यह ब्लॉग खोजें

सोमवार, 10 जुलाई 2017

टूटना एक नया जन्म भी है



टूटना एक सहज प्रक्रिया है. प्रकृति का नियम भी. जब मैं यह लिख रहा हूं, हर पल, समय की निरंतर धारा से टूट कर अलग हो रहा है. जब आप पढ रहे हैं, कुछ और पल टूट चुके होंगे. हम कहीं बैठें हों या सो रहे हों, लड़ रहे हों या फिर प्रेम कर रहे हों – यह टूटना जारी रहता है. टूटी हुई हर चीज अपनी जगह खाली करती है और वहां कोई और चीज आ जाती है. पेड़ से टूटे पत्ते को देखिएगा. टुकुर टुकुर उस डाल को निहारता रहता है, जहां से टूटा था. पीला होता जाता है. फिर हवा के झोंके उसे उड़ाकर कहीं और लेकर चले जाते हैं. आसपास किसी झाड़-झंखाड़ में फंस भी गया तो नियति उसकी वही है! सूख कर मिट्टी में मिल जाना. उसकी जगह उस डाल पर कोई नया पत्ता आ गया होता है.
अगर आप अपनी यादों को टटोलेंगे तो कोई बचपन की फूलदार कमीज या कोई हाफ पैंट याद आ जाएगी. पहन कर स्कूल जाते थे. नई-नई आई थी तो दोस्तों ने कहा अरे वाह तुम्हारी कमीज तो बहुत अच्छी है! उस कमीज का खयाल भी खूब रखा. लेकिन कद बढ गया, वो कहीं रह गई. हो सकता है मां ने स्टील के बर्तनवाले को देकर नया बर्तन ले लिया हो. लेकिन उसकी याद अचानक आ जाती है. उससे किसी ना किसी वजह से जुड़ाव था. वह कमीज टूटे वक्त का हिस्सा हो चुकी है अब. बस यादों की पगडंडी पकड़ उसतक जा सकते हैं. पकड़ नहीं सकते, देख नहीं सकते. आपके पास नई कमीज आ गई और ऐसी कई कमीजें आप पहनते-उतारते रहते हैं. हां एक ना एक दिन हर कमीज से आपका रिश्ता टूट जाता है. आखिरी वक्त में आप उससे नाता तोड़ निकल जाते हैं.
रिश्तों के साथ भी ऐसा ही होता है. बहुत सारे चेहरे अचानक सामने आ जाते हैं. कोई आदमी आचानक टकराता है. पूछता है- पहचान रहे हैं? बहुत जोर डालने पर भी वह चेहरा किसी बहुत पुराने चेहरे से मेल नहीं खाता. आप उसको देखते रहते हैं, दिमाग यादों के जंगल में उसके चेहरे-सा कोई चेहरा ढूंढता रहता है. कहीं स्कूल में तो नहीं था? या फिर कॉलेज में? हो सकता है किसी शादी ब्याह में कभी मिला हो? उस आदमी को पहचानने की कोशिश करते रहते हैं, उसे देखकर आधी बुझी मुस्कुराहट लिए खड़ा रहते हैं. थोड़ा बाल खुजलाकर, थोड़ा ठुड्डी रगड़कर, हां- हूं में बात जोड़कर, उसके बताने से पहले पहचानकर, एक जीतवाला भाव अनुभव करना चाहते हैं. वह आदमी आपकी जिंदगी का टूटा हुआ हिस्सा है. कभी कहीं साथ बैठा होगा. स्कूल में टिफिन साथ खाया होगा, बरसात में फुटबॉल खेला होगा और गलबहियां डालकर कीचड़ उछाला होगा, कहीं किसी पार्टी में मिल गया होगा और धीरे धीरे अपना सा हो गया होगा, या फिर कोई वह होगा जो बस या ट्रेन में सफऱ में मिल जाता है, यूं ही नजदीकी हो जाती है और फिर मिलेंगे कहकर विदा ले लेता है. लेकिन याद नहीं आ रहा. कुछ चेहरे तो पहचान में रहते हैं, ज्यादातर नहीं. ये आते-जाते चेहरे हैं जो मिलते हैं और फिर टूट जाते हैं. कमीज की तरह. जिस चेहरे को आपने देखा था अब वह वैसा नहीं है और ना तो कमीज वैसी की वैसी रहती है. ये बस पहचान के लिये होते हैं. सब समय हैं.
एक दिन अचानक कोई दोपहर याद आ जाती है और उसके मिट्टी का आधा खंडहर हो चुका मकान भी. किसी कोने में पड़ा बड़ा-सा संदूक और उसके पास घंटो कंचे खेलना. जो साथ में खेल रहे थे, कितने थे? पूरी तरह याद नहीं. अब कौन कहां है? एक दो की जानकारी हो भी, तो बाकियों के बारे में तो वाकई पता नहीं. वो चेहरे नहीं, छूटा हुआ वक्त हैं. भागती हुई जिंदगी में उतने समय के लिये वक्त ने उनसे जोड़कर रखा था. वे कुछ देर चलते रहे, फिर कहीं चले गए. जिंदगी ने आपको मौका नहीं दिया पीछे मुड़कर देखने और पूछ-परख करने का.
जाड़ों मे अलाव किनारे बैठकर बतियाने का फायदा ये होता था कि ऐसी बहुत सारी बातों और लोगों को समय की धूल झाड़-झाड़ याद किया जाता था. बतकहियों में वे उभरते रहते. जाड़ों की बात आई तो मुझे गांती याद आ गई. एक मोटी-सी चादर को माथे पर रखकर नीचे पैरों तक झुला दिया जाता और उसके सिरों को गर्दन के पीछे बांध दिया जाता. मैं सुबह जब भी बाहर निकलता मां गांती डाल देती. मकर संक्रांति यानी हमारे बिहार में खिचड़ी के मौके पर लाई को उसी गांती में लेकर घूरा ( अलाव ) किनारे बैठ खाने और यारों से बतियाने का मज़ा अब भी कहीं गुदगुदा जाता है. उस घूरे में कुछ आलू पका लेते तो कुछ बगल के गढ्ढे से घोंघा पकड़ उसको उसी में कुरकुरा बना लेते. फिर आराम से खाते रहते. ये सब टूटे हुए वक्त हैं- यादों की पगडंडी वहां तक जाती जरुर है लेकिन पकड़ नहीं सकते, देख नहीं सकते. ये घटनाएं या लोग बस वक्त हैं. उनको नाम, पहचान के लिये दे दिया जाता है.
जीवन अपने साथ कई समांतर रेखाएं खींचकर चलता है. बल्कि उनकी गिनती नहीं कर सकते आप. घर-परिवार से लेकर नाते-रिश्ते, प्रेम-घृणा, मतलब-कारोबार वगैरह-वगैरह की लकीरों पर चल रहे सैकड़ों लोग. सबकी जरुरतें, उम्मीदें औऱ उनसे आपका संबंध-साहचर्य. कहीं किसी कोने में बैठकर सोचिए कि कितने लोगों को जानते हैं आप. दिमाग औऱ यादों के पास कोई ऐसा साफ्टवेयर नहीं कि सारे नाम एक साथ याद आ जाएं. धीरे-धीरे आपकी लिस्ट बड़ी होती चली जाएगी. आपको लगेगा अभी तो पता नहीं कितने लोग छूट रहे हैं, जो हैं तो करीब लेकिन याद नहीं आ रहे. जब इत्मिनान हो जाए कि लिस्ट पूरी हो गई- तब भी यकीन नहीं रहेगा कि हां पूरी हो गई. अब देखिए कि इनमें से कितनों से आपने कब से बात नहीं की है. या कितनों को कितने साल से नहीं देखा होगा. लगेगा बहुत करीब ही कई हैं जिनसे हाय हेलो भी लंबे समय से नहीं हुई. ये हमारे रिश्तों की शाखों पर लगे पत्ते हैं. कुछ पता नहीं चलता कब गिर गए और कब उनकी जगह नए रिश्ते उग आए. इन तमाम रिश्तों में सबसे मजबूत प्रेम का रिश्ता होता है. मां का, पिता का, भाई-बहन का, औलाद का और पत्नी-प्रेमिका का. उनके पत्ते रिश्ते की शाखों से नहीं गिरते. अगर गिर भी गए तो उनकी जगह का निशान हमेशा दिखता है. उनका खालीपन नहीं भरता. फिर भी वे टूटते हैं. उनको यहां रहना नहीं है, कोई रिश्ता रहता भी नहीं. वह आपके जाने के साथ टूट जाता है. समय से टूटते पलों की बरसों लंबी कतार में खत्म हो जाता है. जो लोग याद रहते हैं, या फिर जिनको इतिहास, साहित्य, संस्कृति याद रखते हैं – वे लोग नहीं होते. सिर्फ विचार होते हैं. उनके चेहरे नहीं होते. उनके किए-कहे होते हैं. नाम बस पहचान भर के लिये होते हैं. उस पहचान से एक जाति, एक समाज, एक राष्ट्र या फिर एक संस्कृति अपने को जोड़कर अपनी पहचान बचाने की कोशिश करते हैं.
राम, कृष्ण, बुद्द, तुलसी, कबीर , पैंगबर मोहम्मद - अगर अभी कहीं चलने लगें तो कौन पहचानेगा? अब उनके चहरे महत्वपूर्ण नहीं, उनका कहा-किया इतिहास है. हम इतिहास ढोते हैं, इतिहास जीते हैं, इतिहास पहनते और बिछाते हैं, उसके नाम पर अपना पराया तय करते हैं, उसके आधार पर दोस्ती दुश्मनी तय करते हैं. किसी की जीत पर खुश और किसी की हार पर दुखी, इसी इतिहास की वजह से होते हैं. उसका कुछ भी आप नहीं देख सकते लेकिन उसका सबकुछ आपपर हावी होता है. आप समझें या नहीं, मगर वो आपपर सवार रहता है. दरअसल हम टूटे हुए को अपने भीतर भरते रहते हैं और उसके चलते अपने लिये चुनौतियां, परेशानी, मुसीबतें भी खड़ा करते हैं. अगर ठीक से समझें तो यह खाली जो हमारे भीतर भरा रहता है उसके चलते भी हम बहुत कुछ बड़ा कर लेते हैं. इसको आप स्वाभिमान, अस्तित्व, प्रेरणा जैसे शब्दों से जोड़ सकते हैं. टीम इंडिया की जीत पाकिस्तान पर होती है तो सारा देश झूमता रहता है. ऐसी खुशी किसी और जीत पर नहीं मिलती और ना ही टीम के भीतर वैसी आग किसी औऱ लड़ाई में दिखती है. यह हमारा टूटा हुआ समय है जो जुनून भर देता है. कोई अपने प्रेम के चलते कई सफलताएं हासिल कर लेता है, कोई दर्द को हथियार बनाकर वो कर गुजरता है जो शायद यूं उसके वश में नहीं था. हां, तो हम इतिहास या टूटा हुआ वक्त लिए चलते हैं- हर वक्त. वह हमारा धर्म तय करता है. धर्म यानी हम जो हैं. हम जो सोचते हैं और करते हैं. जैसे-जैसे हमारे अंदर वह टूटा हुआ बदलता रहता है- हम बदलते रहते हैं. यानी हमारे धर्म का कोई धर्म नहीं है. जिसके बारे में कल अच्छा सोच रहे थे उसके बारे में आज बहुत गलत सोच लेते हैं- यह उस टूटे हुए का ही दिया हुआ है. फिर भी, इस टूटन से ही जीवन है. इतिहास है. विचार है और विकार भी. प्रेम है औऱ घृणा भी. कल है और आज भी.