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बुधवार, 9 सितंबर 2015

कहां हो पीलू ?


कुछ चीजों के होने का अहसास आपको अक्सर होता ही नहीं. अचानक एक रोज जब वो नहीं होती हैं तो लगता है कि अरे कहां गईं. फिर उनका ना होना उनके होने के मायने बताने लगता है. यहां खाली खाली सा इसलिए लग रहा है कि इस जगह जो पेड़ था वो अब नहीं है. इस मोड़ पर कुछ बदला बदला सा लग रहा है- ध्यान देने पर समझ में आता है सामने का मकान अपनी जगह नहीं है. घर में घुसते ही कुछ नया सा लगता है - पता चलता है कि अंदर की चीजों की जगहों की अदला-बदली कर दी गई है. दरअसल देखते देखते चीजों को उनके क्रम में देखने की आदत आंखों को हो जाती है. इसीलिए हम पहचाने रास्तों पर तब भी चल रहे होते हैं जब दिमाग किसी उधेड़बुन में लगा होता है लेकिन जैसे ही रास्ते पर कुछ नया सा होता है हम ठिठक से जाते हैं. अरे यार ये तो वो राह नहीं जिसपर हम कई बार आए हैं और आज जाना था . जीवन में जिन लोगों और चीजों से रोज रोज का वास्ता होता है उनको लेकर भी ऐसा ही होता है. उनके उनकी जगह पर ना दिखने या रहने पर खटका सा लगता है. आज जब घर पहुंचा, कार पार्क की और पीलू नहीं आई तो ऐसा ही लगा. अमूमन गेट से ही गाड़ी के आगे आगे दौड़ती रहती है. मेरे कार से उतरने के बाद भी वो आगे आगे और मैं पीछे पीछे. बार बार झटके से पीछे देखेगी और फिर आगे . आधा मुझे और आधा रास्ते को देखती रहती है. शरीर को यूं मोड़कर रखती है कि जितनी आसानी से पीछे देख सके उतने ही आराम से आगे भी. गोया कह रही हो मेरे पीछे पीछे आओ घर पहुंचा दूंगी. पहुंचा भी दिया करती है. दरवाजे पर जाकर खड़ी हो जाएगी, फिर सिर उठाकर मुझे देखेगी. दरवाजा जैसे ही खुलेगा चुपचाप लौट जाएगी. यह उसका रोजाना का जैसे काम-सा हो. बारिश में भी मैंने कभी उसको नदारद नहीं पाया. अपने दोनों बच्चों को किसी ओट में रखकर भीगते हुए दौड़ी आएगी. तब तेज तेज चलती है ताकि मैं जल्दी अंदर चला जाऊं और वो अपने बच्चों के पास. कुछ दिनों से बीमार रहने लगी है. कमजोर भी दिखती है. मेरी नजर मिल जाएगी तो टुकुर टुकुर देखती रहेगी. कभी कभार बालकनी से पूछा करता हूं - पीलू क्या हाल है? कुछ खाई? आजा कुछ खा ले. चुपचाप बालकनी की रेलिंग के पास आकर खड़ी हो जाएगी. मैं घर में आवाज लगाता हूं - यार पीलू आई है. अंदर से कुछ ना कुछ खाने को आ जाएगा या फिर दूध कटोरा भर. लेकिन कभी मैंने उसे पहले खुद खाते या पीते नहीं देखा. दोनों बच्चों के पेट भऱने का इंतजार करेगी और उनके हट जाने के बाद बचा खुचा खा-पी लेगी. मैं कई बार सोचता हूं कि कहने को तो कुतिया है लेकिन ममता से यह भी भरी हुई है. मां ही एक रिश्ता है जिसका प्यार धऱती के सभी जीवों में बराबर सा दिखता है. पीलू मेरी सोसाइटी के कुत्तों की जमात में थोड़ी अलग-सी है. कई दफा उसने आती जाती कामवालियों को काटा है. उससे वे सारी डरती भी हैं. मैंने एक दफा पूछा कि क्यों काटती है तो पता चला कि उसके बच्चे को जिसने भी मारा उसको आज नहीं तो कल वो काटेगी ही. पीलू की तरफ मेरी नजर तब जाना शुरु हुई जब मेरे घर में शेरी आई. बात पिछले साल दिसंबर की है. मुझे सबसे ज्यादा कुत्तों से नफरत रही है. इसलिए मैंने हमेशा कुत्ता पालने की हर फरमाइश को पूरी ताकत से काटा और यह कहते हुए दफ्तर गया कि आज के बाद ऐसी कोई बात होनी नहीं चाहिए. दिसंबर में एक रोज दफ्तर से आया तो देखा पूरा परिवार एक कुत्ते के चारों ओर जमा है. थाली में उसका खाना रखा है और वो आराम से खा रहा है. मुझे देखते ही रुक गया. सही कहूं तो सहम गया. मेरे बच्चों के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं. पत्नी चुपचाप मुझे देख रही थीं. मैं बिना कुछ बोले ड्राइंगरुम में बैग रखकर बेडरुम में कपड़े बदलने चला गया. थोड़ी ही देर में वो नया मेहमान मेरे पास आकर खड़ा हो गया. मैं उसे देख रहा था और वो मुझे. मैंने कहा बाहर जाओ. वो खड़ा रहा. मेरी आवाज ऊंची हुई- बाहर जाओ..। वो मेरे पैरों के पास अपना पूरा शरीर समेटकर बैठ गया. जैसे कह रहा हो तुम गुस्से में हो, मुझे मारना चाहते हो, मार लो, लेकिन बाहर मत भेजो. मैंने कुछ कहा नहीं. कपड़े बदले खाना खाया और सो गया. घर के लोगों ने भी कोई बात नहीं की और वे सारे दूसरे कमरे में सो गए. सुबह कोई चीज मेरे शरीर से रगड़ खाती हुई सी लगी. आंख खुली तो नया मेहमान पैरों को, पीठ को, गर्दन को सूंघ रहा था. मैं उठकर बैठ गया. जोर से चिल्लाया- बाहर जाओ. क्या तमाशा है ये. अब कुत्ता मेरे बेड पर चढेगा. मैंने उसको धक्का देकर नीचे फेंक दिया. वो नीचे जाते ही समूची देह समेटकर बैठ गया और मुझे घूरने लगा. तभी पत्नी आ गयीं- क्या है. अब तो गुस्सा थूक दो. बिच है. इसका नाम शेरी है. कामवाली दीदी के यहां रहती है. वो तीन दिन के लिये गई हैं , उनके दामाद का एक्सिडेंट हो गया है, इसलिए छोड़ गयी हैं- पत्नी ने थोड़े तेवर में ही कहा. बस तीन दिन फिर तो चली ही जाएगी. उन्होंने कहते हुए चाय की प्याली थमा दी. मैंने भी आगे कुछ कहा नहीं. टीवी खोला औऱ चाय पीने लगा. जब दफ्तर जाने लगा तो शेरी पैरों से लगभग लिपट सी गयी. जूते, पैर , हाथ चाटने लगी. इन सारी चीजों से मुझे नफरत है लेकिन पता नहीं क्यों मैं थोड़ी देर के लिये खड़ा रह गया. ना कुछ कहा और ना कुछ सोच पाया. बस उसे देखता रहा. कुछ ही देर में उसने अपनी आंखे ऊपर की, मुझे देखा और झटके से बैठ गयी. दोनों पिछले पैर पेट के नीचे और आगेवाले मेरे जूतों के ऊपर. ऐसा लगा जैसे कह रही हो - मुझे माफ कर दो. रख लो अपने पास. मैंने ऐसा ही माना भी. दरवाजा खोला औऱ चला गया. पहली बार किसी कुत्ते की हरकत पर कुछ बुरा नहीं लगा था. रात में जब दफ्तर से लौट रहा था तो शेरी का ख्याल आया. सुबह मुझे सूंघते हुए और आफिस आते समय चाटते हुए दिखने लगी. सोचा अभी जाऊंगा तो क्या करेगी. यह सवाल मेरे भीतर कौतूहल पैदा करने लगा. मैं ज्लदी से घर पहुंचना चाहता था. जैसे की कॉल बेल बजी लगा कोई बहुत तेजी से दरवाजे तक आया और उसको धक्का दिया. थोड़ी देर में दरवाजा खुला तो बेटे ने कहा आपकी गाड़ी जैसे ही रुकी रुम से दौड़कर दरवाजे तक आई, फिर अंदर कमरे में और फिर दौड़कर दरवाजे तक. मैंने कहा अच्छा. तो इसको पता है कि मैं आ गया. बेटे ने कहा हां. कुत्तों की यही तो खासियत होती है वो एकबार स्मेल कर लें तो फिर दूर से ही अंदाजा लगा लेते हैं कौन आया. मैंने बैग रखा और जूते खोले. मोजों को जैसे ही हाथ लगाया शेरी ने उनको खींचना शुरु किया और बारी बारी से दोनों को खींच भी लिया. मैं हल्का मुस्कुराया और फिर अपने कमरे में चला गया. वो पीछे पीछे आ गयी. मैंने आहिस्ता उसके शरीर पर हाथ रखा और फिर फेरने लगा. वो दम साधे खड़ी हो गयी. शायद वो मेरा पहला लगाव था. इसके बाद शेरी मेरे अंदर अपनी जगह बनाती चली गयी औऱ आज वो ना दिखे तो परेशना हो जाता हूं. कामवाली दीदी जब लौटीं तो उनको कह दिया गया अब शेरी यहीं रहेगी. उन्हें भी उसकी देखरेख और खिलाने-पिलाने से मुक्ति मिल गई. शेरी अब घर के एक सदस्य की तरह हो गई. शुरु से ही उसकी पीलू से बिल्कुल नहीं बनती है. एक बालकनी के अंदर औऱ दूसरी बालकनी के बाहर तबतक झगड़ती रहती हैं जबतक दोनों में से किसी को हटा नहीं दिया जाए. पीलू ने कब से मेरी कार के आगे आगे चलना शुरु किया यह तो ठीक ठीक याद नहीं लेकिन धीरे धीरे सोसाइटी के अंदर आते ही उसको नजरें ढूंढने लगीं. वह गेट से दस कदम अंदर खड़ी मिलती और फिर कार के आगे आगे घर के सामने तक दौड़ती रहती. कार के बाहर मेरे निकलने से लेकर घर के दरवाजे तक साथ चलना उसकी आदत सी हो गयी. आज जब नहीं आई तो घऱ में आते ही सबसे पहले मैंने पत्नी से पूछा- यार पीलू कहां है. उन्होंने कहा कहीं छिपी होगी. आज नगर निगमवाले आए थे सोसाइटी के सारे कुत्तों को गाड़ी पर लादकर ले गए. पीलू को पता नहीं कैसे यह बात समझ में आ गई. वो अपने दोनों बच्चों को लेकर ११५ नंबर वाली आंटी के घर के पीछे की झाड़ियों में छिप गयी. शाम को जब मैं उसको ढूंढ रही थी तो आंटी ने ले जाकर दिखाया. तब भी झाड़ियों में ही बैठी थी. मैंने उसका खाना वहीं पहुंचा दिया. पत्नी ने कहा. लेकिन वो नगर निगमवाले कल भी आएंगे तो उसको जाना ही पड़ेगा. ढूंढ ही लेंगे- कुछ पल चुप रहने के बाद उन्होंने अपनी बात आगे जोड़ी और थोड़े भारी मन से. मैंने कहा अच्छा है सोसाइटी में कुत्ते ज्यादा हो गए थे. रोज किसी ना किसी को काट लेते थे. नगर निगमवाले उनको जंगल में छोड़ आएंगे. फिर एकबारगी लगा- बेचारी इनदिनों बीमार रहती है. अब तो ज्यादा तेज चल भी नहीं पाती. जहां जाएगी वहां अपने लिए शायद खाना जुटा भी ना पाए. दूसरे छीन झपट कर खा जाएंगे. तीन महीने पहले पीलू के थन के पिछले हिस्से में बड़ी सूजन सी हो गई तो मवेशियों के एक डाक्टर को मैंने बुलाया. उसने कहा सर इसको कैंसर है. कुछ दिनों की मेहमान है. इसका अब इलाज नहीं हो सकता. उस िदन के बाद से मैं बालकनी में जब भी खड़ा रहता हूं और वो आसपास होती है तो उससे थोड़ी बात जरुर करता हूं. वो शायद समझ भी लेती है. जैसे ही पूछता हूं कुछ खाओगी और भूख लगी होगी तो पूंछ हिलाती पास आ जाएगी वर्ना अपनी जगह पर खड़ी रहेगी. पीलू कहां हैं तुम्हारे बच्चे ? सुनते ही आसपास दौड़ने लगती है. दोनों को ढूंढकर अपने पीछे पीछे ले आएगी. कई दफा उसकी आंखों से साफ साफ लगता है मानो कह रही हो इनको कुछ खिला दो ना. वैसे भी हर बार कुछ ना कुछ खाने को दिलवा ही दिया करता हूं. लेकिन कल जब वो चली जाएगी या फिर कुछ दिनों में दम तोड़ देगी तो उसके दोनों बच्चों को उसके होने का मतलब पता चलेगा . आज मुझे उसका नहीं आना बहुत खला .