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बुधवार, 3 सितंबर 2008

जब चुप्पी बोलती है

चुप रहने का कोई मतलब होना चाहिए। लतिआये-जुतिआए लोगों की जमात में जो चुप्पी होती है उसमे व्यवस्था को बदलने का माद्दा नहीं होता। कोई लेनिन , कोई माओ , कोई चेग्वेरा , कोई विनोद मिश्रा चाहिए ही चाहिए उस चुप्पी के ढेर में हक की हवा और बगावत की आग डालनेवाला । लेकिन ज़रूरी ये है कि अपमान की आग को ख़ुद के भीतर बचाकर रखा जाए और अपनी चुप्पी में सम्मान संजोने के जतन किए जायें। चाणक्य चुप थे लेकिन एक रोज़ उन्हें चन्द्रगुप्त मिल गया, द्रोन चुप थे लेकिन एक रोज़ उन्हें अर्जुन मिल गया। सुग्रीव चुप थे लेकिन एक रोज़ राम मिल गए। नतीजा ये हुआ की चाणक्य के आगे घननंद , द्रोन के आगे पंचाल नरेश और सुग्रीव के आगे बाली का मान टूटा । लेकिन बिहार के लोगों के साथ पता नहीं क्या हो गया है कि वो अपमान और नर्क दोनों भोगने को अभिशप्त हैं। हाल ही में घर गया था । छपरा से १० किलोमीटर घर जाना पड़ा तो रोड दिखी नहीं । बस ऐसा लगा कि कार या bike कि दौड़ के लिए बेहद उबर खाबर और खतरनाक रास्ता तैयार किया गया है। घंटे भर में ठीक से चले तो १० किलोमीटर का रास्ता पार कर लेंगे । हाँ अगर रोड को अपनी सलामती का इम्तिहान देते देते आपकी गाड़ी जवाब दे गई तो फिर आप मन भर गाली देने से ज़्यादा कुछ कर भी नहीं सकते। हम बिहार के लोगे दिल्ली मुंबई से लेकर सूरत ,अहमदाबाद और पटिआला तक भाड़े पड़े हैं लेकिन अपनी ज़मीं पर जाकर , सब देख सुनकर, गाली गुत्ता देकर लौट आते हैं ......कुछ करने से पता नहीं क्यों परहेज़ कर जाते हैं । इस तरह की चुप्पी बाँझ होती है। सोचता हूँ इस चुप्पी में हक की हवा और बगावत की आग भरी जाए। इसके लिए कुछ नौजवानों की टीम तैयार करनी होगी और उस मरते समाज में उम्मीद का सूरज जगाना होगा । आज बिहार प्रलय की चपेट में है लेकिन हो क्या रहा है ? ऐसे दर्द को अपने भीतर बचाकर रखने का भला क्या मतलब। अगर आप मेरे साथ खड़ा होना चाहते हैं तो ज़रूर बताइए ।

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