिखरने से बचा। यह खुद में जीवन की बड़ी उपलब्धि है। उनके ऊपर कभी सही समय पर अलग से लिखूंगा।
मेरे साथ इस देश के वे तमाम लोग आ गए हैं जो इस भीषण समय में लोगों की मदद करना चाहते हैं। वे कुछ नहीं कर पाने की स्थिति में खुद को नहीं रहने देना चाहते। ऐसे ही हैं कानपुर के कुमार प्रियांक। 60 साल की एक महिला रेणु तुली शहर के नारायणा मेडिकल कॉलेज में कोविडग्रस्त होकर भर्ती थीं. कल जब दोबारा टेस्ट रिपोर्ट आई तो निगेटिव हो चुकी थीं। मगर शरीर की हालत ऐसी थी कि तमाम मेडिकल सपोर्ट लगे हुए थे। अस्पताल कह रहा था- अब आप इनको ले जाइए। कौन ले जाए? बुजुर्ग पति जिनकी खुद की हालत ठीक नहीं। घर में और कोई है नहीं। कहीं भी ले जाएंगे तो अस्पताल में ही ले जाना होगा क्योंकि सपोर्ट सिस्टम तो चाहिए ही। मेरे पास सूचना आई। मैंने मुश्किल बताई। पोस्ट पढते ही कुमार प्रियांक मिशन पर लग गए। थोड़ी देर में उनका जवाब मेरी पोस्ट पर आ गया। हू-ब-हू रख रहा हूं। “भाई साहब, मैंने बोलवा दिया है स्वर्ण सिंह जी से जो कानपुर म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन के डिप्टी कमिश्नर हैं, उनसे। हॉस्पिटल रेणु तुली जी को अभी 2-3 दिनों तक वहीं रहने देगा। बाद में मुझे रेणु जी के यहां से सूचना आ गई। सर, अभी दो तीन दिन यहीं रह लेंगे।
सुबह में मेरी मित्र और कुलीग मीनाक्षी जी का फोन आया। बोलीं मैंने आपको व्हाट्सैप किया है। पटना में मदद की जरुरत है। एक जानकार हैं, हालत नाजुक है, ऑक्सीजन तुरंत चाहिए। मैंने मैसेज के आधार पर पोस्ट डाली, ट्वीट किया। “पटना के मित्रों से मदद चाहिए। आप लोगों ने बहुत सहयोग दिया है। फिर चाहिए। इमरान का oxygen लेवल गिर रहा है। ज़रूरी ये है कि उन्हें किसी अस्पताल में भर्ती करवाया जाए।“ इसके नीचे डिटेल्स डाल दिए। इस पोस्ट पर पत्रकार रॉय तपन भारती ने एक पन्ना श्रीमाली जी से आग्रह किया। पन्ना जी ने फोन लगाया, नहीं लगा। भारती जी ने कहा- आप अपना बेस्ट कर दो। श्रीमाली जी लगे रहे औऱ इमरान के पास ऑक्सीजन चली गई। इस देश में ऑक्सीजन जिसको मिल गई वह किस्मतवाला है। दिल्ली एनसीआऐर में तो हाहाकार है। लोग तड़प रहे हैं लेकिन अस्पताल एडमिशन इसलिए नहीं ले रहे क्योंकि अब ऑक्सीजन नहीं है।
बनारस में 70 साल की सविता सिंह साँस-साँस के लिए तड़प रही थीं। उनको वेंटिलेटर की सख्त जरुरत थी। मैंने डिटेल्स डालने के साथ लिखा- समय कम है,प्लीज़ मदद करें। एक सज्जन ने संदेश पढा और सविता सिंह का अस्पताल में दाखिला करा दिया । पता चला है उनको वेंटिलेटर मिल गया है। जो इंसान सविता सिंह का जीवनदाता बना, वो कौन है नहीं जानता। लेकिन वो अपना काम कर गया। शायद सविता सिंह ठीक हो जाएं तो उनके ढूंढने पर भी ना मिले, मगर वो आदमी इंसानियत का एक अध्याय लिख गया।
देश सचमुच एक खूंखार तूफान में फंसा है। लोगों की जान पर ऐसी कभी बनी ही नहीं और ईश्वर ना करे फिर कभी ऐसी बने। सड़क पर तड़प-तड़प कर लोग मर जा रहे हैं। सरकारी अस्पतालों में हालत भयावह है। दूर-दराज़ के सदर अस्पतालो में तो मौत का और भयावह तांडव चल रहा है। इसका एक उदाहरण रख रहा हूं। सुनिए, रुह कांप जाएगी। मेरे बड़े से खानदान में एक चाचा गांव में कोविड पॉजिटिव हो गए। सारे गांव में हड़कंप मच गया। चाचा को गांव से ले जाकर जिले के सदर अस्पताल में भर्ती करवाया गया। छपरा में सदर के अलावा कोविड की कोई और अस्पताल नहीं है। ऑक्सीनज आपको सिर्फ सदर अस्पताल में ही मिलेगी। मैंने कलेक्टर साहेब को फोन किया। नेक आदमी है। मेरे फोन करते ही उन्होंने सीएमओ को कहा और सीएमओ साहेब चाचा को देखने गए। कल चाचा अस्पताल से भागने को तैयार। भाई का फोन आया कि आप इनसे एक बार बात कर लीजिए। समझा दीजिए, डिप्रेशन में जा रहे हैं। मैंने कहा क्यों, क्या हुआ? उसने कहा रात में इनके आसपास के मरीज छपपटा छटपटा कर मर गए। मरीज वॉर्ड में हैं, ऑक्सीजन दी जा रही है लेकिन ना नर्स है ना डॉक्टर। अब जो छटपटा रहा है, ये पता ही नहीं है कि उसको क्या हुआ। ऑक्सीजन लेवल कितना है, है भी कि नहीं है या उसको कुछ और चाहिए- यह देखनेवाला कोई है ही नहीं। इनके वॉर्ड में दिन में दो पहले ही निपट गए थे और रात में वो सब सीन देखकर ये बहुत डर गए हैं। मैंने चाचा से बात की। कहा- आपको कुछ नहीं होगा, आपका ऑक्सीजन लेवल तो अब बिना सोपोर्ट के 93 आ गया है। आप ठीक हो रहे हैं। बोले- हमको ऑक्सीजन के साथ घर भेज दो। मैं घर पर ही ठीक हो जाऊंगा। मैंने भाई को बोला कि ऑक्सीजन का इंतजाम करो और इनको घर ले चलो। उसका फोन रखने के बाद राकेश जो भाई जैसे ही हैं, पत्रकार है, उनको फोन किया। मैंने कहा- सुनो, किसी भी कीमत पर चाचा के लिए ऑक्सीजन सिलेंडर का इंतजाम करो, उनको घर भेजना है। राकेश ने कहा – भैया चिंता मत कीजिए, अभी करवाता हूं। वो इंतजाम अब जाकर हुआ है। कल चाचा को अस्पताल से निकालकर घर पर ही इलाज के लिए भिजवा दूंगा। लेकिन वो इतने डरे हुए हैं कि छपरा सदर अस्पताल मे आज की रात उनके भीतर कल का भय औऱ भारी कर देगी, इसका अंदाजा मुझे है।
सुप्रीम कोर्ट केंद्र से पूछ रहा है कि बताओ कोविड से निपटने का नेशलन प्लान क्या है? बताओ ऑक्सीजन और कोविड बेड की स्थिति क्या है? वैक्सीन का क्या प्लान है, वगैरह, वगैरह। सरकार भी कुछ ना कुछ कह ही देगी। लेकिन सच ये है कि ना तो कोई प्लान है और ना लोगों का मरना थम रहा है। लोग बेतहाशा परेशान हैं। पूरा देश कतार में है। टेस्ट के लिए लाइन, अस्पताल में एडमिशन के लिए लाइन है और मरने के बाद श्मशान में जलाने के लिए लाइन। कल दोपहर 12 बजे मेरे मित्र मोहित ने एक मैसेज किया। सर, हिंडन घाट पर एक जाननेवाला परिवार अंतिम संस्कार के लिए लाइन में है। वे लोग कह रहे हैं आपका नंबर दो बजे रात में आएगा। अब अंदाजा लगाइए कि हिंडन घाट जहां सात-आठ शव एक साथ जलाने का इंतजाम है, वहां सुबह कहा जा रहा है कि रात दो बजे नंबर आएगा, तो कितने लोग मर रहे हैं। मेरे मित्र का आग्रह ये था कि मैं अगर पोस्ट कर दूं और किसी सही आदमी को कह दूं तो उनलोगों को इतना इंतजार नहीं करना पड़ेगा। मैंने पोस्ट किया और फिर फोन भी। उनको शाम 6 बजे तक फारिग कर दिया गया।
झांसी में श्रवण कुमार का ऑक्सीजन लेवल 70 चला गया था। ओ निगेटिव ग्रुप के ब्लड प्लज्मा की जरुरत थी। मैंने झांसी के लोगों से निवेदन किया। उस पोस्ट पर एक धर्मेंद्र राजपूत ने पूजा यादव से मदद की अपील की। पूजा जी से फिर मैंने गुजारिश की। उन्होंने दो नंबर दिए। एक बंद था लेकिन दूसरा लग गया। बात हो गई है। कह रहे हैं कल तक प्लाज्मा मिल जाएगा। कहने का मतलब ये है कि कोई किसी को नहीं जानता। बस एक ही रिश्ता एक दूसरे को जोड़ रहा है- अपने लोग, अपना देश, अपनों की खातिर करने का जज्बा।
दिन भर मैसेज आते रहते हैं। फोन बजता रहता है। मैं सारे फोन उठाता हूं, मैसेजेज पढता हूं- जो जरुरी लगता है उसको पोस्ट-ट्वीट करता हूं। अब ऐसा हो गया है कि लोगों को लगता है इनके जरिए गुहार लगा दी तो कोई ना कोई, कहीं ना कहीं से मदद कर देगा। हर मामले में तो नहीं लेकिन ज्यादातर में ऐसा हो भी रहा है। यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है कि मैं इतने लोगों के काम आ रहा हूं। मैं दफ्तर के काम के साथ साथ इस जिम्मेदारी को निभा सकूं, इसकी खातिर अपने सोने और दिनचर्या के कुछ और काम से समय निकाला है।

ऐसे पत्रकारों पर नाज़ करने का मन करता है

कोरोना डायरी 25 अप्रैल 2021 

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पिछले बीस-बाइस वर्षों की पत्रकारिता में बड़े बड़े आतंकी हमले देखे, प्राकृतिक आपदाएं देखीं लेकिन इतने लंबे समय तक, इतने व्यापक स्तर पर, इतनी विनाशकारी और इतनी भयावह त्रासदी नहीं देखी। दुनिया घुटनों के बल है, इंसान हर पल मौत के साये में है, हर समय लोगों की जान जा रही है, सारा विज्ञान, शोध-चिकित्सा के सारे संसाधन आश्चर्यजनक तरीके से नाकाफी पड़ रहे हैं। सत्ता-व्यवस्था के सारे उपाय-उपक्रम नाकाम साबित हो रहे हैं। स्वयंभू शक्तिशाली देशों के अस्थि-पंजर ढीले हो चुके हैं। अर्थव्यवस्था अपाहिज हो चुकी है और समूची पृथ्वी पिछले एक साल से कोविड-19 के शिकंजे में छटपटा रही है।
आज की तारीख में दुनिया भर में कोरोना से संक्रमित लोगों का आंकड़ा 14 करोड़ 60 लाख पार कर चुका है। 30 लाख 70 हजार से ज्यादा मौतें हो चुकी है। भारत में पिछले 24 घंटो में ही लगभग साढे तीन लाख नए केस सामने आए हैं और 2600 से ज्यादा लोगों की जान गई है। अगर अबतक के नुकसान की बात करें तो लगभग एक करोड़ 39 लाख लोग भारत में संक्रमित हुए हैं और करीब एक लाख नब्बे हजार लोगों की मौत हुई है।
हालत ये है कि देश के तमाम राज्यों में बीमार लोगों का इलाज करने के लिए ऑक्सीजन नहीं है। ऑक्सीजन की कमी के चलते दिल्ली के एक बड़े अस्पताल जयपुर गोल्डेन में 25 लोगों की जान चली गई। समूचे एनसीआर में हाहाकार है। अस्पताल प्रशासन घंटे गिनवा रहा है। कहीं एक घंटे की ऑक्सीजन बची है। कहीं चार घंटे की। कहीं खत्म हो चुकी है। पिछले दो दिनों से तमाम अस्पतालों ने लोगों को भर्ती करना बंद कर दिया है क्योंकि ऑक्सीजन नहीं है। ज्यादातर लोग जो कोविड की चपेट में हैं, उनका ऑक्सीजन लेवल नीचे जा रहा है औऱ एक सीमा के बाद उनका अस्पताल में दाखिल होना जरुरी है। लेकिन अस्पतालों ने दरवाजे बंद कर दिए हैं। यह स्थिति पूरे देश में है। इसको आप क्या कहेंगे ?जबकि ऐसी आशंका पहले से ही थी कि कोरोना की दूसरी वेब ज्यादा खतरनाक और जानलेवा होगी। इंतजाम नहीं किए गए।
ऐसे में जहां कहीं भी हाथ पैर जोड़कर, व्यवस्था बनाकर, ना वाली स्थिति के बीच ही थोड़ी गुंजाइश निकालकर जितने भी लोगों का इलाज करवाया जा सकता है, कुछ लोग इस सेवा में लगे हैं। ये वैसे लोग है जिन्होंने इंसानियत और देश के मर्म को अपने अंदर बचाए रखा है। मैं ऐसे ही लोगों को जोड़ने का मंच बन चुका हूं।
कितनी कहानियां सुनाऊं! हर रोज ऐसी 50 घटनाएं होती हैं जिनको इंसान ताउम्र नहीं भूल सकता। ये उनलोगों से जुड़ी हैं जो जीवन बचाने के लिए चारों ओर भागते हैं, हर दरवाजा खटखटाते हैं औऱ आखिरकार कामयाब होते हैं। वे जीवनदाता हैं।
श्रीपाल शक्तावत, इस देश के प्रतिष्ठित पत्रकारों में गिने जाते हैं। राजस्थान में उनकी खासी इज्जत है। कल रात करीब 10 बजे मेरे एक सहयोगी का मैसेज आया - सर जयपुर में एक पत्रकार हैं अफजल किरमानी, उनकी हालत नाजुक है। ऑक्सीजल लेवल 50 चला गया है। जल्दी से आईसीयू चाहिए। मैंने अफजल के लिए ट्वीट किया और एफबी पोस्ट भी। इसके तुरंत बाद फोन उठाया- वो सारे डिटेल्स जो मैंने पोस्ट किए थे, श्रीपाल जी को व्हाट्सैप मैसेज के जरिए भेजे । इसके बाद उनको व्वॉयस मैसेज किया – श्रीपाल जी, इस आदमी की जान हर कीमत पर बचनी चाहिए। आप अपने सारे घोड़े खोल दीजिए। इसके बाद श्रीपाल जी लग गए। अपने मित्रों को भी लगाया और सीएमओ से भी गुजारिश की। आखिरकार अफजल किरमानी को आईसीयू बेड मिल गया। सुबह सुबह श्रीपाल जी ने मुझे मैसेज भेजकर इत्तला कर दी। श्रीपाल जी ने दिन में फेसबुक पर एक पोस्ट भी डाली जिसमें जो उन्होंने जो लिखा उसका एक अंश मैं हू-ब-हू यहाँ रख रहा हूं ताकि उनकी संजीदगी का अंदाजा हो सके।
“सन्देश आया तब अफ़ज़ल का ऑक्सीजन लेवल 51 था और अस्पताल मिल नहीं रहा था । सीएमओ के एक वरिष्ठ अधिकारी समेत कई मित्रों से गुजारिश की । व्यवस्था हुई तब तक ऑक्सीजन लेवल 40 तक चला गया । अब अफ़ज़ल अस्पताल में है और ऑक्सीजन सपोर्ट पर ज़िन्दगी की जंग लड़ रहा है । राणा यशवंत जी को उसकी खैरियत और अस्पताल/ऑक्सीजन के इंतजाम का जवाबी सन्देश भेजा तब जाकर सुकून मिला।”
कल जब अफजल अपनी जिंदगी जिएंगे और उनकी मुलाकात जब भी श्रीपाल शक्तावत से होगी तो उनके अंदर अफजल को खुदा दिखाई देगा।
ऐसे खुदा मैं रोज देख रहा हूं। बीती रात ही फेसबुक मैसेंजर पर एक महिला लगातार मैसेज कर रही थीं। चूंकि मैसेज बेहिसाब आ रहे हैं तो मैं जरुरी केस उठाने के लिए सरसरी निगाह सबपर डालता जाता हूं। उनका मैसेज बार बार ऊपर आ जाता था क्योंकि वे भेजे जा रही थीं। उनका नाम है गुप्ता रिखी। 70 साल के ससुर का ऑक्सीजन लेवल 65 के आसपास था। उनको ऑक्सीजन सिलेंडर या फिर ऑक्सीजन बेड की सख्त जरुरत थी। हालत लगातार बिगड़ रही थी औऱ मुझे जवाब देने में देरी हो रही थी तो उन्होंने मैसेंजर कॉल किया। मैंने कहा – समय दीजिए, कुछ करता हूं। मैंने फेसबुक पर पोस्ट डाली, ट्वीट किया और उस इलाके में मेरे एक दो जानकार थे, उनको फोन किया। बहुत देर की कोशिश के बाद भी जब कुछ नहीं हुआ तो मैंने दोबारा रीपोस्ट और रीट्वीट किया। इसे एबीपी में एंकर आदर्श झा ने पढ़ा और फिर मुझे फोन किया। आदर्श ने कहा कि सर वो आपका जो उत्तमनगर वाला केस है, उसके बारे में मैने आम आदमी पार्टी के विधायक संजीव झा से बात की है। वे आपके ट्वीटर हैंडल को फ़ॉलो भी कर रहे हैं। कहा है काम हो जाएगा। आदर्श उन पत्रकारों में हैं जो लखनऊ से लेकर नोएडा-दिल्ली तक लोगों की मदद में आजकल लगे रहते हैं। मैंने संजीव झा को मैसेज किया। कहा आपसे मदद की उम्मीद है। उन्होंने जवाब भेजा - आप निश्चिंत रहिए, काम होगा। रात 10 बजे के आसपास मुनिरका से सिलेंडर दिलवाया गया। गुप्ता रिखी ने लंबा चौड़ा धन्यवाद लिखा और यह भी बताया कि वो डीडी में काम करती हैं। मैंने जवाब दिया- आप सब ठीक रहें। मेरी शुभकामना।
कल ही वरिष्ठ टीवी पत्रकार रॉय तपन भारती का मैसेज आया और उसके साथा आधार कार्ड की फोटो भी। लिखा था-
अभिनंदन
मिश्रा नौजवान पत्रकार हैं। संडे गार्डियन, लंदन के यहां ब्यूरो चीफ है। मानेसर में रहते हैं। हालत लगातार खराब होती जा रही है, ऑक्सीजन लेवल 80 तक आ गया है। किसी अस्पताल में एडमिशन नहीं कराया गया तो जान का खतरा हो सकता है। पढ़ने के बाद मैंने पोस्ट डाली और फिर गुड़गांव-मानेसर के अपने मित्रों को सक्रिय किया। घंटो की जद्दोजह के बाद अभिनंदन को अस्पताल मिल गया। तपन भारती जी का फेसबुक पर ही जवाब आया – “ राणा य़शवंत जी, आपके और आपके साथियों के कारण अभिनंदन को गुड़गांव के अस्पताल में बेड मिल गया। सुधार हो रहा है। कुछ घंटो के बाद मेरे ट्वीटर हैडल पर जब अभिनंदन का ट्वीट आया तो रोम-रोम सिहर गया। “ राणा जी बहुत धन्यवाद। फॉरईवर इन्डेब्टेड। मैंने जवाब दियाः आप बस ठीक हो जाओ। मेरी बहुत सारी शुभकामानाएं। अभिनंदन की हालत आज और बेहतर है।
टीवी पत्रकार विद्युत प्रकाश कोरोना पीड़ित होकर पटना के एक अस्पताल मे भर्ती है। मेरे पास मैसेज आया- विदुयुत प्रकाश की हालत बहुत खराब है। उनको मदद की जरुरत है। विद्युत मेरे साथ इंडिया न्यूज में काम कर चुके हैं। मैंने जो जानाकारी आई थी, उसके आधार पर फेसबुक पोस्ट डाली और ट्वीट किया। इसके बाद लगे हाथ प्रभाकर को फोन लगाया। सुनो, विद्युत कंकड़बाग में कोई प्रयास अस्पताल है उसमें एडमिट हैं। ऑक्सीजन लेवल बहुत नीचे है। उसके बारे में पता करो औऱ जो भी मदद है करवाओ। प्रभाकर का जवाब जैसा अक्सर होता है – जी भैया। थोड़ी देर बाद फोन आया- भैया अब वे ठीक हैं। वैसे वह अस्पताल ठीक है औऱ मैने भी बात कर ली है। इसलिए अब परेशान होने की जरुरत नहीं है। वे लोग पूरा ख्याल रखेंगे। यह बताने के बाद उसने बताया कि मैं सपरिवार कोरोना की चपेट में हूँ। घर का कोई सदस्य नहीं है जो बचा हो। मैंने कहा तो पहले क्यों नहीं बताए।मैं थोड़ा दुख़ी हुआ कि बीमार आदमी को ही मैंने काम पकड़ा दिया। बोला नहीं भैया घर बैठे-बैठे ये तो कर ही सकता था। प्रभाकर टीवी-18 के ब्यरो चीफ हैं औऱ पटना के अच्छे टीवी पत्रकारों में गिने जाते हैं।
विपिन चौबे, टीवी-9 भारतवर्ष के पत्रकार हैं। वे इंडिया न्यूज के लखनऊ ब्यूरो में भी काम कर चुके हैं। तेज़तर्रार जर्नलिस्ट हैं। उनका मैसेज आया। थोड़ी देर एक और आया। शायद इस खातिर की मैं उसको गंभीरता से लूं। लखनऊ में ४१ साल के गोविंद तिवारी एक अस्पताल में भर्ती थे। उनका ऑक्सीजन लेवल लगातार गिर रहा था। अस्पताल में ऑक्सीजन नहीं थी। इसलिए कहीं और ऑक्सीजन बेड की जरुरत थी। आर्थिक कमोजरी के चलते वे पैसे के बल पर कोई इंतजाम भी नहीं कर सकते थे। इसलिए उनको मददगारों से ही उम्मीद थी। मैंने इस बारे में पोस्ट और ट्वीट दोनों करने के बाद लखनऊ में दो लोगों से निवेदन भी किया। दोनों ने कहा सर कुछ समय दीजिए, कोशिश करते हैं। लेकिन इससे पहले कि कोई इंतजाम हो पाता हैं, कोरोना ने उनकी सांसे निचोड़ दीं। इस देश में गरीब आदमी बच्चों की पढाई और परिवार की दवाई के लिए संरकारी व्यवस्था पर निर्भर रहता है। इसलिए उनका बहुत मजबूत होना बेहद जरुरी है। लेकिन दुर्भाग्य ये है कि दोनों खस्ताहाल हैं।
शाम को किसी ने मैसेज भेजा कि सर अंकुर विजयवर्गीय की तबीयत बिगड़ गई है। अस्पताल नहीं मिल रहा है। उनके लिए कुछ कीजिए। मैंने पोस्ट डाली - अंकुर विजयवर्गीय छोटे भाई की तरह हैं। पत्रकारिता पढाते हैं। उनकी हालत बहुत खराब है। मुझे यह सूचना अभी मिली है। हर कीमत पर अंकुर को मदद मिलनी चाहिए। मेरे नोएडा और ग्रेटर नोए़डा के साथी अंकुर का एडमिशन जरुर करवाएं। इसके तुरंत बाद पंकज द्विवेदी ने फेसबुक पोस्ट पर कॉमेंट किया - सर अंकुर को शारदा अस्पताल नोएडा में बेड मिल गया है।
ऐसी कहानियों का सिलसिला-सा है। साधन-संसाधन और व्यवस्था के नाम पर चित्त पड़े इस देश में जीवन बचाने का उद्यम करनेवाले लोगों में मुझे ईश्वर दिखता है। ज्यादातर काम सिर्फ पोस्ट और ट्वीट के जरिए हो जाता है। लोग स्वत: जिम्मदारी उठाते हैं, इलाज का इंतजाम करवाते हैं औऱ फिर मुझे बताते हैं कि हो गया। कुछ मामलों में फ़ोन करके दबाव बनाता हूँ कि आप काम पूरा करो। सबसे बड़ा सच ये है कि अधिकतर मामलों में बचाने की कोशिश करनेवाला उस आदमी को जानता भी नहीं, जिसके लिए वह दूसरों के सामने हाथ तक जोड़ता है। अपने स्व और स्वार्थ से बाहर निकलकर पर औऱ परोपकार के लिए ऐसा पराक्रम देवता ही करता होगा।
दिनभर छोटी छोटी जानकारियां जो किसी के काम आ सकती हैं लोग भेजते रहते हैं। एक फेसबुक फ्रेंड हैं मेरी आरुषि चौहान। आज उन्होंने एक लिंक भेजा जिसके जरिए आप देशभर के अस्पतालों में बेड और दूसरी जरुरी सुविधाओं के बारे मे जान सकते हैं। वे दिनभर कुछ ना कुछ ढूँढकर मुझे भेजती रहती हैं। क्या स्वार्थ है उनका? बस यही कि किसी का भला हो जाए।
ज्योति सिंह भेज रही हैं कि पटना में किसी व्यक्ति को ब्लड और ऑक्सीजन की जरुरत हो तो फलां नंबर पर कॉल करें। मनोज खंडेलवाल दिल्ली-एनसीआर में ऑक्सीजन बेड वाले अस्पतालों की सूची दे रहे हैं जहां बेड खाली हैं। टीवी पत्रकार ताबिश रज़ा नोएडा ग्रेटर नोएडा के तमाम अस्पातालों में पूछताछ के लिए किससे और किस नंबर पर बात करें इसकी लिस्ट दे रहे है। धर्मेंद्र राजपूत फेसबुक मैसेंजर पर लिखते हैं- सर किसी को बचाने में आर्थिक मदद चाहिए तो बताइएगा। बीस-तीस हजार तुरंत करवा दूंगा। अगर बल्ड प्लाज्मा की आवश्यकता हो तब भी बोलिएगा। मेरे गाजियाबाद के रिपोर्टर जतिन गोस्वामी ग्रेटर नोएडा का एक वीडियो दे रहे हैं जिसमें मेडिकल इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर कर रहे हैं कि मरीज मेरे यहां आएं यहां कोविड के इलाज की बेहतर व्यवस्था है और एक्सपर्ट डॉक्टर हैं। कहते हैं सर मैंने ये वीडियो एक कैमरामैन को भेजा, उसने कॉल किया औऱ उसका वहां एडमिशन हो गया। आप शेयर कर दीजिए, ज्यादा लोगों तक पहुंच जाएगा। जतिन ने तो पिछले तीन दिनों में तीन ऐसे लोगों का एडमिशन करवाया है, जिनके यूं बचने की उम्मीद ना के बराबर थी। ये सब वैसे लोग हैं जो सड़क पर आपको आम आदमी ही नजर आएंगे लेकिन इनके अंदर ईश्वरीय अंश ज्यादा है। इनके जीवन में यह यश हमेशा रहेगा कि किसी को बचाने में इनका बड़ा योगदान रहा। मेरा इन सबों को हृदय की गहराइयों से प्रणाम है।
इतना कुछ लिखने के पीछे एक मकसद यह भी था कि मैं यह बता सकूं कि इस समय कोरोना से जूझ रहे लोगों को बचाने का जितना काम पत्रकार कर रहे हैं, उतना शायद ही कोई कर रहा होगा। इस देश मे पिछले कुछ वर्षों से पत्रकारिता औऱ पत्रकार दोनों बदनाम रहे हैं। यह पूरी संस्था ही शक और संदेह में घिरी रही है। इसके कारण किसी औऱ विमर्श और बहस का हिस्सा है, लेकिन आज उन्हीं पत्रकारों ने अपना लगा कर, खुद को कई घंटे खपाकर, देश के इस भयावह समय में लोगों का जीवन बचाने में मदद कर रहे हैं। आस छोड़ रहे लोगों की उम्मीद बन रहे हैं। मैंने हमेशा इस पेशे से मोहब्बत की है। इसको लोकतंत्र का बहुत जरुरी औऱ महत्वपूर्ण हिस्सा माना है। इसलिए तमाम तरह के दबावों के बावजूद किसी तरह के पूर्वाग्रह और पक्षपात के साथ पत्रकारिता नहीं की। मैं एक स्थायी मत लेकर की जानेवाली पत्रकारिता को हमेशा बाजारु और सस्ता ही मानता रहा हूं। चाहे वो इधर की हो या उधर की। ये हथियार देश को मजबूत और जनता को जागरुक करने के लिए है। ऊपर जितने लोगों का मैंने आज जिक्र किया वे इस मूल चिंता और विवाद से परे हैं। वे सिर्फ स्टोरी करनेवाले लोग हैं। जैसा है वैसा भेजनेवाले लोग। दिनभर देह पीटनेवाले लोग। लेकिन सिस्टम में अपनी साख रखनेवाले लोग भी। इन्हीं लोगों ने मैदान में अपनी जान की बाजी लगा रखी है। यही वो खुदा है जो मरी हुई उम्मीदों को हरा कर रहे हैं। बहुत शुक्रिया आप लोगों का और बहुत बरकत मिलेगी आप सबों को इस दुआ के साथ शुभ रात्रि!!

रिश्ते में कभी अपना पराया नहीं होता

 कोरोना डायरी 22 अप्रैल 2021 

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मेरे मित्र और बड़े भाई सरीखे विकास मिश्रा ने पोस्ट लिखी। किसी ने फोन किया कि पढिए। मैंने पढी। विकास जी सहज और मेरी तरह ही भावुक इंसान है। उन्होंने बहुत कुछ ऐसा लिखा जिसको लेकर मैं हमेशा असहज हो जाता हूं। रिश्ते में कभी अपना पराया नहीं होता। कुछ रिश्ते जीवन में कई अधिकार औऱ जिम्मेदारियों के साथ होते हैं, विकास जी के साथ भी वैसा ही रहा है। विकास जी ने जिस रंजना की खातिर बीती रात पोस्ट डाली, वह मुझे आधी रात दिखी। आजकल पोस्ट, मैसेज इतने होते हैं कि समय लगता है, देखने और जवाब देने में। आधी रात ही मैंने दिल्ली सरकार की तरफ से काम देख रहे अपने छोटे भाई जैसे दिलीप पांडे को वह मैसेज भेजा। जवाब तुरंत आया- भैया थोड़ा समय दीजिए। सुबह तक रंजना के करीबी का दाखिला हो गया। बाद में उसने मैसेज किया कि विकास भैया की तरह अब जीवन भर आप भी मेरे भाई । रिश्तों के रेशे अपनापा का पानी लिये हमेशा ताजा और मुलायम रहते है। विकास जी, जिंदादिल, खुशमिजाज, गुदगुदी से भरे और महफिली इंसान हैं। उनकी कोशिश के चलते एक इंसान की जिंदगी मुश्किल से बाहर आई।

आज एक डॉक्टर के बर्ताव से काफी तकलीफ हुई और गु्स्सा भी आया। देहरादून के मेरे एक मित्र हैं, उनकी भांजी गुड़गांव में रहती है। समूचा परिवार कोरोना पॉजिटिव है। किसी के भी बाहर जाने की हालत नहीै है। ससुर गुड़गाव के सेक्चर 84 के जेनेसिस अस्पताल में भर्ती है। उनको पहले आईसीयू में डाला, फिर निकाला। बाद में कहा चेस्ट इंफेक्शन है। आगे बताया कि बढ रहा है रेमडेसिविर देना पड़ेगा। मरता क्या ना करता। परिवार ने दिलवाया, लेकिन यह कैसे हुआ ये कहानी फिर कभी। एक डॉक्टर हैं वहां भावेश। बताया गया कि यही देखते हैं। मैंने फोन कर कहा कि देखिए गोपाल सिंह आपके यहां एडमिट हैं, उनके परिवार के सारे लोग पॉजिटिव हैं। कोई देखने नहीं आ सकता और आपलोग जिसतरह से परिवार को बता रहे हैं, उससे उनका डर बढता जा रहा है। खयाल रखिए। इस डॉक्टर का तेवर ऐसा हुआ कि जैसे उसने मरीज ने गुलाम रखे हैं। छूटते ही कहा सुनिए अगर प्रॉब्लम है तो आप खुद एक आदमी को रखिए जो उनकी देखरेख करे। गुस्सा मुझे भी आया था लिहाजा मैंने कहा कि सुनिए वो आपके मरीज हैं और उनका ख्याल रखना आपका काम है। इसके लिए आप मोटी रकम वसूल रहे हैं। आगे कुछ कहता उससे पहले डॉक्टर ने फोन रख दिया। बाद में मैंने इसकी शिकायत सीएम ऑफिस तक की। गोपाल सिंह फिलहाल उसी अस्पताल में हैं।
दिन में गाजियाबाद के वसुंधरा से एक सज्जन का मैसेज आया। एक परिचित का हवाल देकर लिखा था - मरीज की हालत नाजुक है। नाम विनय पांडे और ऑक्सीजन लेवल 35 है। पढते ही दिमाग चकरा गया। 35 के ऑक्सीजन लेवल का आदमी अभी तक है तो ईश्वर की मेहरबानी है। मैंने अपने गाजियाबाद रिपोर्ट जतिन गोस्वामी को मैसेज भेजा और फोन किया। जो कर सकते हो करो लेकिन इस आदमी को बचाना जरुरी है। जतिन ने दो घंटे की जद्दोजहद के बाद उस आदमी का एडमिशन करवाया। मैंने रात मे पूछा मैसेज करनेवाले से भाई कैसी है अब तबीयत । बोले सर सुधार है। ईश्वर है तो सुनेगा।
दिन में एक मैसेज आया गुड़गांव के एक कोविड पॉजिटिव हितेश बागला के लिए। उम्र 43 साल औऱ ऑक्सीजन लेवल 58। यह मामला भी क्रिटिकल था। मैने गुड़गांव में इंडिया न्यूज के रिपोर्टर राज वर्मा को फोन लगाया। राज, मैंने एक व्हाट्रसैप मैसेज भेजा है। ऑक्सीजन लेवल 58 है, तुरंत एडमिशन चाहिए। राज ने घंटे भर बाद फोन किया - सर हो गया। राज वर्मा औऱ जतिन गोस्वामी ने देश और समाज की जरुरत के इस दौर में शानदार काम किया है।
एक आदमी ऐसा है, जिसके बारे में मेरे पास शब्द नहीं हैं। मैं शायद इन दिनों तीन-चार घंटे सो रहा हूं। लेकिन वो आदमी इतना भी सोता होगा या नहीं, मैं नहीं कह सकता। दिलीप पांडे। आम आदमी पार्टी के विधायक हैं और दिन रात लोगों के इलाज का इंतजाम करने में लगे रहते हैं। मेरी तरह पता नहीं कितने लोग होंगे जो तुरंत अपना काम होने का दबाव डालते होंगे। क्या मजाल दिलीप कभी ना कह दें या ऊब जाएं। समय इंसान का कभी-कभी ही इम्तिहान लेता है। जो लोग बुनियादी तौर पर सही होते हें, वही उस इम्तिहान को पास करते है। दिलीप के साथ ऐसा ही है। मेरे एक मित्र की बुआ शालिमार गार्डन में अकेली रहती हैं। ऑक्सीजन लेवल गिर रहा था लेकिन 90 था। फोन आया- बुआ जी को तुरंत एडमिशन चाहिए। मेरे ब्योरा दिलीप को भेजा। थोड़ी देर में एक व्वॉयस मैसेज और एक नंबर आया । भैया कॉमनवेल्थ गेम्स विलेज में भेजिए, वहां 90 से ऊपर के ऑक्सीजन लेवल के मरीजों का एडमिशन हो रहा है, अच्छा इंतजाम है। कोई दिक्कत हो तो मेरे रेफरेंस से इस नंबर पर बात करवा दीजिएगा, जो भेजा है। हो गया।
दिलीप के काम को मिसाल के तौर पर ऱखा जाना चाहिए। मेरे साथ रिश्ता अलग है। डांट-डपट भी कर दूं तो जी भैया हां भैया करके सुन लेंगे। लेकिन मैं आप लोगों के लिए दिन रात लड़ते हुए मैं उस आदमी को देख रहा हं। समय बहुत बुरा है, जब यह तूफान गुजरेगा फिर दिलीप के काम का अंदाजा होगा। आज मैने कहा तुम इतना लगे हो, दिल्ली की सारी परेशानियां जानते हो, थोड़ी देर के लिए चैनल पर लाइव बैठ जाओ औऱ बताओ क्या समस्या है। दिलीप ने कहा- भैया मुझे नहीं लगता मैं कोई बड़ा काम कर रहा हूं। मैं दुखी ज्यादा हूं। मुझे अभी इन्हीं लोगों के बीच रहने दीजिए। समय कहीं और जाएगा तो किसी की जिंदगी का सवाल बन जाएगा। रहने दीजिए। बस, इतने से ही आप दिलीप को समझ सकते हैं।
देर रात नोएडा पुलिस का मैसेज आया । जो सिपाही कोरोना पॉजिटिव हो चुके हैं, वो प्लाज्मा दे सकते हैं। उनका संपर्क नंबर कमिश्नर ऑफिस ने साझा किया था। 8851066433। पुलिस कमिश्नर आलोक जी ( मैं उन्हें आलोक भाई कहता हूं) ने पुलिस की भूमिका को सुरक्षा के साथ समाज के प्रति जिम्मेदारियों से जोड़ा है। किसी भी सवाल पर खुले दिल से सुनने और समझने के लिए तैयार रहते हैं। कल मैने जिक्र किया था कि नोएडा के सेक्टर 39 के सरकारी अस्पताल में पूर्णिया के मेरे एक मित्र नीतेश भाई के जाननवाले एडमिट हैं और उनका कोई इलाज हो ही नहीं रहा। मरीज इस बात से परेशान है कि उसको कोई दवा ही नही दी जा रही है। उनके चेस्ट का सीटी स्कैन करना है, हुआ नहीं। मैने इस बारे में नोएडा के डीएम, कमिश्नर को ट्वीट किया और बताया कि मरीज कितना डरा हआ है। आज उस मरीज की पूछ परख हुई तो उसको थोड़ी राहत मिली। यह आलोक भाई की वजह से हुआ होगा ऐसा मेरा यकीन है। कल उस आदमी का चेस्ट सीटी करवाना जरुरी है।
मेरे मोबाइल और फेसबुक के इनबॉक्स भरे हुए हैं। मध्य प्रदेश, महाराषट्र, यूपी, बिहार से लोग अपनों के इलाज के लिए संदेश दे रहे हैं। दिल्ली एनसीआर तो है ही। लेकिन मैं कोई संस्थान नहीं हूं। नौकरीपेशा एक अदना सा इंसान हूं। अगर जिला प्रशासन और सांसद विधायकों की पूरी लिस्ट हो तो मैं अपना सारा समय लगाकर लोगों के इलाज का प्रबंध करुं। मगर लोग इतनी मुसीबत में हैं कि उनको इससे क्या मतलब कि मेरी हैसियत इतनी नहीं है। वे चाहते हैं कि उनके अपने का इलाज हो जाए। जान बच जाए। सैकड़ों की तादाद में लोग अपना साथ, समर्थन और सदभावना भेज रहे हैं। मैं जानता हूं कि वे इस देश के ऐसे नागरिक है जो अच्छे की उम्मीद करता है। अच्छी व्यवस्था, अच्छी सत्ता, अच्छा समाज और अच्छे लोग। लेकिन वह ऐसा कुछ भी नहीं पाता तो जहां भी उसको थोड़ी उममीद दिखती है, वह उसको पालने पनपाने में लग जाता है। मैं फिर कहता हूं कि मैं एक नौकरीपेशा साधारण सा नागरिक हूं इस देश का। कुछ शर्तो और उसूलों पर जिंदगी जी है। उनसे समझौता नहीं करता। देश की आजादी के 74 साल बाद भी रोटी, इलाज, पढाई एक चुनौती है तो सवाल तो है। लेकिन इसका दोष सिर्फ नेताओं पर ही डाला जाए, वह भी सही नहीं। समाज ने भी खुद को तैयार नहीं किया। खैर, ये ऐसा मामला है जिसपर लंबी बहस हो सकती है। लेकिन मैं चाहता हूं कि तमाम जिलों के कलेक्टर, सीएमओ, सांसद ओर विधायक और अस्पताल चलानेवाले ड़ॉक्टर अगर थोड़ी मदद करें तो ऐसी कई जिंदगियां बचाई जा सकती हैं जो सिर्फ कुछ लापरवाहियों के कारण जान गंवा बैठती हैं। मैं दो लोगो का यहां जिक्र करना चाहूंगा। एक मेट्रो अस्पताल के ओनर और पद्मविभूषण डा. पुरुषोत्तम लाल और दूसरे कैलाश अस्पताल के मालिक डा. महेश शर्मा। इन दोनों लोगों ने कुछ ऐसे मामलों में सहयोग किया है, जिसमें सब हाथ से फिसलता लग रहा था। इन दोनों की भूमिका मैने पेशेवर कम इंसानी सरोकार से जुड़ी ज्यादा देखी है।
पिछले कुछ दिनों में फेसबुक फ्रेंड्स रिक्वेस्ट की बाढ सी आ गई है। मेरा कोटा पहले से ही भरा हुआ है। इसलिए मेरे फेसबुक पेज को आप सब फॉलो कर लें तो मैं वहां भी आपसे जुड़ा रहूंगा। बहुत सारी उम्मीदों और मदद के मैसेज हैं आपके, मैं कोशिश करता हूं कि सबका कुछ कर पाऊं लेकिन आप यूं समझिए कि तीन-चार घंटा सोने के अलावा मैं अपने दफ्तर की जिम्मेदारी और आपके काम में ही लगा रहता हूं। बहुत औऱ जायज तरीके से यह लाजिमी है कि मैं वो सब ना कर पाऊं जो मुझसे आप चाहते हैं। लेकिन जो कुछ भी कर पा रहा हूं, वह कुछ ऐसे ही लोगों की मदद से जो बेहतरीन इंसान है औऱ इस भयावह समय में वे हर हद पार कर लोगों की मदद करने की रोजाना कई कामयाब कोशिशें करते हैं। उन सबका जिक्र कभी तफ्सील से करुंगा। इस वक्त तो बस आप अपने परिवार के साथ सुरक्षित रहिए और हर सावधानी बरतिए।

इंसानियत से बड़ा कोई धर्म नहीं..

कोरोना डायरी 21 अप्रैल 2021  

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देश में आदमी डरावने तरीके से छटपटा रहा है। सरकारें कहती हैं, इलाज का इंतजाम है, परेशान होने की जरुरत नहीं है। यहां लोग हैं जो अपनों को लिए दर-दर भटक रहे हैं, रिरिया रहे हैं, गिड़गिड़ा रहे हैं। सांस की परेशानी ने जिंदगी मोहाल कर रखी है। मुझे तनिक भी अच्छा नहीं लग रहा, बार बार अस्पतालों के मालिकों, विधायकों, सांसदों या फिर अपने सहयोगियों को फोन करना। ऐसी स्थिति आनी ही नहीं चाहिए। देश के हर नगारिक के पास खाने औऱ बीमार होने पर इलाज कराने के लाले नहीं पड़ने चाहिए। मेरे पास जो जिम्मदारी है, वह खुद में समय और समर्पण मांगती है। लेकिन इतने लोग परेशान हैं और मदद के लिए फोन, मैसेज, फेसुबक के जरिए संपर्क कर रहे हैं कि लगता है, इनको कैसे छोड़ा जा सकता है। हर संभव कोशिश कर रहा हूं यह जानते हुए कि यह तरीका कुछ लोगों के लिए तो काम कर सकता है लेकिन व्यवहारिक नहीं है। कोई भी आदमी इतने बड़े पैमानी पर मची तबाही में अपने दस बीस जाननेवालों के जरिए वो कर ही नहीं सकता, जिसकी जरुरत है। यह तो व्यवस्था का मामला है। चुस्त, दुुरुस्त, तैयार औऱ तत्पर। लेकिन व्यवस्था अगर चौकस होती तो इतने लोग सांस-सांस के लिये छटपटा क्यों रहे होते? घर-परिवार के लोग बदहवास इधर-उधर क्यों भागते फिरते?

यह व्यवस्था ही है कि नासिक में ऑक्सीजन लीक होने से 22 लोगों की जान चली गई। यह व्यवस्था ही है कि शहडोल मेडिकल कॉलेज में ऑक्सीजन खत्म हो जाने के चलते 22 लोग तड़प कर मर गए। लोग मर ही तो रहे हैं। कार में, सड़क पर, अस्पताल के बाहर। ऊपर से कालाबाजारी औऱ दलालों की चांदी आई हुई है। जान बचाने की खातिर इंसान अपनी सारी देह बेचने तक को तैयार है। इस मौके को ये गिद्ध अपनी नस्लों को मालामाल करने के मौके के तौर पर देख रहे है। पाप और नीचता के जरिए आई ऐसी कमाई से किसकी औलादें फली-फूली हैं, मैं नहीं जानता। लेकिन इंसान को इसी धऱती पर अपने किए का हिसाब देकर जाना होत है, ये पता है।
मैं अपनी जिम्मेदारी निभाने के साथ लोगों की जान बचाने, कुछ लोगों को राहत पहुंचाने के लिए जो बन पा रहा है, कर रहा हूं। इसमें कोई सुख या आनंद नहीं मिल रहा । लेकिन इंसान होने के नाते लगता है कि किसी के काम आ गया तो जाता क्या है। जिदंगी से बड़ी कोई चीज नहीं होती। इंसानियत से बड़ा कोई धर्म भी नहीं। कुछ साथी हैं जो कहने पर पूरी कोशिश कर रहे हैं मदद देने और मरीज को इलाज दिलवाने में, उनका मैं धन्यवाद भी नहीं कर सकता, क्योंकि उनका काम ऐसे औपचारिक शब्दों से कहीं बड़ा और मूल्यवान है। कुछ विधायक दोस्त, कुछ डॉक्टर मित्र और मेरे कुछ सहयोगी गजब का साथ दे रहे हैं। उनके सामने तो मेरे दोनों हाथ जुड़े हैं।

मंगलवार, 11 मई 2021

लोगों के भरोसे पर खरा उतरने कि कोशिश

 कोरोना डायरी 21 अप्रैल 2021 

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आप जब कुछ करते हैं तो अपने स्वभाव,संस्कार और इंसानियत के नाते करते हैं। उसका कारण ढूंढेंगे तो मिलेगा भी नहीं। मैंने कोविड के इस भयावह समय में लोगों को अपनों को बचाने की खातिर लाचार देखा, बेबस देखा। इंसान जब मुसीबत में होता है, खासकर जब जान पर बन आती है- उसके या उसके अपनों की, तब वह उसी को याद करता है, जिसपर उसका सबसे ज्यादा भरोसा होता है। यह सिर्फ समझने वाली बात है। जिसपर गुजरी होगी, उसको समझने में देरी नहीं लगेगी। मुझे भी किसी ने अपने भाई और किसी ने अपने पति की खातिर फोन किया। जान नहीं बचेगी यह लग गया था, लेकिन एक उम्मीद थी कि इस वक्त भी इलाज मिल जाए तो शायद जिंदगी बच जाए। ठीक ऐसे ही वक्त पर उन लोगों ने फोन किया, जिनको मैं अपना कहता हूं या वे कहते होंगे कि हां इस शहर में उनको मैं जानता हूं या जानती हूं। मैंने उन लोगों को इलाज मिले इसकी खातिर सिस्टम को झकझोरा। जीवन भर मैं लिहाजी रहा।अपने लिए कुछ कहने में हमेशा हिचक रही । लेकिन इन मामलों में मैंने अपनी पूरी ताकत लगाई और उसका फल ये रहा कि जिंदगियां बचीं। अगले दिन जब फोन आता है कि सर अब बच जाएंगे, ठीक हैं, शरीर के अंदर कुछ अच्छा सा पसरता हुआ लगता है। शायद वह आत्मा या रुह के उल्लसित होने से होता होगा।

मेरे एक सहयोगी पिछले तीन दिनों से कोरोना की चपेट में हैं। कल जब मैंने तबीयत जानने के लिए फोन किया तो सांस उखड़ रही थी। बोले सर, ब्रीदिंग प्रॉब्लम है। चेस्ट का सीटी स्कैन कराना बहुत जरुरी है, कहीं भी करवा दीजिए। मामला नोएडा का था इसलिए मैंने पंकज सिंह जो यहां के विधायक हैं, उनको कहा। फौरन जवाबी फोन आया- मेट्रो अस्पताल भेजिए, अभी करवा रहे है। सीटी स्कैन हो गया । आज रिपोर्ट आई, चेस्ट में थोड़ा इंफेक्शन है। उनकी पत्नी दवा लेने के लिए निकली, मगर एक दवा मिल नहीं रही थी। मेरे पास फोन आया। मैंने कहा तुम थोड़ा समय दो मैं खुद कुछ जगहों पर तफ्तीश करके बताता हूं । लेकिन फेविफ्लू 400 नहीं मिली। आखिरकार उन्ही लोगों ने यहां से 800 किमी दूर इस दवा का इंतजाम करवाया। कल 11 बजे वह दिल्ली के एक हिस्से तक पहुंचेगी । मैने कहा – कल बता देना कहाँ से उठाना है, किसी को भेजकर मंगवा लूंगा।
दोपहर में कानपुर के एक सज्जन ने ट्वीट के जरिए रिक्वेस्ट की – सर, एक बेड चाहिए ऑक्सीजन के साथ कानपुर में, पेशेंट का ऑक्सीजन लेवल कम हो रहा है, अगर मदद मिल जाए तो बड़ी मेहरबानी। साथ में फोन नंबर भी था। मेरे पापा को आज बुखार आ गया। मैं डर गया। तुरंत अपने मित्र और यशोदा अस्पताल के मालिक रजत अरोड़ा को बताया। उन्होंने फ़ौरन एक आदमी भेजा – एंटी जेन और आरटीपीसीआर टेस्ट, दोनों के लिए। एंटी जेन निगेटिव आया तो थोड़ी राहत मिली । अब आरटीपीसीआर रिपोर्ट का इंतजार है। पापा को मैने आइसोलेशन में डाल दिया है। उन्हीं के चलते आज ऑफिस नहीं गया। जब मैं उनके इलाज, टेस्ट और दवा में लगा था, उसी दौरान यह ट्वीट आया । मैने मेरे कानपुर के तेज तर्रार रिपोर्टर राहुल को मैसेज डाला।लिखा ये जरुरी केस है, करवा दो। राहुल ने करवा दिया। पता तब चला जब जिन्होंने गुजारिश की थी उन्होंने ही ट्वीट पर बहुत सारी दुआएं डालीं।
एक फोन आया। लखनऊ में एक परिवार पॉजिटिव है। वह अब बाहर नहीं जा सकता और घऱ में खाने-पीने के सामान से लेकर दवा तक नहीं है। आसपास के लोगों को फोन कर रहे हैं, लेकिन वे मदद करने को तैयार नहीं है। उनका पता, नंबर सब मैसेज में आ गया। मैंने लखनऊ के लोगों और प्रशासन से निवेदन किया कि इस परिवार को सामान पहुंचाया जाए। कई लोगों ने मुझे दवाई भेजनेवाली दुकानों के नाम पता दिए, मैंने परिवार के साथ साझा किया। कुछ लोगों ने खाना सप्लाई करनेवालों के बारे में भी बताया। शाम तक जाकर उस परिवार की मश्किल हल हो गई।
दिन में कई मैसेज आते रहे। किसी को प्लाज्मा की जरुरत तो किसी को दाखिले की। जितना बन पाया किया। कुछ हुआ कुछ नहीं। लेकिन जो नहीं हुआ वह कल भी नहीं होगा, ऐसा नहीं है। शाम में मेरे एक छोटे भाई सरीखे सज्जन का फोन आया। उनके एक दोस्त मुरादनगर में रहते हैं। कोरोना पॉजिटिव हैं और उनका ऑक्सीजन लेवल लगातार गिर रहा था। उनको तुरंत एडमिशन की जरुरत थी। आजकल अस्पतालों में किसी को भर्ती करवाना नाको चने चबाने जैसा हो गया है। मुझे उस वक्त एक ही नाम सूझा और मैंने फोन लगाकर कहा कि सर ये लाइफ का सवाल है, मैं आपके यहां भिजवा रहा हूं, प्जील एडमिशन दिलवा दीजिए। दूसरी तरफ थे देश के जाने माने कॉर्डियोलॉजिस्ट पद्म विभूषण डा. पुरुषोत्तम लाल। पुराना रिश्त है और मैं उनकी बहुत इज्जत करता हूं। इसके कई कारण है। उन्होंने कुछ सेकंड की चुप्पी के बाद कहा- कोई नहीं आप भेजो, मैं बोलता हूं। मरीज जब पहुंचा तो जो अस्पताल में थे उन्होंने हाथ खड़े कर दिए। बोलो मामाल क्रिटिकल है। अभी आईसीयू है नहीं औऱ इनको आईसीयू में ले जाना पडेगा। मुझे मेरे उसी छोटे भाई जैसे सज्जन का फोन आया – भैया ये लोग तो एडमिट ही नहीं कर रहे। मैंने डा. लाल के असिस्टेंट जिनको डाक्टर साहब ने एडमिशन करवाने का काम दे रखा था, उनको फोन किया। मैंने कहा सुनो क्या मरीज अब ये ढूंढे कि किस अस्पताल में आईसीयू है? क्या तबतक ये बच पाएगा? आप एडमिट करो, ऑक्सीजन देना शुरु करो, दवाएं चलाओ – फिर आईसीयू देखेंगे। एडमिशन हो गया और रात 9 बजे फोन आया कि सुधार जारी है।
मैंने तो अपने कुछ जाननेवालों या दोस्तों की खातिर लड़ना शुरु किया लेकिन पिछले चार-पांच दिनों में इतने लोगों ने अपनी परेशानियां बतानी शुरु कीं, इतने लोगों को सख्त जरुरत आन पड़ी कि लगा अगर ईश्वर ने आपको कुछ लोगों का भरोसा बनाया है तो उसको बचाने की खातिर यह करते रहना ही ठीक है। आज जिस बात की तकलीफ है वो दो है। मेरे एक मित्र जो बिहार के पूर्णिया जिले के अच्छे खासे परिवार से आते हैं, उनके रिश्तेदार नोएडा के सेक्टर 29 के सरकारी अस्पताल में दाखिल है। उन्होंने फोन कर कहा कि उनसे बात ही नहीं हो पाती। कभी कभार जब अस्पताल के लोग परमिट करते हैं तभी बात होती है। कह रहे थे कि सुबह से किसी ने कोई दवा नहीं दी। मैं चलकर ही बाहर से अंदर आया और यह बताया भी कि मुझसे चला नहीं जा रहा है, सांस फूल रही है तो कर्मचारी ने कहा कोई बात नहीं आप चलिए हम ऑक्सीजन लगा देंगे। लेकिन वह दोबारा कभी आया ही नहीं। मेरे मित्र ने बताया कि वे बेहद डरे हुए हैं। कुछ भी करके उनकी दवाई शुरु करवा दीजिए। मैंने डीएम, कमिश्नर नोएडा को ट्वीट किया और पूरा हाल बताया। यह भी कहा कि मरीज की स्थिति क्या है, बताया जाए। लेकिन कोई जवाब नहीं आया।यह प्रशासन का अधिकार नहीं है, उसकी नाकामी है। सरकारें और सरकारी सेवा के लोग जनता का काम करने के लिए हैं और जनता के पैसे पर हैं। इसलिए वे नहीं करेंगे या नहीं बताएंगे, उनके पास यह अधिकार नहीं है।हम जब अपने अधिकार छोड़ते हैं तो सामने वाला उनपर अनाधिकृत तरीके से कब्जा कर लेता है। कल मैं उन मरीज के बारे में पता करुंगा।
दूसरी तकलीफ गुड़गांव के एक कोविड केस को लेकर रही। एक महिला जो मेरे पुराने मित्र की भानजी हैं उनके ससुर एक प्राइवेट अस्पताल में भर्ती है। सारा परिवार पाजिटिव है इसलिए बाहर कोई जा नहीं सकता। ससुर को छोड़कर बाकी सब घर में क्वरंटाइन हैं। अस्पताल वालों ने पहले आसीयू में डाला, फिर ठीक हो रहे हैं कहकर वार्ड ले आए। फिर रेमडेसिविर देने के नाम पर बहुत कुछ किया, फिर बताया कि फेफड़ों में 40 परसेंट इंफेक्शन है, फिर कहा कि अब 60 परसेंट है। परिवार बाहर नहीं निकल सकता औऱ वो इस बात को लेकर बेचैन है कि उसके बुजुर्ग के साथ ये क्या हो रहा है। एक बात जो कहनी जरुरी है- इस भयावह तबाही में कुछ लोग मोटी कमाई कर रहे है। उनको जान की नहीं पड़ी है बल्कि वे इस काम में लगे हैं कि कितना निचोड़ लें, किसको ऐंठ दें,अगर शरीर लाश भी बन जाए तो उसपर भी पैसा बनाते रहो। ऐसे लोगों के साथ जो भी साथ जो भी हो सकता है होना चाहिए बिना ये सोचे कि गलत हुआ कि सही। सही गलत तो इंसान की खातिर सोचते हैं, हैवानों के लिए थोड़े! समय बहुत खराब है। बहुत ख्याल रखें अपना और अपनों का भी।
उसका फल ये रहा कि जिंदगियां बचीं। अगले दिन जब फोन आता है कि सर अब बच जाएंगे, ठीक हैं, शरीर के अंदर कुछ अच्छा सा पसरता हुआ लगता है। शायद वह आत्मा या रुह के उल्लसित होने से होता होगा।

साथ और संयोग से जीवन बचाने का संघर्ष

कोरोना डायरी 19 अप्रैल,2021 

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जिंदगी और मौत के बीच बस एक बारीक लकीर होती है, जैसे भरोसे और घात के बीच. यह जो बारीक-सी लकीर है उसमें कई चीजें शामिल होती हैं। समय, साथ, संसाधन और संयोग भी ( जिसे आप किस्मत कह सकते हैं)। कोरोना के इस बार के हमले में बचाव का कोई हथियार टिक नहीं रहा। स्वास्थ्य-व्यवस्था का खुद ही दम निकल चुका है। जैसे तेज तूफान में आदमी दोनों हाथों से आंख-नाक को बचाते हुए सिर दबाए रहता है, कुछ देखने की हिम्मत नहीं जुटा पाता, सरकारों का हाल वैसा ही है। फिर बचा क्या? साथ और संयोग। संयोग ऐसा बन जाता है कि कोई खेवनहार मिल जाता है और उसी साथ की बदौलत जान बच जाती है।

आज दोपहर में एक साथी का फोन आया। एक नेशनल चैनल में एंकर हैं। सर, आसिफ नाम का एक आदमी है, पॉजिटिव है। उसकी पत्नी उसको लेकर अस्पतालों के चक्कर लगा रही है, लेकिन कहीं कोई बेड खाली नहीं है। उसका ऑक्सीजन लेवल लगातार गिरता जा रहा है। कुछ हो सकता है? मैंने कहा- तुम एक मैसेज में उस आदमी का नाम, परेशानी, कॉन्टैक्ट पर्सन और मोबाइल नंबर लिखकर भेजो, मैं देखता हूं। काफी देर तक गाजियाबाद के वसुंधरा-वैशाली इलाके में ( आसिफ वहीं रहते हैं ) फोन घुमाता रहा, लेकिन कामयाबी कहीं नहीं मिली। मैंने अपने जिन लोगों को उस इलाके में लगा रखा था, वे भी कोशिश में थे। मेरे सहयोगी का फोन फिर आया- सर, कोई बात बनी? उस आदमी के पास समय कम लग रहा है।जल्दी कुछ करना होगा। मैंने कहा- दस मिनट और दो। छानबीन फिर शुरु की। इंडिया न्यूज के रिपोर्टर जतिन भी इसी काम में लगे थे। उनका फोन आया - सर, एक बेड मिल गया है, लेकिन उनकी पत्नी फोन उठा नहीं रही हैं। मुझे राहत मिली कि चलो बेड मिला । मैंने कहा तुम दो मिनट रुको, मैं अभी बोलता हूं। अपने एंकर साथी को मैंने फोन लगाया- अरे यार, तुम उनकी पत्नी को बोलो फोन उठाएं, बेड मिल गया है। उन्होंने कहा बस एक मिनट, मैं उनको अभी कहता हूं। फोन एक मिनट तो नहीं बल्कि लगभग पांच मिनट बाद आया। सर, वो आदमी गुजर गया। इसीलिए उसकी पत्नी फोन नहीं उठा रही थी। आंख के आगे अंधेरा सा छा गया। इंसान सांस-सांस के लिए तड़पकर जान गंवा दे रहा है।
इस घटना के थोड़ी ही देर बाद एक मित्र जो हिंदी की दमदार युवा लेखिका हैं, उनका फोन आया। एलएनजेपी में एक महिला एडमिट हैं, 25 साल की है और चार महीने की गर्भवती हैं। उनका ऑक्सीजन लेवल लगातार गिर रहा है, क़ॉम्लिकेशन बढ रहा है, वेंटीलेटर चाहिए। मैंने कहा- आप बस यही सब नाम और नंबर डालकर मैसेज कीजिए। मन ही मन डरा हुआ था। एक हादसा गुजर चुका है, पता नहीं इस मामले में क्या हो। उनका मैसेज जैसे आया, मैंने उसे तुरंत आम आदमी पार्टी के विधायक दिलीप पांडे को फॉर्रवर्ड किया और लिखा कि भाई कुछ भी करो लेकिन वेंटिलेटर दिलवाओ। दो जान का सवाल है। दिलीप का जवाब हर बार फौरन आता है। उन्होंने कहा- भैया बताता हूं। जब देर होने लगी तो मैंने एक और मैसेज डाला। भाई, तुम जल्दी कुछ करो, हमारी मित्र भी परेशान हैं। दिलीप का जवाबी व्वॉयस मैसेज आया। सॉरी भैया, बताना भूल गया था। हो गया, उनको वेंटिलेटर पर डाल दिया गया होगा या डाला जा रहा होगा। लेकिन प्रॉ़बल्म सॉर्टेड। इसके कुछ देर बाद हमारी मित्र ने मैसेज डाला- "शु्क्रिया, काम हो गया। मुझे अब राहत मिली।" राहत मुझे भी मिली। दो जिंदगियां अस्पताल के अंदर साधन की कमी के चलते बचाई ना जा सके यह सुनने में अजीब लगता है, लेकिन आज कल ऐसा ही है। इंसान को बचाया जा सकता है, लेकिन ना तो ऑक्सीजन है, ना रेमडेसिविर ( अगर मरीज को चाहिए तो) और ना बेड। लेकिन यह महिला खुशकिस्मत थीं और वो मासूम बच्चा भी जो अभी आया भी नहीं है। साथ और संयोग से ऐसे ही जीवन बचाने का संघर्ष चल रहा है। मैं यह जरुर कहूंगा कि दिल्ली में एक आदमी जो तमाम तरह की कमियों-खामियों के बावजूद लोगों की मदद में दिन-रात जुटा है, वो हैं दिलीप पांडे। मेरे निवेदन पर यह तीसरी जान है जिसको उनकी कोशिशों ने बचाया है। दिलीप की जितनी तारीफ करें कम है।