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रविवार, 26 अप्रैल 2009

वो जनतंत्र को जुतिया रहा है ......

कल अहमदाबाद की रैली में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर इंजीनियरिंग के एक छात्र ने जूता फेंक दिया । वैसे ये जूता मंच से करीब २० मीटर दूर गिरा था लेकिन इसने विरोध के लोकतान्त्रिक तरीके को एकबार फ़िर जुतिया दिया। सिलसिले की शुरुआत दिल्ली में कांग्रेस मुख्यालय से हुई जहाँ दैनिक जागरण के पत्रकार जरनैल सिंह ने गृह मंत्री पी चिदंबरम की तरफ़ भरी प्रेस कांफ्रेंस में जूता उछला था जरनैल को सीबीआई की तरफ़ से ८४ दंगों के सिलसिले में जगदीश त्य्त्लेर को क्लीनचिट देने पर ऐतराज़ था । ऐतराज़ हो सकता है , नाराज़गी या गुस्सा भी समझ में आता है लेकिन एक पत्रकार की हैसियत से बैठकर किसी समुदाय का गुस्सा इस तरह से निकालना ना सिर्फ़ पत्रकारिता पर बदनुमा दाग छोड़ गया बल्कि बोतल से जैसे किसी जिन्न को निकाल गया । जरनैल उस रोज़ चैनल चैनल घूम-घूम ये कह रहे थे कि उनसे भारी चूक हो गई लेकिन कई सिख संगठन उनके नाम की बलैयाँ लिए जा रहे थे , इनाम - वनाम देने का ऐलान किया जा रहे थे । ये कुछ वैसा ही था जैसे अमेरिकी राष्ट्रपति जोर्ज बुश पर जूता फेंकेवाले मुन्तजिर जैदी के नाम अरब मुल्को के संगठनों की तरफ़ से शादी से लेकर सम्मान तक का ऐलान । मुन्तजिर भी पत्रकार ही थे और उसी हैसियत से वो बग़दाद की प्रेस कांफ्रेंस में बुश के सामने बैठे थे । लेकिन इराक़ की जनता , बच्चों और विधवाओं का हवाला दे देकर मुन्तजिर ने बुश पर अपने दोनों जूते चला दिए । ये दीगर बात है कि दोनों से बुश ने ख़ुद को बचा लिया - मगर विरोध का ये वायरस अगले डेढ़ महीने में इंग्लैंड पहुँच गया । २ फरवरी को कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में एक छात्र ने चीन के पी एम् जिआबाओ पर उस वक्त जूता फेंका जब वो ग्लोबल इकोनोमी पर भाषण दे रहे थे । और अप्रैल के पहले हफ्ते में दिल्ली में गृह मंत्री चिदंबरम पर जूता फेंकते जरनैल को भी दुनिया ने देखा । इसके बाद तो ऐसा लगा जैसे देश में जूते चप्पल ही विरोध का हथियार रह गए हैं और यही जनता को खूब जंच भी रहा है । चुनावी मौसम में रैली का रेला आ गया और नेताओं पैर जूते चप्पलों के चलने की खबरें आने लगीं- तस्वीरें दिखने लगीं । कुरुक्षेत्र में नवीन जिंदल पर एक किसान ने जूता फेंक मारा तो कटनी में लाल कृष्ण आडवानी पर लकडी कि चप्पल जिसे गावं -देहात में चटाकी कहते हैं - वो चली और फ़िर धुले में फिल्मस्टार जीतेंद्र पर किसी ने चप्पल चला दी । इसी सिलसिले की अगली कड़ी अहमदाबाद में दिखी जहाँ प्रधानमंत्री पर जूता फेंका गया और एक चार घंटे बाद उसी शहर में एक साधू अडवाणी पर चप्पल फेंकने से पहले धर लिया गया । ये तमाम मामले इस बाद की तरफ़ भी इशारा कर रहे होंगे कि नेताओं को लेकर जनता में कितना गुस्सा है - मगर उससे कहीं बड़ा सवाल ये उठता है कि विरोध का ये तरीका क्या जनतंत्र को नही जुतिया रहा ? क्या ऐसी भोंडी और बेहूदा हरकतों से बुनियादी अधिकारों की तौहीन नहीं होती ? मैं यहाँ इस मुद्दे को नहीं उठा रहा कि संसद और विधानसभाओं में बैठकर हमारे जन प्रतिनिधि किस तरह का सलूक करते हैं । माइक्रोफोन से लेकर टेबल कुर्सियां तक चलते हैं....नोटों की गद्दियाँ लहराई जाती हैं....एक दूसरे की गिरेबान पकडी जाती है । लेकिन यहाँ भी सवाल घूम फिरकर जनता पर ही आता है कि ऐसे नुमाइंदों को चुनने वाला समाज आख़िर कबतक भीष्म ध्रितराष्ट्र या ड्रोन बना रहेगा और कबतक वो अपने दुर्योधनों को पलता रहेगा ।

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