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सोमवार, 17 दिसंबर 2012

वक्त बेज़ुबां नहीं होता


(1995 की मेरी एक कविता , उनदिनों बीएचयू में पढ़ रहा था)

दबी टूटी कलम से
कविता नहीं बनती
शब्दों का प्रलाप होता है
अर्थ बयां नहीं होता
रेत के टीले होते हैं
घर-बागबां नहीं होता .

ईश्वर एक शक्ति है
जूझने के लिये
भाग्य के वास्ते
कोई जहां नहीं होता
पर कटे परिंदे का
कोई आसमां नहीं होता.

हाथ की मिट्टी सोना है
अगर भीतर विश्वास है
किसी भी राह में कुछ
दरमियां नहीं होता
वक्त की तलाश बेजां है
उसका कारवां नहीं होता.

नदी है वह
उसे मंज़िल मालूम है
किनारों का कोई
अपना निशां नहीं होता
मैं ना भी बोलूं तो क्या
वक्त बेज़ुबां नहीं होता.