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रविवार, 5 जुलाई 2015

टीवी पत्रकार और मित्र शैलेेंद्र का जाना

स्याही भर सपना
आंख भर पानी
और छाती भर रिश्ता
इससे ज्यादा उसे
कुछ चाहिए भी नहीं था.

उसमें बची थी
ठंडे चूल्हों की आंच
ज़िंदा थी
बंजर होते जाने की बेचैनी
बाकी था
पसीने में नमक भी
नहीं तो लीक को लतिआने की ताकत
ख़बरखोरी ने छोड़ी कहां है.

वक्त सोख लेगा
कपड़ों में बसी उसकी गंध
तस्वीरों पर धुंध डेरा डाल देगी
सूख जाएगा
शब्दों का हरसिंगार
लेकिन जब कभी कोई
क़दभर ही नज़र आएगा
या कोई आवारा
सड़कों को रातभर जगाएगा
वो अगले मोड़ पर
सजधज कर
नई नज्‍म के साथ नज़र आएगा.

( जून २००९ - शैलेंद्र के साथ आजतक में काम किया और कई दफ़ा साथ बैठकर घंटो गपिआए. )