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शनिवार, 22 दिसंबर 2012

प्रदर्शनकारी

   


आज विजयचौक पर फिर जमा हुए थे प्रदर्शनकारी   
हमेशा की तरह डंडे-डुंडे खाकर, हाथ-पैर तोड़-फोड़कर लौट गये
उनको पता होता है कि होना क्या है
पीठ मजबूत करके आते हैं, खाना-दवा ज़रुरी है तो लेकर आते हैं
हाथ में हाथ डाल एक दूसरे को हिम्मत देते हैं, आगे बढते हैं
एक दूसरे की आंखों का डर, एक-दूसरे को भागने से रोकता है
फिर ताकत भर चिल्लाकर डर भगाते हैं
नारे लगाते हैं, बैनर-पोस्टर लहराते हैं, हक मांगते हैं प्रदर्शनकारी 
हिम्मत भर डटे रहते हैं, बर्दाश्त भर जूझते हैं
भागते समय सबसे पीछे रह गये साथियों की तरफ मुड़-मुड़कर देखते हैं
पिटते, चीखते, दोहरे होते, उठते-भागते फिर गिरते साथियों के लिये
ठिठकते हैं, हिम्मत बटोरते हैं लौटने की, घायल साथियों को लेकर भागते हैं 
प्रदर्शनकारी.

प्रदर्शनकारियों के चेहरे नहीं होते, नाम-पता भी नहीं
वो झुंड के झुंड आते हैं तय जगह पर, जाने अनजाने रास्तों से
उनकी कोई निश्चित संख्या नहीं होती
इतिहास में वो हमेशा अनुमान के हवाले से दर्ज होते हैं
आंकड़े सिर्फ मरनेवालों और घायलों के होते हैं
प्रदर्शनकारी भी डरते हैं हमारी आपकी तरह
उनके घावों से लाल खून ही निकलता है
वे रोते-चीखते हैं ठीक वैसे ही जैसे हम और आप
वे भी सपने देखते हैं
उन्हें भी पसंद है - ज़ायकेदार खाना, मुलायम बिस्तर और सुकून की नींद  
फिर भी जब हम और आप बैठे होते हैं घरों में
रोटी, इज़्जत, आज़ादी और इंसानियत की खातिर लड़ते हैं, मरते हैं प्रदर्शनकारी
दुनिया के सबसे बड़े संत और सबसे बड़े योद्धा हैं 
प्रदर्शनकारी.

दुनियाभर में प्रदर्शनकारियों की अपनी एक जाति है
वो हर जगह होते हैं, हमारे आपके आसपास इस वक्त भी
दिल्ली, मुंबई, लखनऊ, पटना, सूरत , भोपाल कहीं भी
उनकी कोई यूनिफॉर्म नहीं होती, उनके पसीने में कोई अलग गंध भी नहीं होती
महकमा, मुहल्ला, मुखिया, मज़हब – कुछ भी उनका अपना नहीं होता 
सड़क पर, बाज़ार में, खेत में वो खड़े होंगे और आप चीन्ह भी नहीं पायेंगे
अस्पताल और श्मशान में ही पहचाने जाते हैं प्रदर्शनकारी
बुद्दिजीवियों को बहुत भाते हैं प्रदर्शनकारी
तरक्कीपसंदों के प्रिय पात्र हैं प्रदर्शनकारी
वो कहते हैं कि प्रदर्शनकारी में बजर का सबर और समंदर की शक्ति होती है
प्रदर्शनकारी ज़रुरी हैं ताकि जिंदा रहे लोकतंत्र
ज़ुल्म-ज़्यादती, लूट-खसोट, गूंगी-बहरी व्यवस्था के खिलाफ
खड़ा होने के लिये ज़रुरी हैं प्रदर्शनकारी
सांस का खुली हवा से रिश्ता बना रहे , आबरु का अंधेरे में भी इत्मिनान बना रहे
भूख का रोटी पर हक बचा रहे , आज की कल पर उम्मीद बची रहे
प्रर्दशनकारी ज़रुरी हैं
आज जो विजयचौक से लौटकर गये हैं, वो कल फिर आयेंगे
उनके लौटने से पहले मेरी ये कविता आपके पास होगी
क्या पता खुद के पथराने से पहले हम भी बन जायें 
प्रदर्शनकारी.