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शनिवार, 11 अक्तूबर 2014

शिकायतें




कई बार बहुत लाचार देखा है
जिसने चिट्ठी पकड़ाई
उसी ने पता छुपा रखा है.
अल्हड़ हैं, कभी कभी शऊर पा जाती हैं.
तेजकदम लौट आती हैं
कटी पतंग जैसे अचानक हाथ आ जाती है.
भादो का जैसे भारी बादल
जब चल नहीं पातीं हैं
हल्का होने तक बरसती रहती हैं.
नींद से अक्सर उलझती हैं
चैन के परिंदे उड़ाती हैं
मन में अंधड़ उगाती हैं.
रिश्तों के रेशे खींच खींच परखती हैं
गिरह गांठ ढूंढती हैं
रात जैसे जंगल में चलती है.
उड़ता हुआ कागज का आवारा टुकड़ा
किसी का लिखा ढोता हुआ
किसी और के पते पर पड़ा हुआ
आधी मिट्टी आधा पानी
आधी हवा आधी रोशनी
अंधेरे के खेत में धूप की फसल