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सोमवार, 10 जुलाई 2017

रात के आखिरी पहर का राग



कभी रात के आखिरी पहर में जगे हैं? मैं उनलोगों से नहीं पूछ रहा जो जगते ही हैं, बल्कि मेरा मतलब उनलोगों से है जो किसी वजह से बस जग गए. मसलन, वॉशरुम जाना था या कोई बर्तन गिर गया या तेज़ हवा ने खिड़की का पल्ला पटक मारा या फिर ऐसी किसी भी वजह से. थोड़ी देर में लगता है अब सोना नहीं चाहिए. हवा हल्की ठंड लिए आहिस्ता आहिस्ता चल रही है, आसमान एकदम साफ जैसे एक एक तारा गिन लो, चांद मानो बस नहाकर निकला है – आप सोचते हैं अब नहीं सोना है. ऐसा कहां मिलता है देखने को, निहारने को. आप बालकनी में आ जाते हैं या छत पर चले जाते हैं या फिर बाहर निकल जाते हैं. कहीं से कोई आवाज़ नहीं आती. कहते हैं आवाज़ें कभी खत्म नहीं होतीं. वे जिंदा रहती है इसी ब्राम्हांड में. अनंत से जो कुछ आवाज़ बनकर निकला वह आज भी है. जो चीजें कभी नहीं बोलतीं, हम मान लेते हैं उनकी आवाज़ नहीं होती. लेकिन होती है. पेड़ों से हवा गुज़रती है या फिर पहाड़ों पर आंधी चलती है- तब आपको उनकी आवाज़ सुनाई देती है. पहाड़ की अपनी आवाज़ होती है, पेड़ों की अपनी. जैसे पानी की अपनी और आंधी की अपनी. किसी की आवाज़ एक-दूसरे से नहीं मिलती. विज्ञान इस बात पर शोध कर रहा है कि क्या किसी ने कभी कुछ कहा और वह रिकार्ड नहीं है तो उसे वापस सुना जा सकता है?
रात के चौथे पहर में आप बस यूं ही जग गए होते हैं और फिर नहीं सोने की सोच चुके होते हैं- हवा, आसमान, तारे, चांद में उलझे होते हैं, उस वक्त ये सारी आवाजें शायद सो रही होती हैं. ये वो वक्त होता है जब आपको हर सोती हुई चीज़ अच्छी लगती है. लेकिन यही वक्त आवाजों के जगने का भी होता है. कुछ लोग जगने का नाता ऐसी ही आवाज़ों से जोड़कर रखते हैं. दूर से गुज़रती ट्रेन की आवाज़, मंदिर में घंटी की आवाज़ या मस्जिद में अज़ान की- बहुत सारे लोगों की नींद अपना बिस्तर इन्हीं के चलते समेटती है. आवाज़ें जग रही होती हैं. दिन और रात की संधि का पहर है यह. इस समय आसमान का रंग तेजी से बदल रहा होता है. कहते हैं हवा सबसे ताज़ा इसी पहर में होती है. आयुर्वेद के मुताबिक इस समय अगर आप तांबे के बर्तन में रातभर रखा पानी नियमित पीते हैं तो पेट और खून के रोग नहीं होते. और भी कई फायदे हैं इसके. आयुर्वेद की भाषा में इसे उषा पान कहते हैं. योग भी इसी समय जगने की सलाह देता है. और आप बस यूं ही जग गए होते हैं. हवा, आसमान, तारे, आसमान में खो से गए होते हैं.
कभी इसी समय जयशंकर प्रसाद भी जगे होंगे. लिखा होगा- बीती विभावरी जाग री! अंबर पनघट में डुबो रही तार-घट ऊषा नागरी!. भव्य आकर्षण होता है इस पहर में. अगर प्रेम दिखता तो शायद ऐसा ही होता. प्रेम करने का भी शायद इससे खूबसूरत कोई पहर नहीं होता होगा. इसीलिए हमारे यहां अलग-अलग पहर के अलग- अलग राग भी बनाए गए और रात के आखिरी पहर के लिए जो राग रचे गए, उनमें एक अलौकिक दिव्यता महसूस होती है. राग भैरव सुनिए कभी. या राजकपूर की फिल्म जागते रहो का गाना “जागो मोहन प्यारे” सुनिए. राग भैरव पर ही सलिल चौधरी ने इसे सजाया था. तब तो शंकर जयकिशन के साथ राजकपूर की जोड़ी जम गई थी, लेकिन एक खास सिचुएशन के लिये जो गाना चाहिए था उसकी समझ सलिल चौधरी को ही थी, ये राजकपूर जानते थे. जिन गीतों में वक्त को बांधने की ज़रुरत रखी गई, उनको साधने में सलिल चौधरी बेमिसाल रहे. मेरा एक पसंदीदा गाना है- कहीं दूर जब दिन ढल जाए, सांझ की दुल्हन बदन चुराए. इसको भी सलिल चौधरी ने ही संगीत दिया. सुनिएगा तो लगेगा कि दिल से निकला हुआ कुछ दूर तक बस चला जा रहा है. यह गाना भी दो पहरों के संधिकाल पर है. जैसे अभी हम ठहरे हुए हैं- रात और दिन के मिलन के नज़दीक. हवा, आसमान, तारे और चांद में उलझे हुए. आवाजें जाग रही हैं. जानते हैं जब 24 घंटे पहरों में बांटे गए होंगे तो सबसे पहले रात के आखिरी पहर को ही रखा गया होगा. आठ पहरों में दिन रात – तीन घंटे या सात घटी का एक पहर. घटी मतलब 24 मिनट. हर घटी या पहर की अपनी तबीयत और तासीर होती हैं. मूड भी उनके मुताबिक बदलता या बनता है. इच्छा, अनिच्छा भी कभी-कभी पहरों के मुताबिक पैदा होती रहती है. इस समय यानी रात के आखिरी पहर में, भोर के किनारे, सिर्फ प्रेम-सा कुछ रहता है. अलौकिक, दिव्य, अनंत, प्रशांत. ये शायद उनको कम समझ में आता होगा जो आदतन इस समय जागते हैं. इसीलिए मैंने पहले ही कहा कि मेरा मतलब उनलोगों से है जो बस जग गए. सोने जागने की आवारगी कभी कभी यूं भी कुछ दे जाती है.