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सोमवार, 29 अक्तूबर 2012

मेरी एक ग़ज़ल





गीली छत में रह गयी आंखें, निंदिया जाओ ना
बरसाती रातों का सवेरा, अच्छा लगता है
            गांव में फसलों की खुशबू है, तुम भी आओ ना
            बस्ती में बंजारों का डेरा, अच्छा लगता है
शहर के चौराहों के बच्चे, एकदिन बोलेंगे
शीशे के उस पार का चेहरा, अच्छा लगता है
            मेरे लाखों चाहनेवाले, वो नहीं तो क्या
            मेरे दिल पे उसका पहरा, अच्छा लगता है
सबकी ईद है, सबकी दीवाली, सबकी होली रे
क्या करता है तेरा-मेरा, सब अच्छा लगता है