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गुरुवार, 11 जून 2015

क्योंकि पापा हैं

क्योंकि पापा हैं
पापा हैं तो पता ही नहीं चलता कि कितनी जिम्मेदारियों और मजबूरियों से फारिग हूं. पापा हैं तो नाता-रिश्ता, न्योता-हंकारी की चिंता से मुक्त. पापा हैं तो घर की रंगाई पुताई और सफाई से लेकर खेती बाड़ी की परेशानी से दूर. एक पापा कितना कुछ संभाले रहते हैं और ऊपर से यह भी पूछते रहते हैं कि बेटा कोई कमी बेसी हो तो बताना मैं हूं. पिछले कई घंटों से पापा में ही उलझा हूं. इतने तनाव में और इतना बेचैन शायद कभी नहीं रहा. पटना में आईसीयू में हैं. डॉक्टर कह रहे हैं लीवर की वजह से पेट में ब्लीडिंग हुई है. आगे ऐसा फिर हुआ तो खतरनाक हो सकता है. वैसे फिलहाल चिंता की कोई बात नहीें है.
पापा मेरे लिए बचपन से दोस्त की तरह ही रहे. तीन चार साल का रहा होऊंगा. कॉलेज से पढाकर शाम को गांव लौटते तो दूर पगडंडी से आते दिख जाते. मैं घर से सरपट दौड़ता और वे एक झटके में गोद में उठा लेते. पान से लाल अपनी जीभ मेरी जीभ से हल्का लगा देते और फिर गाते एबीसीडी छोड़ो. मैं तुतलाती सी अपनी आवाज में जोड़ता - नैना से नैना जोड़ो. ऐसे ही बाप बेटा झूमते झामते घर आ जाते.
तीसरी में रहा होऊंगा. पापा साईकिल खरीदने छपरा जा रहे थे. छपरा, गांव से दस किलोमीटर दूर है. मेरे हाथ में रोटी का रोल था . दादी ने थमा रखा था और पहला निवाला ही लिया था कि मां ने कहा - पापा आज नई साईकिल ले आएंगे. बगल में खड़े पापा को मैंने नीचे से देखा. वे थोड़ा मुस्कुराए और दो सेकंड बाद बोले - चलोगे ? मैंने सिर हिलाया. दिनभर क्या हुआ ये तो याद नहीं लेकिन जब हम हीरो की नई साईकिल लेकर आ रहे थे तो रात हो गई थी. चांद खूब निकला हुआ था और हल्की हवा चल रही थी. पापा ने मेरी दोनों टांगे दोनों तरफ रखकर पीछे करियर पर बिठा दिया था. बीच बीच में पूछते रहते - बेटा कोई दिक्कत होगी तो बताना. नहीं पापा ठीक है - मैं बोलता रहता. कोई चालीस मिनट लगे होंगे घर आने में. गांव में घुसने पर एक अफसोस हो रहा था और वो ये कि रात की जगह अगर दिन होता तो दोस्तों को दिखाता - देखो नई साईकिल.
उन्ही दिनों सुबह-सुबह अपने दोस्तों के साथ पापा ने प्लान बनाया. आज फिल्म देखेंगे. मुझे भी ले गए. पहली बार फिल्म देखने जा रहा था. छपरा के शिल्पी सिनेमा हॉल में फिल्म लगी थी. सिनेमा हॉल भी पहली बार देखा. फिल्म थी - संघर्ष . मुझे दिलीप कुमार के कमरे में संजीव कुमार का चुपके जाना आज भी याद है. आज भी दिलीप कुमार के पंडा दादाजी की लंबी कद काठी और बड़ी बड़ी आंखें याद हैं. तीन से छ का शो देखा था. निकले तो धुंधलका-सा था. सिनेमा हॉल के पास ही एक ठेली पर सभी रुके. ठेली पर एक बड़ा सा दिअा जल रहा था. उसी की रोशनी में ठेलीवाले ने अंडे फोड़े, करछुल में सरसों तेल और प्याज डाले और कागज पर गोल गोल आधे पके अंडे रखकर दिए. पापा ने झुककर कहा - बेटा खाकर बताओ कैसा है . इसको फ्रेंच टोस्ट कहते हैं. मुझे बहुत अच्छा लगा था.
पांचवी में था. मार्निंग स्कूल से लौटकर आया था और मां ने खाना खिलाकर सुला दिया था. पापा ने आहिस्ता जगाया. बेटा देखो पापा क्या लेकर आए हैं. सामने भाषा सरिता और नागरिक शास्त्र की नई किताबें थीं. स्कूल में एक रिवाज था कि दिसंबर में परीक्षा देने के बाद से ही आगे की क्लास के बच्चों के पास जाकर किताब के लिये जुगाड़ लगाने लगते. उनकी किताबें काम आ जातीं. मेरे लिए पापा हमेशा नई किताब लाते. लेकिन ये दोनों किताबें बाजार में तब नहीं थी इसलिए मैं पुरानी वाली से ही पढाई कर रहा था. दोनों की जिल्द और कुछ पन्ने फट चुके थे. चार-पांच महीने तो उनसे निकल गए थे लेकिन एक रोज पहले मैंने पापा से कहा मुझे चीकट किताबें अच्छी नहीं लगती. अगले दिन पापा किताबों के साथ कॉलेज से लौटे. मुझे आज भी वे दोनों किताबें ठीक वैसी ही दिखती हैं जैसी उस दोपहरी में आंख खोलते दिखी थीं.
सातवीं में था. स्कूल के स्पोर्ट्स टीचर ने क्रिकेट का पूरा किट मंगवाया था. उनका नाम दारोगा सिंह था. कुछ ही दिनों में क्रिकेट का अच्छा खिलाड़ी हो गया और क्लास का कैप्टन भी. घर लौटने के बाद क्रिकेट खेलने की बेचैनी घेरे रहती. जुगाड़ हुआ और गांव के बढई से लकड़ी का बल्ला बनवाया गया. बॉल खऱीदने के लिये पांच बच्चों की टोली छपरा भेजी गयी. सारा खर्चा साझा हुआ. हमारा छोटा सा उबड़-खाबड़ मैदान सड़क के किनारे हुआ करता था. पापा अक्सर बस से उतरते और हमें क्रिकेट खेलते हुए कुछ देर देखा करते, फिर घर जाते. एक दिन पापा बस से उतरे तो क्रिकेट का पूरा किट थामे मेरी तरफ मुस्कुराते बढ रहे थे. मैं खेल छोड़कर उनकी तरफ दौड़ा. उनके एक हाथ में बल्ला और बॉल थे और दूसरे में विकेट. पापा मुझे दौड़ता देख थोड़ा झुके, दोनों हाथों का सामान नीचे जमीन पर रख दिया और उन्हें मेरी तरफ फैला दिया. मैं उनके सीने से चिपक गया और देर तक चिपका रहा. पूरे जवार में मैं पहला बच्चा था जिसके पास क्रिकेट का किट था .
दसवीं में था तो सुबह तीन चार बजे तक अक्सर पढता. दुआर पर टेबल लगाकर या फिर दालान की कोठरी में या फिर मां के कमरे में. रात में कभी डर लगता तो धीरे से आवाज लगाता - पापा. फौरन जवाब आता - हां बेटा. ज्यादातर दफा वे वहीं कहीं आसपास होते, जहां मैं पढ़ रहा होता. देर रात तक पढने की आदत मेरी उनके चलते ही लगी. वे खुद अपनी क्लास के लिये पढते और मैं अपने लिए. धीरे धीरे ऐसा होने लगा कि पापा ११-१२ बजे तक सो जाते और मैं पढता रहता. सुबह कभी किसी को मुझे जगाने नहीं देते. देर तक सोता रहता और लगता कि स्कूल छूट जाएगा तो खुद आते. मेरा शरीर आहिस्ता आहिस्ता दबाते रहते मेरे जगने तक. मेरी नींद को भी पता हो गया था कि अब उसके जाने का वक्त हो चला है.
ऐसी हजारों बाते हैं जो पापा के साथ चलती हैं और आज ज्यादातर बातें पिछले कई घंटों में यादों का रेला लेकर आती जाती रहीं. अभी छोटे भाई का फोन आया. बताया ठीक हैं. कल सुबह दस बजे तक सब ठीक रहा तो बाकी टेस्ट होंगे. मैं जानता हूं - पापा को कुछ नहीं हो सकता. जीवट के जिंदादिल इंसान हैं. मुश्किल से मुश्किल हालात में उनको देखा है यही कहते - अरे यार जिंदगी में कुछ ऐसा नहीं जो बब्बन नहीं कर सकता. चाह दूं तो भगवान को रोक दूं. मैं मानता हू- उन्होंने जितना किया और जैसे किया वह साधारण नहीं है. लव यू पापा.