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रविवार, 22 जून 2014

कुदरत की नेमत नरकंडा और थानेदार

दस दिन हिमाचल में गुजार कर बीती रात लौटा हूं। लगभग सभी जिलों की मशहूर और कम जानी पहचानी दोनों तरह की जगहों पर ठहरा। सालों बाद चौबीसों घंटे की चौधराहट और चिकचिक से बहुत हद तक फारिग था। कई पड़ाव ऐसे रहे जहां मैंने लिखने की ज़रूरत  महसूस की, सो लिखा । लेकिन पोस्ट अब कर रहा हूं । पहली कड़ी आपके सामने है।

रात के १२.३० बज रहे हैं । दूर दूर तक निपट  सन्नाटा पसरा हुआ है । जीवन में ऐसा पहली बार है कि  इंसानी आबादी का कोई शोर कहीं से कभी नहीं आ रहा । चांद पहाड़ों की भागती चोटियों  के बीच से ऐसे दिख रहा है जैसे रोशनी की कोई थाली आसमान में टंगी हो। मेरे कमरे की एक खिड़की  का परदा हटा हुआ है और शीशे के बंद पल्लों के उस पार चांद से लेकर सर्किट हाउस के उस कमरे तक जिसमें मैं हूं , कुदरत का अजीब सा जादू फैला हुआ है। यहां की खामोशी के तारों पर मानो एक एक चीज सधी हुई है। बस बीच बीच में हवा हरहराती है। देवदार के पेड़ों से उसकी गुत्थमगुत्थी इस सन्नाटे को तोड़ती है। ऐसा लगता है मानो पेड़ों पर उसका प्यार बेइंतहा उमड़ आया है और वो उनके जिस्म के भीतर रेशे रेशे में भर जाना चाहती है । देवदार के लंबे घने छरहरे पेड़ों के कंठ से प्रेम के आखिरी पलों की उन्मादी आवाज फूट रही है- स्स्स्स्स्स्स्सांय स्स्स्स्सांय सी। यही आवाज यहां रह रहकर कमरे तक आती है। चढ़ी  रात में हरियाली की सेज पर लेटी दमकती चांदनी और उसके बदन पर कभी हौले और कभी तेजी से लहराती हवा पहाड़ों के इस दायरे में एक अजीब सी मदहोशी घोले हुए है। ऐसा लगता है जैसे सुबह बस एक इंतजार बनकर ही रह जाए तो अच्छा। शिमला से करीब ६५ किलोमीटर दूर नारकोंडा नाम की जगह है जहां मैं ठहरा हूं। मेन रोड से १०० मीटर ऊपर एक सड़क सीधे सर्किट हाउस को आती है । बहुत सलीके का बना सर्किट हाउस है और बेहतर रखरखाव इसके लॉन से लेकर अंदर के बाथरुम तक में साफ साफ दिखती है। कांग्रेस की बुजुर्ग नेता विद्या  स्टोक्स का इलाका है और पास में थानेधार में उनका पुशतैनी घर है। जितने लोगों से मिला सब उनका सम्मान से नाम ले रहे थे और लगे हाथ यह बताना भी नहीं भूल रहे थे कि  बहुत सीधी सादी महिला हैं इसलिए यहां के विकास के लिए कभी लड़-भिड़ नहीं पायीं। मेरा कमरा उनकी ही  सिफारिश पर यहां बुक हुआ है।
शाम करीब साढ़े  चार बजे थानेधार गया था। थानेधार नारकोंडा से करीब ९ किलोमीटर दूर है। सिद्दार्थ जो यहीं हमारे मित्र बने उनके साथ । दरअसल हिमाचल की मेरी यात्रा का इंतजा़म नीरज कर रहे हैं। नीरज शिमला में रहते हैं, अपना बिजनेस देखते हैं और बेहद नेक इंसान हैं। सिद्दार्थ उन्हीं के साले हैं। मैं जब इंतजाम की बात कर रहा हूं तो इसका मतलब ये है कि मुझे कहां जाना है, कहां ठहरना है , क्या क्या देखना है, किससे मिलना है वगैरह वगैरह। बहरहाल, थानेधार के रास्ते में सेब के बागान आपके साथ चलते रहते हैं। हरे भरे पेड़ों के ऊपर नेट की चादरें घाटी से चोटी तक नजर आती हैं। मैंने सिद्दार्थ से पूछा कि ये नेट क्यों डाला जाता है तो उन्होंने बताया कि ओलों से फसल को बचाने के लिए ये तरकीब निकाली गयी और बहुत हद तक काम भी करती है। मैं शिमला से जब नारकोंडा के रास्ते में था तो सड़क के दोनों ओर छोटे छोटे गांव कस्बों के बीच हजारों फीट नीचे घाटी से लेकर हजारों फीट ऊपर चोटी तक हरियाली ही हरियाली पसरी हुई थी । बीच बीच में सफेद काले नेट की चादरें डाली हुई दिखती रहीं । मैं लाख कोशिश के बावजूद समझ नहीं पाया कि ऐसा क्यों है। सिद्दार्थ ने इस कौतुहल को शांत किया। थानेधार के रास्ते में सिद्दार्थ का सेब और चेरी का अपना बाग है , जिसमें हम गए । नेपाल का एक परिवार उसकी देखरेख करता है। शेर बहादुर , सिद्दार्थ ने इसी नाम से उस रखवाले को बुलाया था । चलते हुए उसने चेरी से भरा एक डिब्बा मेरी बेटी को पकड़ा दिया । जबतक हमलोग बाग घूम रहे थे तबतक उसने चेरी तोड़कर डिब्बे में पैक कर लिया था । शायद मालिक ने इशारे में उसे बता दिया था कि मेहमान हैं , खातिरदारी का रिवाज निभाना है, खाली हाथ नहीं जाने देना है । बागान में सिद्दार्थ बता रहे थे कि समूचे हिमाचल में बागान में काम करनेवाले मजदूर और देखरेख करनेवाले ज्यादातर नेपाली हैं । हजारों परिवार पीढ़ियों से यहां हैं , कभी कभार अपने गांव जाते हैं। कुछ तो अब यहीं के होकर रह गए हैं। लेकिन अब नेपाल से उनकी आवक कम हो गयी है इसलिए मजदूरी भी बढ़ गयी है । नतीजा ये हुआ है कि सेब और चेरी का प्रोडक्शन कॉस्ट ऊपर चला गया है। दरअसल हम सर्किट हाउस से निकले थे यहां के काफी नामी गिरामी व्यक्ति प्रकाश ठाकुर से मिलने के लिए और तय ये किया था कि रास्ते में देखने लायक जो जगहें होंगी वहां थोड़ा-थोड़ा ठहरते चलेंगे। सिद्दार्थ का बाग भी ऐसी ही जगहों में एक था। वहां से निकलने के करीब दस मिनट बाद हम प्रकाश जी के यहां पहुंच गये । सड़क से कोई पच्चीस सीढ़ियां नीचे उतरते ही एक समतल में काफी सजा धजा मकान खड़ा था, जिसके एकतरफ गेस्ट हाउस है और दूसरी तरफ काफी खुली और खाली जगह है, जिसमें बच्चे खेल रहे थे। घर के अंदर हमें एक व्यक्ति ले गया । घुसते ही दरवाजे के बगल से सीढ़ियां ऊपर को जाती है और एक हॉल में खुलती हैं। यह हॉल अर्ध चंद्राकार सा है और इसके एक सिरे से दूसरे सिरे तक शीशे के बड़े बड़े पारदर्शी पल्ले लगे हुए हैं। यहां पहुंचते ही मेरे मुंह से निकला ये तो जन्नत है । सामने प्रकाश जी खड़े थे । मेरी तरफ हाथ बढ़ाते हुए बोले आइए आइए , आपका स्वागत है। प्रकाश ठाकुर से मेरी पहली मुलाकात थी लेकिन उनका मेरी तरफ बढ़ा हुआ हाथ और खातिरदारी के लहजे ने उनकी मुझसे पहचान करा दी। मैंने हाथ मिलाते हुए कहा - सर क्या शानदार जगह रहते हैं आप । यहां तो जिधर देखो उधर ही जन्नत है। सामने सूरज पहाड़ की चोटियों पर डूब रहा था । बांयीं तरफ से लेकर दांयी तरफ तक हरी-हरी चोटियां आसमान को टांगे भागती हुई सी दिख रही थीं । चोटी से लेकर खूब नीचे घाटी तक देवदार के पेड़ों और सेब के बागानों की घनी पांत सजी पड़ी थी । बीच बीच में बड़े खूबसूरत से घरों की छोटी छोटी जमात । कुल मिलाकर इस नजारे ने अजीब सा नशा पैदा कर दिया । मैंने प्रकाश जी से फिर कहा - सच कहूं तो मैंने इतनी खूबसूरत जगह पहले कभी देखी नहीं । हालांकि मैं कश्मीर और पूर्वोत्तर का चप्पा चप्पा छान चुका हूं लेकिन कुदरत पहली ही नजर में यूं बांध ले ऐसा पहली बार हुआ है। हम सब एक टेबल के चारों ओर कुरसी में धंस चुके थे और चाय टेबल पर आ गयी थी। हाथ के इशारे से हमसे चाय पीने का आग्रह करते हुए प्रकाश जी ने अपना प्याला उठाया । जानते हैं यहां जो आता है वह यही कहता है लेकिन सर्दियों में जेल वाली ज़िन्दगी भी हम ही काटते हैं- प्रकाश जी ने मुस्कुराते हुए कहा। यहां जाड़ों में १२-१५ फीट बर्फ गिरती है, रास्ते बंद हो जाते हैं और अड़ोस पड़ोस तक से संपर्क कट जाता है। खाने पीने से लेकर घर परिवार की बाकी जरुरत का सामान सहेज कर चार महीने हम ही काटते हैं तो फिर जन्नत का लुत्फ भी तो हम उठाएंगे ना । प्रकाश जी अपनी रौ में बोल रहे थे और इतना कहते कहते उन्होंने जोर का ठहाका लगा दिया। गोरे चिट्टे से इंसान , नीली आंखे , आंखों पर चौकोर सा चश्मा , सफेद बाल ऊपर की तरफ संवरे हुए और उमर कोई ६५ के पास की है प्रकाश जी की । नीरज ने शिमला से  निकलते हुए कहा था- प्रकाश जी मिलना चाहते हैं , जरुर मिलिएगा सर । यहां की राजनीति और सेब के कारोबार के धुरंधर जानकार हैं। अच्छी तबीयत के हैं । आपको भी मिलकर अच्छा लगेगा । नीरज की बात सौ फीसदी सही थी। ४५ मिनट कैसे बीत गए पता ही नहीं चला। चाय का मेरा दूसरा प्याला भी खत्म होनेवाला था। पिछले तीन दिनों में पहली बार मेरी पसंद की चाय मिली थी । कड़क और एकदम ज़ायकेदार। सूरज चोटियों की ओट में चला गया था । आसमान और पहाड़ों के बीच फैली सिंदूरी सांझ में रात अपना रंग घोलने लगी थी। अंधेरा होने से पहले सर्किट हाउस पहुंचने की चिंता ने हमें वहां से उठने पर मजबूर कर दिया। लेकिन नारकंडा और थानेदार कुदरत की नेमत है।