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बुधवार, 9 सितंबर 2015

अजीत अंजुम बज़रिए दिग्विजय सिंह



अजीत जी (अंजुम) का थोड़ी देर पहले एफबी स्टेटस पढा तो मुझे लगा सुबह से मैं जो सोच रहा था उन्होंने वो कर दिया. इसलिए उस बारे में आगे कुछ लिखने करने की जरुरत नहीं है. अजीत जी को पिछले १२-१३ साल से जानता हूं. टीवी न्यूज इंडस्ट्री में बहुत कम लोग हैं जो काम अपनी शर्तों पर और जीवन कुछ दायरे में जीते हैं. अजीत जी उनमें से एक हैं. २००३ में आजतक में नाइट शिफ्ट में था. रनडाउन मेरे जिम्मे था और अजीत जी शिफ्ट इंचार्ज थे. तब रनडाउन बड़ा आतंक हुआ करता था. कोई हाथ लगाने की हिम्मत भी नहीं करता था. मां घर से आनेवाली थी और ट्रेन सुबह ७.३० बजे दिल्ली पहुंच रही थी. मैंने पांच बजे अजीत जी से कहा मुझे ६.३० बजे स्टेशन के लिए निकलना होगा, अखिल भल्ला सुबह आ जाएगा तो रन संभाल लेगा. मेरी बात हो चुकी है. अजीत जी ने कहा ये कैसे होगा. पता नहीं वो कब आएगा. आप नहीं जाइएगा. मैंने ऐसी उम्मीद की नहीं थी. सो झटका सा लगा. आदमी अनुशासित हूं लेकिन बहुत जिद्दी भी, इसलिए मैंने दोबारा रनडाउन संभाल लिया और तय कर लिया कि मां स्टेशन पर घंटा भर इंतजार कर लेगी लेकिन जाऊंगा सुबह आठ बजे ही- शिफ्ट खत्म होने के बाद. वादे के मुताबिक अखिल ६.४५ के आसपास आ गया. अजीत जी को शायद ये लगा कि उन्होंने जो कहा वो ठीक नहीं था. मेरे पास टहलते हुए आए और बोले आप स्टेशन चले जाइए, अब सब हो जाएगा. मैंने कहा नहीं आठ बजे ही जाऊंगा. वो कुछ कहते रहे, मैं सुनता रहा लेकिन मैंने शब्द भर भी आगे नहीं जोडा. आठ बजने से पहले मैंने अपना इस्तीफा लिखा लिया और निकलते समय उनको मेल कर दिया. जिस कंपनी में मां के लिये समय नहीं मिल पा रहा हो, उस कंपनी में मैं काम नहीं कर सकता. मेरी ये शिकायत ही मेरा इस्तीफा है. आगे भेज दीजिएगा. ऐसा ही कुछ लिखा था मैंने. दफ्तर से निकलने से कुछ देर पहले मां ने फोन कर दिया कि साथ में गांव के एक चाचा है उनके साथ घर जा रही हूं, तुम सीधे घर ही आना. तब मेरे पास मारूति ८०० कार थी. वीडियोकॉन टावर के नीचे आया, आंखे उठाकर बिल्डिंग को एकबार देखा, सुबह के लिये रात से जो नेवीकट बचाकर रखी थी वो जलाई और निकल गया. पंचकुइयां रोड जहां सीपी में दाखिल होती है उस जगह मैं पहुंचा ही था कि अजीत जी का फोन आया. मैंने काफी सोचने के बाद फोन उठाया. छूटते ही दूसरी तरफ से आवाज आई- कहां हैं आप. मैंने कहा सीपी. आप वहीं रुकिए मैं आ रहा हूं. मैंने कहा अजीत जी घर जाने दीजिए थका हुआ हूं. नहीं आप रुकिए मैं पांच मिनट में आया. मैंने आउटर सर्किल में पंचकुइंया रोड के आगेवाले पेट्रोल पंप के पास कार खड़ी कर दी. ठीक पांच-सात मिनट में अजीत जी आ गये. दोनों एक दूसरे के आमने सामने थे और किनारे आगे पीछे कारें खड़ी थीं. देखिए मैं कुछ ही महीने पहले आया हूं, रनडाउन आता नहीं है, हेडलाइंस भी आप देखते ही हैं कि अखबार देख देख बार बार काटता छांटता रहता हूं. रातभर खबरों में आपके साथ मरता खपता रहता हूं. मैं मानता हूं कि ऐसे मुझे नहीं बोलना चाहिए था लेकिन वो मेरी घबराहट थी. आपके रहने से कुछ चीजें संभली रहती हेैं. इसलिए मैं ऐसा रिएक्ट कर गया. आप इस्तीफा उस्तीफा नहीं देंगे. अजीत जी एक सुर में अपनी बात कहे जा रहे थे. सर्द सुबह थी और मेरी आंखें गीली. थोड़ी देर में उन्होंने मेरा दिल हलका कर दिया. हम दोनों फिर सुकून से अपने अपने घर लौट गए.
२००३ के आखिरी या फिर २००४ के शुरुआती महीनों में अजीत जी और संजीव पालिवाल दोनों सीनियर प्रोड्यूसर आजतक छोड़ रहे थे. मेरी पीठ में जनवरी २००४ में गंभीर चोट लग गयी थी जिसके चलते अस्पताल में महीने भर भर्ती रहा . महीने भर बाद जब २४ फरवरी को आजतक दफ्तर पहुंचा तो सल्तनत बदल चुकी थी . उदय शंकर जा चुके थे औऱ बतौर न्यूज डायरेक्टर नक़वी जी की आजतक में वापसी हुई थी. इंक्रीमेंट और प्रोमोशन के लेटर बंट रहे थे. शाज़ी ज़मां हमारे ईपी आउटपुट थे और वही मुझे लेकर नक़वी जी के कमरे में गए. अपरेज़ल लेटर मिला तो आंखों पर यकीन नहीं हो रहा था. वेतन में दो गुना से ज्यादा का इजाफा और सीनियर प्रोड्यूसर के तौर पर प्रोमोशन. बाद में एचआर हेड ने मुझे बताया कि अजीत अंजुम जब एक्जिट इंटरव्यू दे रहे थे तो उन्होंने कहा कि अगर किसी को प्रोमोट कर सीनियर प्रोड्यूसर बनाना है तो आप राणा यशवंत को बनाइए . यही बात संजीव पालिवाल ने भी कही थी. मुझे लगा यार जो आदमी बोलने में किसी बात का लिहाज नहीं करता, सुबह के बुलेटिन के लिये रात नौ बजे से आकर अपना प्रोमो चलवाना शुरु कर देता है, उसके लिए तनातनी तक कर लेता है, वो दिल का इतना साफ भी है. इंसान होने के नाते अजीत अंजुम खामियों से परे नहीं हो सकते. वैसे भी उनको उनकी तबीयत की वजह से नापसंद करनेवालों की जमात आबाद रहती है. लेकिन मैं ये दावे से कह सकता हूं कि अजीत अंजुम में कोई ऐसी खोट नहीं है जिसे आप उनके इंसान और प्रोफेशनल होने की बुनियादी जरुरत के खिलाफ मानें. इसी वजह से दिग्विजय सिंह और अमृता राय की शादी को लेकर बेहुदा और भोंडी टिप्पणियों को वे बर्दाश्त नहीं कर पा रहे. तकलीफ मुझे भी है, लेकिन ऐसे लोगों को अनफ्रेंड करने की बजाय उन्हें इस बात का अहसास कराना ज़रुरी है कि किसी के जीवन में ताक झांक करने या फिर फिकरे कसने की भी सीमा होती है. मर्यादा मैं नहीं लिख रहा. बस सीमा. सोशल मीडिया ने कई ऐसे काम किए हैं जो हम टीवी में नहीं कर पाते. कई मोर्चों पर एक क्रांितकारी हलचल सा दिखता है सोशल मीडिया. लेकिन निजता और नैतिकता के कई सवालों पर बारहा बेहद घटिया और ओछी सोचवाले लोगों का शिकार हो जाता है. दिग्विजय सिंह और अमृता राय की शादी में आखिर ऐसा क्या गलत हो गया कि भाईलोग आसमान सिर पर उठाए घूम रहे हैं. अजीत जी, मैं अनफ्रेंड तो नहीं करुंगा क्योंकि अचानक रिश्ते ( चाहे जैसे भी हों) काटने में मुझे तकलीफ होती है. लेकिन ऐसे दोस्तों से इतना जरुर कहूंगा कि देश दुनिया के बुनियादी सवालों पर सोचिए, बहस कीजिए और मजे लेने की इस बीमार मानसिकता को गोली मारिए.