यह ब्लॉग खोजें

शनिवार, 5 जुलाई 2014

किनारों की रोशनी



यादों के देवदार पर मौसम की तरह उतरो
अरसा हुआ लौटे चांदनी दिनों के काफिलों के

अंधेरे में हरसिंगार उजाले में चिनार बन जाओ
बस्ती में बढने लगे हैं डेरे हमशक्ल वफाओं के

गर कर सको हिम्मत तो मेरे साथ चलो
आसान नहीं पता ढूंढना आवारा मंज़िलों के

कुछ नहीं बस हथेली भर जमीन बन जाओ
आसमां होगा मगर घर नहीं होते बादलों के

गंगा हो मौजों में मेरी रोशनी भर लो
अंधेरों में सजा लेना पास अपने किनारों के