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बुधवार, 16 जुलाई 2014

गाजा से आई ये तस्वीर देखी है ?




फूल सा है जमीन पर बैठा है
दोनों पैर आधा फैलाकर
रंग, जैसे घी में गुलाब मिला दो
उसके चेहरे पर चारों तरफ से बंदूकें तनी हैं
मुड़कर पीछे देख रहा है
बस, अब रोया कि तब
शायद डर से ही मर जाए
मासूम सा बच्चा गच्चा पट्टी में
इजरायली फौजियों के बीच पड़ा है
उसके मां बाप मार दिए गए होंगे
थोड़ी देर में यह भी मार दिया जाएगा
लेकिन यह तस्वीर इतिहास लेकर खड़ा रहेगा.


आवारगी



मंदिर से गुज़रा हूं मौजों पर मस्ताना 
पात पर दीया हूं कहीं तो जाऊंगा .

रातों को महकाया है सुबहों को सजाया 
हरसिंगार बन झड़ा हूं खुशबू संग मुरझाऊंगा.

तन्हाई की हंसी वेवक्त का ख्याल सही 
तेरे नाम अपना कुछ तो कर जाऊंगा.

उजास राहों पर लीक पीली दूब की
रहगुज़र को दूर तक नज़र आऊंगा.

खाली घोंसलों की तरह राह तकते तकते
हवा की ठोकरों में तिनका बन जाऊंगा.

घर की चौखट पर सांझ का दीया
अंधेरों से लड़ते मरते सुबह कर जाऊंगा.


रविवार, 13 जुलाई 2014

जीवन उत्सव है, मौत एक मौसम


















अंधेरे की देह पर 
रोशनी रचती है 
दमकती है/ थिरकती है 
जीवन लय पिरोती है 
दिए की लौ है 
फिर नहीं लौटती है.

हवा के कोरों पर 

नमी रखती चलती है
बलखाती है/ “पानी” गाती है
धरती में रस बोती है
धड़कती है / महकती हैदरिया की मौज है
फिर नहीं लौटती है.

समय के साज़ पर सन्नाटे सी बजती है

पलों के दरवाजे उम्मीद का गीत रखती है
एक रंगोली हर वक्त रचती है
बस एक सांस है फिर नहीं लौटती है.



जीवन के हर पल को जीभर जीनेवाले जहांगीर पोचा को 
 हार्दिक श्रद्दांजलि। जिस शख्स ने जीवन को उत्सव 
की तरह जिया, उसके पास पहुंचकर मौत को 
भी रश्क हुआ होगा। अलविदा दोस्त। 
12.07.2014

रविवार, 6 जुलाई 2014

हिमाचल यात्रा - संस्मरण भाग दो


नरकंडा में सुबह सात बजे के आसपास जगा । तीन घंटे से ज्यादा शायद नहीं सो पाया था। धूप जैसे नहाकर आई थी । कमरे में उसके छोटे छोटे टुकड़े दुबके पड़े थे। बाहर पहाड़ों पर हरी हरी पत्तियां चमक रही थीं। यहां जो सबसे ऊंची चोटी है उसके सिर पर पताका लहरा रही थी जो किसी मंदिरनुमा इमारत के ऊपर लगी थी। बीती रात देर तक जागता रहा इस लालच में कि अगर सो गया तो कुदरत को इतना हसीन देखने का मौका निकल जाएगा। चांदनी में नहाई रात , हवाओं पर लहराते देवदार और पहाड़ों में गूंजती सांय सांय की आवाज । अजीब सा नशा तारी था चारों ओर। ऐसी मुरादवाली रातों में जिंदगी किसी बहुत ही मुलायम और रसीले अहसास में पिघलना चाहती है, जिसकी बूंद बूंद शरीर के रेशों में यूं उतरे जैसे कपास पर घी और शहद । ऐसी रातें सितंबर-अक्टूबर के महीनों में कभी कभी तब दिखी जब कालेज के दिनों में गांव जाया करता था। छत पर सोते समय जब चांद आधा आसमान चढ जाता और सामने धान के खेत तेज हवा पर दूर तक लहराते तो सांसो में अजीब सी गंध भर जाती। बालियों में उतरते रस की गंध हुआ करती थी। आसमान निपट नीला , बादलों के झुंड चलते फिरते साफ साफ दिखते औऱ दूर से आधी गोलाई में जाती नहर तक की हर चीज का अंदाजा होता । उन रातों में पहरों जागता रह जाता था। अजीब सा आकर्षण हुआ करता था उन रातों में और कभी कभी जब भोर का तारा सामने दिखता तो लगता अरे यार सुबह हो गयी। नरकंडा की रात ने भी वैसे ही जगाए रखा । अचानक दरवाजे पर दस्तक हुई । अहसास का जो घेरा दिल-ज़ेहन में बना था वो छंटा। मैंने मोबाइल पलटा (आदतन उलटा रखता हूं) । समय देखा - ७ बजकर १७ मिनट । आ जाइए अंदर - मैंने दरवाजे की तरफ आवाज लगाई । हाथ में ट्रे पकड़े वो साहब अंदर आ गये जो सर्किट हाउस के किचन का जिम्मा संभालते हैं। बीती रात घर जैसा खाना खिलाया था । सर गुड मार्निंग । मैंने भी जवाब दिया- गुड मार्निंग। ट्रे में फ्लास्क और चाय का कप रखा हुआ था । वे सीधे मेरे पास आए, बिस्तर पर सामने ट्रे रखा और पूछा सर शुगर कितनी लेंगे। मैंने कहा नार्मल । यार ये बताओ- सामने जो चोटी है उसपर ये कैसी पताका दिख रही है। मैं ये जानने को बेचैन हो गया था कि इतनी ऊंचाई पर आखिर क्या है - लिहाजा मैंने उससे पूछा। सर ये हातू माता मंदिर है, उसने पलटकर खिड़की से बाहर मंदिर की तरफ देखते हुए बताया । बहुत सिद्द जगह है साहब । आप वहां जरुर जाइएगा । वहां से हर चीज आपको नीचे दिखेगी । उससे ऊपर कोई चोटी नहीं है । दिनभर लोग माता के मंदिर में आते जाते रहते हैं इसलिए रौनक भी रहती है। मैंने कहा ठीक है तुम कह रहे तो तो मंदिर से लौटकर ही मनाली निकलेंगे। जी सर - उसने हाथ में चाय का प्याला थमाते हुए कहा। और सर अगर आपको जाना है तो नहा-धोकर सीधे मंदिर जाइए फिर लौटकर नाश्त कीजिए। उसके बाद मनाली के लिये निकल जाइएगा। मेरे कमरे से जाते जाते वो ये सलाह भी छोड़ गया। पत्नी ने कहा सही कह रहे हैं , मंदिर से लौटकर नाश्ता करेंगे। मैंने कुछ कहा नहीं लेकिन पत्नी को मेरी मौन हामी समझ में आ गयी। मेरा मोबाइल बजा । मुझे लगा दफ्तर से फोन आया होगा । अक्सर ऐसा ही होता है। इसलिए कोई दूसरा ख्याल सुबह सुबह नहीं आता। लेकिन स्क्रीन पर जो नंबर था वो सेव्ड नहीं था औऱ हिमाचल का लग रहा था । मैंने उठाया- हैलो। क्या संपादक सर कैसे हैं। इतना पास आकर चले जाएंगे। आवाज जानी पहचानी थी इसलिए मैंने ये पूछा नहीं कि कौन। 
हिमाचल यात्रा जारी है.....

शनिवार, 5 जुलाई 2014

किनारों की रोशनी



यादों के देवदार पर मौसम की तरह उतरो
अरसा हुआ लौटे चांदनी दिनों के काफिलों के

अंधेरे में हरसिंगार उजाले में चिनार बन जाओ
बस्ती में बढने लगे हैं डेरे हमशक्ल वफाओं के

गर कर सको हिम्मत तो मेरे साथ चलो
आसान नहीं पता ढूंढना आवारा मंज़िलों के

कुछ नहीं बस हथेली भर जमीन बन जाओ
आसमां होगा मगर घर नहीं होते बादलों के

गंगा हो मौजों में मेरी रोशनी भर लो
अंधेरों में सजा लेना पास अपने किनारों के