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गुरुवार, 10 सितंबर 2015

बिहार में चुनावी बिगुल


बिहार में चुनावी बिगुल बजते ही पानी सियासी पारा अचानक चढ गया है. बीजेपी की अगुआई वाले एनडीए औऱ जेडीयू की अगुआई वाले महागठबंधन के बीच सीधी लड़ाई है. जातिगत समीकरण कहता है कि महागठबंधन के पास एक मजबत जनाधार है औऱ मोदी की बिहार में कामयाबी इस बात पर निर्भर करेगी कि वो इस वोट बैंक को किसी भी तरीके से कितना नुकसान पहुंचा सकते हैं . कुल मिलाकर मोदी के सामने बड़े सधे औऱ संभले तरीके से समूचा खेल खेलने की चुनौती है. इस पूरे चुनाव में तीन फैक्टर को डिफ्यूज करने पर बीजेपी खास ध्यान दे रही है ठीक वैसे ही जैसे बम डिफ्यूजल स्क्वैड की बस यही कोशिश होती है कि विस्फोट करानेवाले तारों को करीने से अलग कर दे. ये तीनों फैक्टर हैं- यादव, दलित औऱ मुस्लिम. पिछले लोकसभा चुनाव में मोदी की आंधी में मुसलमान अलग पड़ गया था औऱ वोटिंग जाति की दीवारों को तोड़कर हुई थी. सोलह महीनों बाद मोदी फैक्टर बिहार में भी कमजोर पड़ा है. हां इतना जरुर है कि वो आज भी वहां अपना वजन रख रहा है.
कोसी के इलाके में जहां यादवों का दबदबा है वहां वो पप्पू यादव को तैयार कर रहे हैं. पप्पू अगर हर सीट पर डेढ से दो हजार वोट काट लेते हैं तो कई सीटों के नतीजे बदल जाएंगे. बीजेपी को यह बात बाकायदा पता है कि मोदी की आंधी के बावजूद इस इलाके में उसको लोकसभा की सीटें नहीं मिल पाई थीं. इसकी वजह थी कि बीेजेपी ने यहां यादवों को अहमियत नहीं दी थी. इस बार वो पप्पू का इस्तेमाल लालू के हक में पड़नेवाले वोट में सेंध लगाने के लिये करना चाहेगी. बीजेपी यह भी चाहती है कि देश में मुसलमानों के उभरते तेवरदार नेता असदुद्दीन ओवैसी सीमांचल के इलाके में अपने उम्मीदवार उतारें. किशनगंज, कटिहार , अररिया , पूर्णिया में मुसलमानों की बड़ी आबादी है और यहां बीजेपी के जीतने की उम्मीद तभी बनती है जब मुसलमान वोट में कोई बड़ा धक्का लगाए. यह काम ओवैसी कर सकते हैं. ओवैसी की किशनगंज की रैली में जो भीड़ थी उसने इस बात का अंदाजा दे भी दिया. ये दीगर बात है कि ओवैसी अभी चुनाव लड़ने को लेकर वेट एंड वॉच वाले मूड में हैं. इसकी अपनी वजह है और अगर उनकी मुराद पूरी हो गयी तो आप उन्हें सीमांचल में पूरे दमखम से चुनाव लड़ते देखेंगे. तीसरा फैक्टर दलित वोट का है. 18 फीसदी वोटबैंक वाला यह तबका लोकसभा चुनावों में नीतीश के पास से निकलकर मोदी के साथ चला गया था. इस बार अगर मांझी को साधने में मोदी कामयाब हो जाते हैं तो दलितों का बड़ा तबका बीजेपी के साथ ही खड़ा दिखेगा. रामविलास पासवान के एनडीए में होने के चलते उसके थोड़ा बहुत बिखरने की जो संभावना थी वो भी नहीं दिखती. मांझी को मौजूदा स्थिति में अपनी हैसियत पता है इसलिए वो मोलभाव भी ठोक बजाकर कर रहे हैं. कुल मिलाकर बिहार का चुनाव महागठबंधन के लिए पारंपरिक जातिगत वोट बैंक का खेल है औऱ बीजेपी के लिये अपने वोट बैंक ( अगड़े और यादव बगैर ओबीसी ) को संभालने के साथ साथ महागठबंधन के वोट बैंक को किसी और के जरिए तोड़ने का स्मार्टगेम. दोनों तरफ के लोगों को एक दूसरे की चालें समझ में अा रही हैं. महागठबंधन के लिये मैदान तैयार है जबकि एनडीए को अभी अपने साथी साधने हैं. खैर, खेल तो शुरु हो ही गया है भाई.