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रविवार, 5 अक्तूबर 2014

धूपदेखौनी



खाली खुली पेटियां औंधी पड़ी हैं
पीली सीली किताबें कागजों के ढेर पसरे हुए हैं
साल भर से पेटी, संदूक और बोरियों में बंद चीजें बाहर निकली हैं
दुआर से दालान तक सारी चौकियां और खाट बिछ गए हैं
समूचे गांव में धूप की फसल जवान है
गरम जैसे धान की छाती में उतरता रस
बंद पड़ी रज़ाइयां स्वेटर शालें कंबल
झाड़ झाड़ पसारे गए हैं
लेवा तोशक तकिया सबकी रिहाई है आज
बस्ती भर सीलन और फेनाइल की गोलियों की गंध फैली है
बेकार हो चुकी चीजों का ढेर लगा है
चारा काटनेवाली गड़ांसी का मुठ्ठा, गाय का टूटा पगहा
रही का डंडा और हलवाही का पैना
छप्पर में साल भर से खोंसे पड़े थे
आज फूटी हुई कड़ाही और पिचकी हुई तसली के साथ फेंके हुए हैं
अचार का खाली घड़ा, कोर-टूटा दही का करना
पीछे की कलई उतरने से बेकार हो चुका आईना
मां की पुरानी टिकुली, आलता की शीशी
झड़ी साड़ियां, फटी धोती और चूहे के कुतरने से खराब हो चुके कपड़े
होली का बचा गुलाल, टूटी कलमें और बरसाती चप्पलें
बीच आंगन में सबका ढेर लगा है
घर घर सफाई धुलाई में लगा है
चौंर से पीली मिट्टी आई है चूल्हा लीपने के लिये
नाद में कली चूने का घोल बना है दीवार पोतने के लिये
मुहल्ले में कहीं कबाड़ीवाला आवाज़ लगा रहा है
खेतों से होकर आती चूड़ीहारिनें दिख रही हैं
मां ने पलटकर सूरज को देखा
बांस की फुनगी पर है लेकिन काम भी बहुत बाकी है