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बुधवार, 22 अप्रैल 2009

सात महीने बाद लौटा हूँ

पिछले सात महीनों में ब्लॉग पर आकर लिखना तो कई बार चाहा लेकिन किसी न किसी वजह से चाहना लिखने में तब्दील नहीं हो सका। अलबत्ता इस दौरान कुछ गज़लें ज़रूर लिखी हैं , बावजूद इसके कि मुंबई पर २६/११ के हमले के बाद से ख़बरों की दुनिया काफी रफ्तार में रही है । अब जब चुनाव चल रहे हैं , टीवी न्यूज़ चैनल काफी बदल चुके है । दर्शकों की पसंद में भी बदलाव आया है और इसने ख़बरों के बूते ख़बरों का चैनल चलाने की गुंजाइश ज़्यादा पैदा की है । बहरहाल , बात जहाँ से उठाई थी वहीँ लौटता हूँ कि - हाल के महीनों में कुछ गज़लें मैंने लिखी है जो मेरे लिहाज़ से अच्छी हैं । उन्हीं ग़ज़लों को यहाँ जगह दे रहा हूँ और उम्मीद कर रहा हूँ कि आप सबको भी पसंद आयेंगी ।

१- उसके जाने पे तड़प न दिल मेरे
धूप है वो वो आएगी और जायेगी

दिल जुबान का फर्क तो होता है
इक कहेगा इक से कही न जायेगी

बाज़ार है बस मोल तू अपना बता
जिस्म क्या है रूह तक बिक जाएगी

आँख का पानी बचा दिल जिंदा है
चोट का क्या कल परसों भर जायेगी

२- गीली छत में रह गई आँखें निंदिया जाओ ना
बरसाती रातों का सवेरा अच्छा लगता है
गाँव में फसलों कि खुशबू है तुम भी आओ ना
बस्ती में बंजारों का डेरा अच्छा लगता है
शहर में चौराहों के बच्चे एकदिन बोलेंगे
शीशे के उस पार का चेहरा अच्छा लगता है
मेरे चाहनेवाले लाखों वो नहीं तो क्या
मेरे दिल पे उसका पहरा अच्छा लगता है
सबकी ईद है सबकी दीवाली सबकी होली रे
क्या करता है तेरा मेरा सब अच्छा लगता है

३- पास तो है मगर फासला सा रखता है
बात टूटे नहीं सिलसिला सा रखता है
है खुदा तो जानेगा दिल कि ख़ुद ही
इसी उम्मीद पे मुझको जिंदा रखता है
कांच पर हैं लकीरें तो चेहरे उतने हैं
हरेक शख्स यहाँ आईना सा दिखता है
नसीब पे रोना क्या क्यों ज़िन्दगी से गिला
देख वो उड़ता परिंदा आसमान रखता है
हदों को तोड़कर किसका क्या बना फ़िर भी
चलो गिरा दे दीवारें जिनमे खुदा रहता है

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