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सोमवार, 28 मई 2012

टीवी में भाषा को लेकर बड़ी हाय तौबा मचती है और सवाळ ये किया जाता है कि टीवी वालों ने तो हिन्दी की ऐसी तैसी कर दी है बात कुछ हद तक ठीक हो सकती है और बहस भी एक सीमा तक ज़रूरी है लेकिन इस बात और बहस के बीच कुछ विचारने का आग्रह मैं करना चाहूँगा कोई पूर्वाग्रह-दुराग्रह नहीं है , कोई दुराव-छिपाव नहीं है, किसी की काटने और किसी से सटने की कोई मंशा नहीं है- बल्कि आज मैं ये साफ़ करने आया हूँ कि टीवी वालों की तरफ़ दोनों हाथ उठा-उठा छाती पीटनेवालों को भाषा के संसार और संस्कार के साथ साथ पेशेवर समझ भी रखनी चाहिए आरोप ये लगाया जाता है कि टीवी वाले बोलचाल की भाषा के नाम पर लूली-लंगडी भाषा अपनाते हैं ये कनॉट प्लेस को सीपी , साउथ एक्सटेंशन को साऊथ एक्स और प्रेस कांफ्रेंस को पीसी कहनेवाली जमात है मैं भी कह रहा हूँ कि हाँ ये वही जमात है लेकिन ये जमात मैक डोनाल्ड, पिज्जाहट और पीवीआर की पैदाइश नहीं है बल्कि खांटी देहाती और दिमागदार नौजवानों की वो खेप है जो छोटे छोटे गाँव -क़स्बा-शहर से ज़िन्दगी का कुछ मतलब निकलने का मंसूबा लेकर निकली सीपी , साऊथ एक्स या पीसी उसकी अपनी दुनिया के भाषा-संस्कार कि उपज हैं जो लड़का टीवी की दुनिया में पहला कदम रखता है एक नई शब्दावली उसके सामने होती है उसको विजुअल ( दृश्य ) को वीओ , साउंड aa बयान / वक्तव्य / कथन ) को सौट , नैचुरल एम्बिएंस ( वास्तविक ध्वनि ) को नैट और स्टूडियो में एंकर के ज़रिये pख़बर के टुकड़े को एसटीडी कहना पड़ता है ऐसे वर्णशंकर शब्दों की लम्बी फेहरिस्त है जिसका टीवी में इस्तेमाल सिर्फ़ और सिर्फ़ सुविधा के लिहाज से होता है। 

आजतक वाले नक़वी जी

 सितंबर 2010, अयोध्या पर लखनऊ बेंच का अहम फैसला आना था। आजाद भारत में ये अपनी तरह का     सबसे संवेदनशील और महत्वपूर्ण मामला था। ऐसे मौके पर खबर को सबसे पहले औऱ साहुल सूते में दुरुस्त रखने की चुनौती खबरिया चैनलों के सामने सबसे बड़ी कसौटी थी । आजतक इकलौता चैनल था जिसने प्रोड्यूसरों औऱ रिपोर्टरों की एक टीम बनाई औऱ उनका वर्कशॉप लगाया । सबको पुलिंदा थमाया गया पढने के लिये औऱ ये बताया भी गया कि मामला क्या है, कितनी पार्टियां हैं औऱ पेंच कहां कहां है।

फैसला जब आया तो आजतक ने जुलाहे की तरह फैसले का रेशा रेशा अलग अलग रख दिया । जस्टिस शर्मा, जस्टिस अग्रवाल और जस्टिस खान कहां कहां सहमत और कहां कहां असहमत रहे – ये ब्योरा भी आजतक की टीम ने ही देश को सबसे पहले दिया । ये बात मैं दावे से इसलिये कह रहा हूं क्योंकि न्यूजरुम में सारे चैनल चल रहे थे और सबपर मेरी खुद नजर थी । खैर, अयोध्या मामले पर इस बेहद अहम फैसले को खबर की जिस शक्ल में आजतक पर देश देख रहा था उसके सूत्रधार थे न्यूजरुम में खड़े न्यूज डायरेक्टर कमर वहीद नकवी । हेडलाइंस औऱ पैकेज तो छोड़िए उस वक्त ब्रेकिंग न्यूज से लेकर , ग्राफिकस प्लेट पर लिखी गयी खबर तक पर उनकी बारीक नजर थी। पैनल पर खुद कई बार खड़ा होकर उन्होंने वो तमाम निर्देश दिए जो जरुरी थे ।

इस वाकये का जिक्र मैंने इसलिये किया क्योंकि खबरों को लेकर जो समझ औऱ संजीदगी संपादक में होनी चाहिए नकवी जी उसका संस्थागत स्वरुप हैं। वैसे चैनल के ज्यादातर साथियों की तरह मैं उन्हें दादा ही कहता रहा हूं लेकिन उन्हें यहां नकवी जी ही रहने दिया जाए तो अच्छा रहेगा । हां, चुनाव आ जायें फिर आप उन्हें देखिए। किसी को उकेरने-टटोलने से उन्हें परहेज नहीं औऱ सब्जीवाले- ठेलेवाले से भी उसकी राय लेने से गुरेज नहीं। स्ट्रिंगरों तक को खुद फोन लगाकर गांव-जवार में हवा किस ओर है इस बारे में पूछ परख शुरु कर देंगे । न्यूजरुम, कई बार चुनावी चर्चा का अखाड़ा बन जाता औऱ मीटिंग में शोज कितने और कब-कब होंगे ये तय करने में दिमाग की नसें तन जातीं ।

पिछले ही लोकसभा चुनाव में नकवी जी का अनुमान था कि कांग्रेस को 180-190 सीटें आयेंगी लेकिन आजू बाजू के सारे चेहरे पढने के बाद जब उन्हें लगा कि बाकियों को उनका अनुमान मजाक लग रहा है तो उन्होंने शर्त लगा ली। एक बक्सा रखा गया। हर आदमी कांग्रेस औऱ बीजेपी की सीटों की अनुमानित संख्या पर्ची पर लिखकर अपने नाम के साथ उसे बक्से में डालता गया । पर्ची डालने के बाद हजार रुपये भी रख देने थे । कुल 22 लोगों ने दांव खेला औऱ जब नतीजा आया तो नकवी जी के चेहरे पर जो मुस्कान थी वो मानो हर किसी से कह रही थी – बेटा नकवी की समझ से पंगा मत लेना। वैसे मैं यहां ये जरुर बता दूं कि जब डिब्बा खुला तो यूपीए की 206 सीटों के सबसे नजदीक जिस शख्स का अनुमान था वो आजतक के असाइंमेंट हेड शैलेश थे जिन्होंने अपनी पर्ची पर कांग्रेस-202 लिखा था। नकवी जी का अंदाजा हर चुनाव में नतीजों के बहुत करीब रहा है औऱ इस बात को आजतक की पूरी टीम जानती है। ये इसलिये नहीं कि वो लाल बुझक्कर हैं बल्कि वो खांटी पत्रकार हैं जो आंख नाक कान खोलकर रहते हैं, हर उम्र, हर तबके औऱ हर हलके के लोगों से गपियाते रहते हैं।

मुझे लगता है कि वो न्यूज इंडस्ट्री के एकमात्र न्यूज डायरेक्टर हैं जिनका दरवाजा ट्रेनी और इंटर्न तक के लिये भी खुला रहता है । वो अपना काम रोककर उसे पूरा सुनते हैं औऱ जब वो उनके चैंबर से निकलता है तो चेहरे पर ये संतोष होता है कि मैंने न्यूज डायरेक्टर से अपनी बात कही। अक्सर हमलोग इस बात पर चर्चा करते कि इतना ज्यादा काम के दबाव में रहनेवाला आदमी किसी से भी इतने इत्मिनान से कैसे बात कर सकता है । हमारे पास पांच मिनट से ज्यादा कोई रुक जाए तो अंदर खदबदाहट होने लगती है कि ये बला कब टले । काम के लिये वक्त नहीं और लोग बिलावजह टाइम खाने चले आते हैं। लेकिन नकवी जी के साथ ऐसा मैंने कभी नहीं देखा । आप उनके कमरे में जाइए , वो अपना काम रोककर आपसे बात करेंगे और तबतक जबतक आप उनसे विदा ना ले लें। आप निकलिए औऱ वो फिर अपने काम में लग जाते हैं। उनका बहुत सीमित लेकिन बहुत अनुशासित जीवन है। नकवी जी के साथ मैंने लगातार 7 साल काम किया है औऱ काफी करीब से देखा-जाना है ।

नकवी जी के चैंबर के सबसे नजदीक मेरा क्यूबिकल था औऱ दरवाजे में लगे 6 इंच चौड़े शीशे के पार अगर वो किसी को देख सकते थे तो वो मैं था । खबरों को लेकर दिनभर मेरा उनके कमरे में आना जाना लगा रहता लेकिन कई बार वो खुद ही मेरे पास आकर खड़े हो जाते । मुझे इसका अंदाजा तब होता जब पीछे से आवाज आती – क्या राणा जी क्या चल रहा है आपके राज में । मैं फिर खड़ा हो जाता औऱ बात से बात चल पड़ती । धीरे धीरे न्यूजरुम के कुछ और लोग पास आ जाते । फिर कहानियों-किस्सों, बहस-मुबाहिसों औऱ ठहाकों की रेलगाड़ी निकल पड़ती । कुछ लोग थोड़ी देर में निकल जाते तो कुछ दूसरे आ जमते । इसमें कई साथी तो दूसरे फ्लोरवाले होते जो यह सुनकर आते कि चौथे फ्लोर पर महफिल जमी है। बारहा ऐसा हुआ कि ठहाके इतने जोर के लगे कि पैनल प्रोड्यूसर को वहीं से चिल्लाना पड़ा – अरे सर कहिए तो बुलेटिन छोड़कर हम भी आ जायें। सब एयर पर जा रहा है..हांय हांय। मुझे बाद में लगा कि ऐसा माहौल नकवी जी न्यूजरूम में यूं ही नहीं बनाते बल्कि इसके पीछे उनका खास मकसद रहा करता है। वो है – लोगों तो तनाव-दबाव औऱ बॉस की क्षयकारी छवि से मुक्त रखना। ऐसा कई बार हुआ जब नकवी जी ने अपने कमरे में बुलाकर मेरे किसी फैसले पर अपना गुस्सा निकाला लेकिन उसी रोज या अगले दिन कोई ऐसा मसला जरुर आ जायेगा जिसपर वो अपने कमरे में मीटिंग बुला लेंगे औऱ सबको ग्रीन टी पिलवायेंगे ।

मसला तो पीछे रह जाता, हां हवा हल्की हो जाये इसके लिये कुछ हल्के फुल्के मुद्दे निकल आते। दो तीन औऱ लोगों का भी चहियाना-बतियाना हो जाता औऱ मेरा मूड भी नार्मल । मैं ऐसी घटनाओं तक यादों का सिरा पक़ड़ इसलिए जा रहा हूं ताकि ये समझ में आ सके कि देश के नंबर वन न्यूज चैनल को हर हफ्ते नंबर वन बनाए रखने के दैत्याकारी-सुखहारी मैनेजमेंटी दबाव औऱ अपनी टीम को टनाटन रखने के सांस-सरीखे दरकार का शेषनागी संतुलन कैसे बिठाया जाता है ।  

टीवी की टैमी संस्कृति ने न्यूज चैनलों को नाक रगड़वाई है औऱ धाकड़ अंग्रेजीपोषी पत्रकार मालिकों की हवा खराब की है । नंबर-रेवेन्यू की ऐसी नींदहारी जुगलबंदी न्यूज चैनलों में गाई-सुनाई जाती है कि हर हफ्ते इंटर्न भी पूछ लेता है सर इसबार कैसा रहा । टैम के कुछ हजार बक्सों में बंद भारत का दर्शक आपकी पत्रकारिता में पलीता लगा सकता है , खून-पसीनेवाली आपकी खबरों की ऐसी तैसी कर सकता है औऱ वही समूचे हिंदुस्तान के तमाम सवालों को अपनी मर्जी का गुलाम बनाए बैठा है। ऐसे में शर्म के कई सर्ग आए । बिना ड्राइवर की कार , यमराज से मिले गजराज, राखी-राजू मसाला , सांप खाओ-शीशा खाओ-रेत खाओ सीरीज, खली की खलबली और कुछ ना मिले तो कहीं भी कभी भीं कॉमेडी। इस दौरान कुछ चैनलों में लोक-अभिरुचि के लिहाज से द्विअर्थी शब्दों के शोधकर्ता फडफड़ाने लगे थे । किसी भाई ने प्रोमो पट्टी पर लिखा धोनी का 12 इंच अब हो गया 6 इंच । अब क्या होगा ? शो आया तो पता चला धोनी ने बाल कटवा लिये ।

2005-2008 के इस चार साला दौर को टीवी पत्रकारिता के इतिहास में वाकई लौहाक्षरों में लिखा जायेगा । फौलादी फैसलों और इंकलाबी जज्बों का पत्रकारीय दौर । खैर छोड़िए, इस दौर के बारे में ऐसा नहीं है कि आप नहीं जानते हैं लेकिन मैं इसको यहां इसलिये खींच लाया हूं क्योंकि इस दौरान नकवी जी में मैने भयानक विरोधाभास देखे । आजतक में उनकी वापसी के डेढ-दो साल हुए थे औऱ नंबर के खेल में आजतक को पटखनी देने के लिये दो खिलाड़ी चैनल कपड़ा फाड़ तमाशा करने को तैयार थे औऱ कर भी रहे थे ।  जनता को भी नया नया मसाला न्यूज चैनलों के जरिये मिल रहा था । हैरतखोरी-नजरखोरी-नाटकखोरी वाली हिंदी-जनता के स्वाद पर खबर चढ ही नहीं रही थी । राजनीति भी मनमोहन सिंह की सरकार आने के बाद मंद हो गयी थी, कहीं कुछ हो भी नहीं रहा था । ऐसे में दो चैनल भाईयों की लॉटरी लग गयी औऱ वो पिल पड़े अपना सारा गोला बारुद लेकर । अपनी जगह बचाने के चक्कर में आजतक को खबरिया चैनल होने का दंभ दफ्न करना पड़ा औऱ फिर शुरु हुआ शर्म का सर्ग जो साल दर साल चलता रहा।

इस दौरान कई बार आजतक नंबर एक के पायदान से खिसका औऱ नकवी जी ने बिना लाग लपेट कई बार कहा – हमें इस बात से मतलब नहीं कि आप क्या दिखा रहे हैं , हमें बस नंबर चाहिए। इस नंबर के चक्कर में पता नहीं क्या क्या हुआ औऱ होगा लेकिन कई दफा ऐसा हुआ कि शो चल रहा है , नकवी जी अपने कमरे से बाहर आये और कहने लगे – यार ये सब ठीक नहीं चल रहा है। आपलोग पत्रकारिता का बेड़ा गर्क कर रहे हो । साला दर्शक भी बड़ी से बड़ी खबर तैयार कर लीजिये नाक नहीं लगायेगा और तमाशा दे दीजिए तो दो रिपीट भी नंबर दे जायेगा। अब यही सही, तो यही होगा । क्या कीजिएगा नंबर तो चाहिए ही। आलम ये हो गया था कि रेटिंग औऱ कांटेंट पर नजर रखनेवाले रीसर्च डिपार्टमेंट का हेड बेचारा ये समझाता था कि आपका खली इसलिये नहीं चला और उसका इसलिये चल गया। आपने इस शो में राखी का ये वाला हिस्सा पहले डाला होता तो व्यूवर आपके पास पहले चिपक जाता औऱ उसकी कॉमेडी इसलिए चल गयी क्योंकि उसने राजू का एलिमेंट ज्यादा डाला। ऊपर से ओझा गुनी के भूतभगाऊ अंदाज में भविष्य बतानेवाले बाबा धमक आये – अब रीसर्च हेड इस बात पर भी जोर दे कि उसकी काट ढूंढो नहीं तो दिनभर की कमाई खा जायेगा ।

नकवी जी इस ब्रीफिंग को पूरी गंभीरता से लेते औऱ उस पूरे वीडियो प्रेजेंटेशन को ठीक से देखते कि चूक हुई तो कहां । उधर रोज रोज बाबाओं का अवतार होने लगा । तिलकधारी, गजमुखी, स्निग्धकपाली औऱ पता नहीं किस किसतरह के बाबा विरोधियों की स्क्रीन पर प्रकट होते , नंबर बटोरते औऱ अंतर्ध्यान हो जाते । एक रोज नकवी जी और मैं बैठे थे तो उन्होंने कहा – देखिए गुनाह बेलज़्ज़त नहीं, कोई बाबा ढूंढिए जो हुलिए में औऱ बोलने में भौकाली हो । ज्ञान-वान से बहुत मतलब नहीं है बस स्क्रीन पर आये तो लोगों को लगे कि इसकी नहीं सुनी तो अनर्थ हो जायेगा। बाबा ढूंढ भी लिए गये, चले भी , नंबर भी दे गये लेकिन वही नकवी जी एक दिन कहने लगे – बताइए मैं खुद ज्योतिष का बड़ा जानकार । आजतक कोई ज्योतिषि जो 19 रहा हमारे यहां नहीं बैठा लेकिन ये बैठ गया और चल भी गया जबकि इसको कुछ नहीं आता है।

एक व्यक्ति जिस कांटेंट को चला रहा है उसे चलाना नहीं चाहता और जो चलाना चाहता है उसे चलाने का जोखिम बार बार उठाना नहीं चाहता । इसीलिए मैंने विरोधाभास जैसे शब्द का इस्तेमाल पहले किया । वैसे बहुत कम लोगों को पता होगा कि नकवी जी ज्योतिष के अच्छे जानकार हैं, भारतीय विद्या भवन से बाकायदा डीग्री ली है। रत्न और स्टॉक मार्केट की समझ भी उनकी दाद देनेवाली है। खैर , तो उस भविष्यवक्ता महाराज की बात करते करते नकवी जी ज्योतिष की आकाशगंगानुमा विस्तार के बारे में बताने लगे, ज्योतिष में उनकी दिलचस्पी कैसे हुई बात इसतरफ भी मुड़ी और फिर ये भी बताया कि कुछ भविष्यवाणियां उन्होंने कितनी सटीक की हैं।

नकवी जी के साथ आपको जो बात बहुत खींचेगी वो ये कि उनकी याददाश्त बहुत अच्छी है। कौन सी घटना कब हुई, तब क्या बज रहा था, मौसम कैसा था , किसने क्या कहा और कौन किधर से आया जैसी बारीक बारीक बातें भी उन्हें याद हैं। वो जब आपको सुनायेंगे कि कैसे बचपन में मुंह अंधेरे भिगोया चना पॉकेट में ढूंसकर यारों के साथ निकल जाते थे या कैसे  दोस्तों के साथ बनारस की सड़कों-गलियों में दिन-दिनभर आवारगी चलती रहती थी या फिर कैसे बैट्री बनाने की परिवार की दुकान पर काम करते करते स्कूल पास कर लिया या फिर क्रिकेट मैच में विरोधी टीम के बेईमान अंपायर को हटाकर खुद अंपायरिंग की और उससे ज्यादा बेईमानी अपनी टीम के लिये ताल ठोककर की - तो आपको साथ साथ एक पूरी दुनिया चलती दिखेगी। वो उनकी यादों का वृतचित्र है । दरअसल जिस परिवार और जिन हालात से होकर नकवी जी आये हैं और जहांतक आये हैं – उसने नकवी जी को एक ऐसा आदमी बनाया है जिसे समाज की आखिरी सीढी पर खड़े इंसान का चेहरा पढनेवाली भाषा आती है और सबसे ऊपर बैठे लोगों की बातों का मतलब समझने के लिये उनको डीकोड करने का हुनर आता है ।

लेकिन इन सब बातों से परे नकवी जी की जो सबसे बड़ी ताकत है वो है भाषा औऱ स्क्रिप्ट। मुझे हमेशा ऐसा लगता रहा कि टीवी में बहुत कम लोग हैं जो टीवी की भाषा जानते समझते हैं और वैसा लिखते भी हैं। खुद के बारे में कुछ खुशफहमियां मेरी भी हैं , लेकिन जहां कहीं भी मैं फंसा या ठहरा - नकवी जी के पास ही गया। यकीन मानिये हर बार ऐसा ही हुआ कि उन्होंने अपने आसपास के पन्ने किनारे खिसकाये , एक दफा ऊपर से नीचे तक पढा, कोई गिरह पेंच लगा तो उसके बारे में पूछा औऱ फिर जो लिख दिया वो आपको कई लिहाज से हैरत में डालेगा । मसलन की मैंने ऐसा क्यों नहीं सोचा, मैंने ऐसा क्यों नहीं लिखा , ये तो बड़ा आसान है फिर मुझे ऐसा क्यों नहीं सूझा वैगरह वगैरह । शब्द अपनी जगह हों तो और ना हों तो स्क्रिप्ट पर क्या असर पड़ता है ये बात वो बार बार पूरी टीम को सिखाते दिखेंगे आपको ।

शो के नाम को लेकर काफी सचेत रहनेवाले संपादकों में से हैं वो। मैंने सैकड़ों नाम आजतक के अलग अलग शोज के लिये दिये होंगे । प्रोड्यूसर चाहे जेनरल बुलेटिन का हो, स्पोर्ट्स का या फिर क्राइम का, शो का नाम तय करने के लिये मुझे फोन जरुर करेगा । एक राय ऐसी रही कि मेरे लिखे प्रोमो और प्रोग्राम के लिये तय किए नाम पर ज्यादा नुक्ताचीनी की जरुरत नहीं । जिस रोज आजतक में मेरा आखिरी दिन था उस रोज वीडियोकॉन टॉवर के नीचे चाय की दुकान पर शम्स ताहिर खान जबरन ले गये और चाय पिलाने के बाद बोले – बॉस जाते जाते वारदात के आज के एपिसोड का नाम देते जाईए। जापान में सुनामी के बाद समंदर की लहरो से फैलते खतरे पर है शो। मैंने उठते हुए कहा रख दो – लहर लहर ज़हर औऱ शम्स ने इतराकर एक औऱ प्याली चाय पिला दी । फिर भी , मैं जब कभी नाम के मामले में फंसा  औऱ नकवी जी के पास गया तो उन्होंने चुटकी बजाते सुझा दिया। वो तीन बातें अक्सर कहते हैं – पहला ये कि गुनाह बेलज्जत नहीं जिसका जिक्र मैंने ऊपर भी किया है , दूसरा- नाम तय करो तो अर्जुन कि तरह मछली की आंख पर नजर रखो – दर्शक सीधे समझ जाए , घुमा फिराकर समझाने की जरुरत नहीं । ये भी देखो कि नाम आज के ट्रेंड औऱ टेस्ट में फिट बैठ रहा है या नहीं । औऱ तीसरा ये कि दर्शक व्याकुल आत्मा है- हाथ में रिमोट लिये बैठा है । आपकी बात समझ नहीं आयी या पसंद नहीं आयी तो सेकंड में निकल जायेगा।

दरअसल वो कहते यही हैं कि पत्रकार को हमेशा अपनी सोच को आज में लंगर डालकर रखना चाहिए। आज का चलन क्या है, पसंद क्या है , परेशानियां क्या हैं, हिट क्या है, फ्लॉप क्या है और क्यों है वगैरह वगैरह । उनके पास सूत्र वाक्य हैं औऱ वो भी बड़े गहरे, बड़े काम के । मैनेजमेंट के नंबर वाले दबाव , कांटेंट के टीआरपी गेम (ऐसा खेल की सांप भी मर जाये औऱ लाठी भी ना टूटे यानी नंबर भी आ जाये और न्यूज चैनल की इमेज भी बची रही) औऱ पर्दे में पड़े तमाम तरह के पचड़े ज्यादा पसारे बगैर निपटा लेने - का हुनर नकवी जी को बखूबी आता है। ठीक वैसे ही जैसे शेषनाग अपने फन पर धऱती का संतुलन बनाए रखते हैं- वो धुरी पर घूमती रहती है , सूरज का चक्कर तय वक्त में लगाती रहती है औऱ दुनिया भी अपनी रफ्तार में चलती रहती है । इस शेषनागी संतुलन के साधक हैं नकवी जी।  कोई तामझाम, फांयफूंय , शेखीवेखी नहीं। एकदम सतही इंसान जिसने अपनी पत्रकारिता से कई समझौते किए होंगे लेकिन समझौते के एवज में अपने भीतर के पत्रकार को नहीं मारा । मैं मानता हूं कि नकवी जी टीवी पत्रकारिता के ऐसे मानक हैं जिनको सामने रखकर ही किसी का कद आगे मापा जायेगा।