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शनिवार, 12 सितंबर 2015

किनारे


आधे गीले 
आधे सूखे
पानी और ज़मीन से
मुंहजोड़ चलते रहते हैं किनारे.
कभी ज़मीन खींच ले जाती है आगे
कभी पानी पीछे धकेल जाता है
अपने मन के कभी नहीं रहते
लेकिन नदी भरमन थामे रहते हैं किनारे.
कोई टूटी नाव
कोई उजड़ा गाँव
शव की बची राख
टूटी सूखी शाख
सबका इकलौता आसरा होते हैं किनारे.
आती जाती लहरें देखते हैं
सीने पर लोटती लहरें देखते हैं
बाट जोहती लहरें देखते हैं
देह कुरेदती लहरें देखते हैं
ना पकड़ सकते ना समेट पाते
प्यास की सबसे बड़ी परीक्षा होते हैं किनारे.
दायरा तोड़कर न नदी रह पाई
न सफ़र ख़त्म हो पाया कभी
जो बाज़ार में बैठा था
उसको घर नहीं मिला
जो इंतज़ार में लेटा था
वो सफ़र पर नहीं निकल पाया कभी
पहचान की पहली ज़रूरत होते हैं किनारे.