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सोमवार, 10 जुलाई 2017

मेरे मित्र अभिसार शर्मा ने आज अकबरुद्दीन ओवैसी के बयान पर एक पोस्ट लिखी और कहा कि "आखिर क्या गलत कह दिया अकबरुद्दीन ने? हां, उन्होंने बहुत इज्जत के साथ संबोधन नहीं किया" . अभिसार काफी सुलझे और पक्षपात से खुद को दूर रखने की कोशिश करनेवाले पत्रकार हैं. हमारी दोस्ती काफी गहरी है. लेकिन मुझे लगा यहां कुछ कहना जरुरी है. रात में अक्सर १२.३०- १ बजे तक पढने के बाद सोशल मीडिया का मुआयना करने आता हूं. सरसरी तौर पर देख-सुन कर चला जाता हूं. इसी क्रम में अभिसार की पोस्ट से टकरा गया और धक्का सा लगा!
सवाल ये है ही नहीं कि अकबरुद्दीन ने सम्मान-सूचक शब्द लगाए या नहीं. सवाल ये है कि देश के प्रधानमंत्री के लिये वह क्या कह रहे हैं? इससे बड़ी बात ये कि क्या अकबरुद्दीन को भी हम इतना वजनदार नेता मान लें कि उनके कहे-किए को सही गलत के चश्मे से देखने की कोशिश करें? कौम के नाम पर दो कौड़ी की राजनीति करनेवाले ऐसे नेताओं ने समाज और देश में सिर्फ ज़हर बोया है. ये दोनों तरफ है. अगर अकबरुद्दीन सही है तो कल कोई और साक्षियों, प्राचियों, तोगड़ियों को भी सही ठहराएगा. किसी भी नेता/पार्टी( कथित तौर पर भी अगर है तो) की राजनीति में फायदे का हिसाब-किताब होता ही है. मगर वह फायदा समाज और देश के बुनियादी ढांचे को चरमराने या फिर तोड़ने लगता है तो स्थिति खतरनाक होने लगती है. अकबरुद्दीन, जुनैद खान या पहलू खान या फिर अखलाक की चिंता नहीं कर रहे. उन्हें, उनकी मौत में फिरकापरस्ती के मजबूत होने की उम्मीद दिख रही है. बंद कमरे में ऐसे लोगों के होठों पर एक टेढी मुस्कान तैरती है, जो आम आदमी नहीं देख पाता. अगर अकबरुद्दीन की तरह के लोग ही हमारे देश के मुसलमानों के रहनुमा बन जाएं या फिर तोगड़िया जैसे लोगों में हिंदुओं को अपना खेवनहार दिखने लगे, तो देश विनाश के मुहाने पर खड़ा होगा. ऐसा होगा नहीं, क्योंकि इस देश की तहज़ीब और तासीर दोनों अकबरुद्दीनों और तोगड़ियों के खिलाफ हैं. मेरे लिए ये महज दो नाम नहीं हैं, बल्कि ज़हरीली सोच की दो जमातें हैं. अकबरुद्दीन ने जब दिसंबर २०१२ में आदिलाबाद की रैली में कहा था कि - "तुम सौ करोड़ हो ना और हम पच्चीस करोड़? १५ मिनट के लिये पुलिस हटाकर देख लो हम बता देंगे किसमे कितना दम है" . जानते हैं उसके करीब डेढ महीने बाद हैदराबाद के पास प्रवीण तोगड़िया की एक रैली थी. उसमें तोगड़िया ने अकबरुद्दीन का नाम नहीं लिया लेकिन कहा कि - " एक कहता है, पुलिस हटा लो, मैंने कहा 20 साल में जब-जब पुलिस हटी है, तब का देश का इतिहास देख ले। अगर तुझे पता नहीं है, तो आईने में इतिहास दिखा दूं।' तोगड़िया ने पिछले 20-25 साल में हुए दंगों का हवाला देते हुए कहा कि हमें चुनौती न दें।"
दोस्त! क्या कोई फर्क दोनों बयानों में है? ये एक धर्म के अस्तित्व और अभिमान के नाम पर लोगों को दिमागी तौर पर अपाहिज करने का खतरनाक खेल खेलनेवाले लोग हैं. ये एक-दूसरे को गाली नहीं देते. ये कौम को कौम से लड़ाने की साजिश करते हैं. ओवैसी परिवार की शानो शौकत और लाव-लश्कर कभी देख आओ. और हां तोगडिया जैसों का गुप्त राज समझ आओ. आपकी सोच की बुनियाद में इंसान, इंसानियत और नागरिक है ही नहीं तो फिर आपके कहे किए में कुछ अच्छा होगा, ये संभव ही नहीं. इसलिए अकबरुद्दीन कुछ भी कहें, हम उनको जैसे ही सही ठहराने की कोशिश करेंगे , हम खुद को किसी खाने-खांचे में अकारण ही खड़ा कर लेंगे. यह हमारे वह होने पर सवाल है, जो होने का दावा हम करते हैं या फिर ऐसा मानते हैं.
मेरा एक निजी अनुभव है. नींद आ रही है लेकिन चाहता हूं साझा कर लूं. बिहार के २०१५ के चुनाव थे. अक्टूबर का पहला हफ्ता रहा होगा. एक शो के लिये किशनकंज में था और उसी दिन अकबरुद्दीन भी वहां थे. दिन में उन्होंने मोदी के लिये उस रोज भी अपशब्द कहे थे. उनकी आदिलाबाद की रैली के समय मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे और किशनगंज की रैली के समय प्रधानमंत्री. जुबान बिना लगाम चली थी. शैतान, हत्यारा और पता नहीं क्या क्या. रात में मुझे पूर्णिया निकलना था तो सोचा क्यों ना मिलता चलूं. जिस होटल में अकबरुद्दीन ठहरे थे, वहां गया. एक कमरे में कुछ लोग बैठे थे, उनको मैंने बताया कि मैं फलां हूं और मिलना चाहता हूं. कहा गया - आप बैठ जाइए, उनको हम बता देते हैं. जिन लोगों के बीच मैं बैठा था, उनमें से किसी से भी अच्छा इंसान होने के संकेत नहीं मिल रहे थे. उनके बीच बैठना भारी हो रहा था. तभी कोई कमरे में आया- आप आ जाइए. मैं उस कमरे में गया जिसमें अकबरुद्दीन थे. कुर्ता पायजामा में खाने की तैयारी कर रहे थे. दुआ-सलाम के बाद बोले - आइए ना साथ ही खा लेते हैं. मैंने कहा - नहीं, मैंने अभी खाना खाया है, आप खा लें. वैसे मैं चाहता हूं कि आप थोड़ी देर कैमरे पर बात कर लें, आज की रैली औऱ बाकी बिहार के चुनावों को लेकर- मैंने लगे हाथ कह डाला. बोले भाई जान कैमरे पर अभी कुछ मत कहलवाइए. चुनाव के बाद ज़रुर बात करुंगा. मैंने कहा - ये जो आप आज रैली में कह रहे थे उससे आपको क्या मिलेगा? सर, यही तो आप नहीं समझ सकते- अकबरुद्दीन ने कहा. एक टेढी मुस्कान उनके चेहरे पर थी औऱ आंखें मुझसे कुछ दूर पर खड़े दूसरे इंसान की तरफ. मैंने उसे देखा. वह भी वैसे ही मुस्कुरा रहा था. ये बंद कमरों की मुस्कुराहटें थीं. ये इंसान के आंसुओं की वजहें ढूंढती हैं. उसके खून-खराबे का माल तैयार करती हैं. ये दोनों तरफ होती हैं. ऐसी मुस्कुराहटों को सजानेवालों के हक में कुछ भी बोलना, अपनी साख पर अनजाने में ही सही, सवाल खड़ा करना है. शुभ रात्रि