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शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2012

चिट्ठीवाले मुंशी जी




खैरा बाजार की सोंधी चायवाली दुकान पर
पैर में पैर फंसाये बैठे हैं मुंशी जी
झोला-थैला लटकाए, हाथ झुलाते, साईकिल लुढकाते
तरह तरह के लोग बाजार में घूमने लगे हैं
सांझ होने लगी है औऱ दुकानों के बाहर
सबने पानी छीट छीट धूल मार रखी है
फिर भी फगुनहट जहां तहां गमछा भर धूल झाड़ देती है

मुंशी जी हाथ में चाय का गिलास पकड़े आंखें दौड़ा रहे हैं
जब चिट्ठियां आती थीं तब सारा जवार पहचानता था
एक आवाज पर पूरा महुल्ला निकल आता था
पता नहीं किसके नाम की चिट्ठी आयी हो 
लिफाफा, अंतर्देशीय, पोस्टकार्ड सब झोला में डाले
मुंशी जी रोजाना दो तीन गांव का चक्कर मारते
आज चेहरा मिला-मिला पूछते हैं – बाबू फलां बाबू के पोते हो
तुम्हारे बाप मेरे क्लास साथी थे
तुम्हारे चाचा की लेक्चररी की चिट्ठी हम ही लेकर गये थे
लक्ष्मण बाबू कोईलरी में मरे तो हम ही तार पहुंचाए थे
हम मुंशी जी हैं- डाक बाबू के बाद हम ही हैं

मुंशी जी को अब ये सब कहना अच्छा नहीं लगता
बार बार खुद को बेचना अच्छा नहीं लगता
चाय का ग्लास खाली हो गया है
और आंखे पेंदी से लेकर पेट तक झड़ चुके, ज़ंग सने
सामने के लेटर बॉक्स पर अटकी हुई हैं
कोई कबाड़ी मुआयना कर रहा है,अंदर बाहर हाथ लगा रहा है
अचानक मुंशी जी को देखता है, ठिठकता है
औऱ तेज कदम निकल जाता है
सूरज छिपने लगा है, परिंदे लौटने लगे हैं
मुंशी जी को भी निकल जाना चाहिए
दिन ढलने के बाद बाजार इंसान को भी अपने पास नहीं रखता