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मंगलवार, 14 दिसंबर 2010

नीरा राडिया

वो शैतान के जादू की शापित छड़ी है

रात बिछाती है दिन में

रात में दिन पसारती है

कौवों को सफेद

कबूतरों को काला बनाती है ।


देवलोक की गुफाओं में

अबूझ कंदराओं में

कुबेर का करिश्माई दीया है

हर आराध्य बड़ा साफ दिखता है

मरी मुरादों को भी संजीवनी पिलाता है ।


उसने खुद खड़ा किया है अपना इंद्र

मेनका की मृगतृष्णा बनाई है

नारद की वीणा के राग गढे हैं

लक्ष्मी के कदम साधे हैं

वो मायानगरी की सबसे बड़ी माया है ।


उसने सोख लिया है धरती का रस

छीन ली है वेताल की शक्ति

पंगू कर दिए हैं यक्ष के प्रश्न

पहाड़ भी पनाह मांगता है

उसने शेषनाग को साध रखा है ।

1 दिसंबर 2010, बिहार : सियासत की नयी सुबह

1989 के चुनाव थे औऱ विश्वनाथ प्रताप सिंह की लहर चल रही थी। मैं कुछ किताबें खऱीदने के लिये गांव से जिला मुख्यालय छपरा आया हुआ था। छोटे से शहर में चारों ओर वीपी सिंह के स्वागत के पोस्टर बैनर पटे पड़े थे। छपरा लोकसभा सीट से लालू प्रसाद यादव जनता दल के प्रत्याशी थे और वीपी सिंह उन्हीं के लिये रैली करने आनेवाले थे. नगरपालिका मैदान अटा पड़ा था औऱ मैं धक्का मुक्की के बीच आहिस्ता आहिस्ता मंच के पास जा पहुंचा था। उन दिनों राजनीति में कोई खास दिलचस्पी नहीं थी लेकिन बस मन इस बात के लिये ललचा हुआ था कि राजीव गांधी के खिलाफ बोफोर्स घोटाले की आंधी खड़ा करनेवाला नेता सामने से कैसा दिखता है औऱ कैसा बोलता है। आगे पीछे चारों ओऱ बस सिर ही सिर दिख रहे थे औऱ इसी बीच अगियाबैताल की तरह एक रेला आया औऱ मेरे जैसे तमाम लोगों को मंच के आसपास धकेलता हुआ ऊपर पर चला गया । इस रेले में लालू थे औऱ वीपी सिंह भी । अजीब उन्माद सा था, लोग कांग्रेस सरकार को सबक सिखाने की बातें कर रहे थे लेकिन तब भी लोगों को ये पता नहीं था जिस घोटाले की बात बवंडर बनी हुई है वो कितने का है औऱ क्या है। खैर, मैंने ये जिक्र इसलिये किया क्योंकि उसी बवंडर में लालू की राजनीतिक किस्मत चमक रही थी । वो पहली बार लोकसभा चुनाव लड़ रहे थे । वीपी सिंह ने मंच पर उनका हाथ पकड़कर हवा में उठाया औऱ लोगों से अपील की कि अगर आप देश का भला चाहते हैं तो लालू प्रसाद यादव को वोट देकर हमें दिल्ली में मजबूत करें। सामने की भीड़ से बार बार शोर उठ रहा था – वीपी सिंह जिंदाबाद, लालू यादव जिंदाबाद ।

बोफोर्स कांड की उस लहर में लालू संसद पहुंच गये औऱ तुरंत हुए विधानसभा चुनाव में जनता दल की तरफ से मुख्यमंत्री की कुर्सी भी हथिया ली। लालू के पास जबरदस्त जनाधार था, कमजोर तबके का गुदड़ी का लाल बिहार की गद्दी पर बैठा था औऱ बिहार के दलित-पिछड़ों में लालू के लिये अजीब सा लार था। बिहार में गैर कांग्रेस राजनीति का एक नया अध्याय शुरु हुआ था औऱ दलित-दमित समाज में ये आस जगने लगी थी कि अब मंगरुआ बाबू साहेब की मार नहीं खायेगा या लुटावन दुसाध का पूरा खानदान मालिक के यहां दिनभर एक शाम के खाने पर देह नहीं पीटेगा। कुछ ना कुछ होगा। लालू ने इसी आस औऱ गरीब गुर्बों के दिन फिरने की उम्मीद में बातें बनाते रहे, मस्खऱी करते रहे औऱ हालात बद से बदतर होते गये। हां इतना जरुर हुआ कि किसी भी बात पर पिट जानेवाला गरीब थाने जाने लगा, उसकी शिकायत दर्ज होने लगी , पुलिस जेब गरम करने से पहले दबंगों के टोले में दबिश मारने लगी औऱ लुटावन दुसाध का परिवार ये कह पाने की हिम्मत जुटाने लगा कि मालिक आज काम है नहीं आ पायेंगे। ये बराबरी के अधिकार की लाइन पर खड़ा हो रहा ऐसा सामाजिक बदलाव था जिसको अगर विकास की जमीन मिलती तो लालू इतिहास पुरुष हो जाते । लेकिन वक्त के साथ साथ अपराध औऱ अंधेरगर्दी के बीच बिहार इसकदर पिसने लगा कि हर तबका एक अजीब सी ऊब औऱ सड़ांध से निकल भागने को बेचैन दिखने लगा। चारा घोटाले में फंसने के बाद लालू ने कुर्सी राबड़ी को भले दे दी लेकिन राज उन्हीं का था औऱ शायद ये कहने की जरुरत भी नहीं है। इस लालू राज में यादवों का गुंडाराज औऱ लाठी के बल पर दूसरों के हक को हथियाने का ऊपर से नीचे तक का खेल भी बड़ा भयानक हो चला था।

दूसरी तरफ नीतीश कुमार अपनी सूझबूझ औऱ विकासपरक नीति के आसरे अपनी राह बनाने में लगे रहे। जनता दल के टूटने के बाद उन्होंने लालू से राह अलग कर ली औऱ जनता दल यूनाइटेड के बैनर तले लालू के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। वाजपेयी की 13 महीने की सरकार हो या फिर 1998 के बाद की पांच साल वाली सरकार - दोनों में नीतीश ने अपने कामकाज की छाप छोड़ी। खासकर बतौर रेलमंत्री उन्होंने एनडीए सरकार में बेहतरीन काम किया । नीतीश ना तो अपना ढोल पीटते हैं ना ही मस्खऱी उनकी फितरत में है। उन्हें फूहड़ भोजपुरिया मुहवरों को मुंह फाड़ फाड़ बांचकर ताली बटोरने का हुनर भी नहीं आता। बस काम आता है और ईमानदारी से काम करते हैं- ये बात धीरे धीरे आम आदमी भी समझने लगा था। बिहार के गांव कस्बों की जमीन को भी लालू का फरेब औऱ नीतीश की नीयत का फर्क समझ में आ गया था । नतीजा ये हुआ कि 2005 के चुनाव में जेडीयू-बीजेपी गठबंधन को लोगों ने सत्ता में भेजा औऱ नीतीश ने सरकार की कमान संभाली। पिछले पांच साल में नीतीश ने ना तो बड़े बड़े दावे किये ना ही बोल बोले। लेकिन हां 60 महीनों में बिहार का शायद ही कोई गांव-टोला होगा जहां ईंटवाली सड़क ना दौड़ी हो, प्राइमरी स्कूल की नयी बिल्डिंग ना खड़ी हुई हो औऱ प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र की हालत ना सुधरी हो। औऱ हां राज्य के भीतर दौड़नेवाली सड़कें – सड़क में गढ्ढा कि गढ्ढे में सड़क की पहेली से बाहर आ गयीं। जाहिर है ये कोई करिश्मा नहीं है औऱ ना ही विकास का कोई बड़ा मानक लेकिन 15 साल में लोगों ने जो नर्क भोगा उस लिहाज से ये बेहतर दिनों के आने की उम्मीद सी जरुर था। नतीजा ये हुआ कि इस बार नीतीश को लोगों ने इतना वोट दिया कि इतिहास बन गया और लालू को इतना धकिआया कि अब वो किसी को धक्का देने की हालत में भी नहीं रहे। लोकतंत्र की ये सबसे बड़ी ताकत कही जानी चाहिये । ऊपर से सबक ये कि लोगों में बेहतरी औऱ विकास के लिये सही विकल्प चुनने की समझ आ गयी है , दौर बदल रहा है , जात-पांत के बंधनों की आड़ में अपना उल्लू सीधा करनेवाले नेताओं के दिन लदने लगे हैं औऱ ये हिंदुस्तान में राजनीति के एक नये अध्याय की तरफ इशारा है।

विकास की बुनियाद पर दिल्ली में शीला दीक्षित, गुजरात में नरेंद्र मोदी औऱ उड़ीसा में नवीन पटनायक बार बार सत्ता में जरुर लौटे हैं लेकिन इन तीनों राज्यों के सामाजिक गिरहपेंच औऱ राजनीति के यक्ष प्रश्न बिहार से कहीं अलग हैं। इसीलिये मैं इस बात पर जोर दे रहा हूं कि नीतीश की बिहार में वापसी देश में राजनीति में राजनीति की एक नयी दिशा का संकेत दे रही है। नीतीश कुमार के सामने चुनौतियां बड़ी हैं, उम्मीदों का पहाड़ खड़ा है , करने को बहुत कुछ है लेकिन उन्हें इस भरोसे के साथ छोड़ा जा सकता है कि उन्हें विकास के मायने पता हैं औऱ आज की तारीख में वो नेतृत्व का बेहतर विकल्प हैं । कुछ हद तक ये भी मान जा सकता है कि उनकी नीयत नेक है औऱ उनमें राज्य के लिये कुछ करने की मजबूत इच्छाशक्ति दिखती है ।