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रविवार, 21 फ़रवरी 2016

अंधेरा या फिर अंधेरगर्दी ! सच क्या है भाई ?


देश में मीडिया पर गंभीर सवाल उठ रहे हैं. कुछ पत्रकार स्वंयभू देशभक्त होने का दम भर रहे हैं तो कुछ कह रहे हैं कि अगर इस विरोध को देशद्रोह कहते हैं तो आप मान लीजिए हम देशद्रोही हैं.

मामला - जेएनयू विवाद है औऱ इस विवाद से उठे कुछ बड़े सवाल हैं, जिनका लोकतंत्र से गहरा रिश्ता है. दरअसल, देश में पत्रकारों के दो तरह के गुटों ( आप चाहें तो गिरोह भी कह लें) का बोलबाला सा हैं. एक वो हैं जो सावन के अंधे हैं. मतलब ये कि उनको सरकार औऱ व्यवस्था में सब हरा दिखता है. दूसरे जेठ के अंधे हैं. इनलोगों को सरकार और व्यवस्था में सब झुलसा-जला ही दिखता है. जो लोग इन दोनों खेमों के विचारों ( वैसे विचार की परिभाषा कुछ अलग ही होती है) से सहमत नहीं हैं- वे दोनों के निशाने पर आते हैं.

ऐसे में सवाल ये है कि आप किसकी चिंता करेंगे?  इस देश की , समाज की, नागरिक की या फिर वामपंथ की, संघवाद की, मनुवाद की, सेक्यूलरिज्म की ? सवाल का जो दूसरा हिस्सा है और उसकी चिंता जो  पत्रकार करते हैं वे संक्रामक, समाजतोड़ू और भयानक हैें. इस पूरे समुदाय में तीन तरह की प्रजातियां हैं. एक मैकॉले स्कूलवाले, दूसरे मार्क्स स्कूल वाले और तीसरे संघ स्कूल वाले. तीनों एजेंडा सेटर हैं, तीनों हिपोक्रैट हैं और मज़ेदार बात ये कि तीनों सबसे कमजोर के हक के लिए छाती पीटनेवाले भी. लोकतंत्त में विरोध, विवाद , संवाद की पैरवी तीनों करते हैं लेकिन आप उनसे सहमत नहीं तो आप गलत हैं. वे सड़क पर उतर जाएं तो इंसानियत का तकाज़ा और आप अपने देश-समाज के लिए आवाज थोड़ी ऊंची कर दें तो इंसाफ, इंसानियत औऱ पत्रकारिता के दुश्मन हैं. साहब, दूसरा आपकी राय से अपनी राय जोड़े ही, इसतरह का रवैया तो दबंगई ही है ना ?

मेरी राय में देश के खिलाफ कोई भी ऐसी बात जो उसकी एकता, अखंडता और संप्रभुता को ललकारती है, चुनौती देती है - उसपर कोई बहस होनी ही नहीं चाहिए. विरोध और आजादी तभीतक अपना मतलब रखते हैं जबतक वो अपनी हद में रहते हैं. पिता का विरोध बेटा कर तो सकता है लेकिन ऐसा वो पिता को चार तमाचे मारकर करे तो फिर ये खांटी बदतमीज़ी है. कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि कश्मीर की आज़ादी बंदूक की नोक पर लेने की बात आप देश के अंदर करें और कहा जाए कि लोकतंत्र की यही खूबी है कि कोई भी अपनी बात रख सकता है तो ऐसा लोकतंत्र नहीं चाहिए.

आप आतंकवादियों की फांसी के खिलाफ देश की न्याय व्यवस्था को हत्यारा बताएं और कहें कि लोकतंत्र की तासीर यही है कि ये हर विरोध को जगह देता है तो फिर ऐसा लोकतंत्र नहीं चाहिए. अदालत के परिसर में कन्हैया पर और पत्रकारों पर वकील हमला बोल दें, विधायक टूट पड़े और सत्ता में बैठे या फिर उनसे जुड़े लोग इसलिए चुप रहे कि यह लोकतंत्र का राष्ट्रवाद है तो फिर ऐसा भी लोकतंत्र नहीं चाहिए. आप अपना मतलब बताओ कॉमरेड . आप अपना एजेंडा बताओ मैकॉलेमैन. और आप अपना अभिप्राय बताओ संघपुरुष. आप तीनों अपने-अपने चश्मे उतारो तो फिर आंखों में आंखें डालकर बात की  जाए.


कन्हैया कुमार पर देशद्रोह का मुकदमा है. कन्हैया के पास पूरा अधिकार है कि वो इंसाफ की लड़ाई लड़ें. लेकिन इससे पहले कन्हैया को बेकसूर साबित करने की कोशिश में कुछ लोग लग गए हैं. कन्हैया के खिलाफ अगर कुछ रखा जाता है तो उनको उसमें साजिश दिखती है. फिर वो दिखाई गई चीजों में ही मिलावट ढूंढने की कवायद में लग जाते हैं. मुद्बई भी आप, गवाह भी आप और अदालत भी आप. आप ये तय करेंगे कि बड़ा घालमेल है और बड़ा धोखा हो रहा है! मगर सवाल तो आपसे होना चाहिए कि आप इतना कुछ किस मंशा और मकसद से कर रहे हैं. यह सवाल इसलिए भी बनता है क्योंकि आपने पहले ही ऐसा कर रखा है . इस बार कम से कम गिरबान में झांकने की छटांक भर ही नैतिकता रख लेके.

मुजफ्फरनगर दंगों में फर्जी स्टिंग चलाने और माहौल बिगाड़ने का दोषी उत्तर प्रदेश की विधानसभा ने आपको माना है. अगल-अलग धाराएं आप पर लगी हुई हैं और उनमें क्या सजा हो सकती है - अगर नहीं पता है तो जांच समिति के अध्यक्ष एस के निगम की रिपोर्ट पढ लीजिए. मैं कभी फटे में हाथ डालने के हक में नहीं रहा लेकिन जब कोई कॉलर टाइट करके सीना तानता हो तो बताना पड़ता है भाई साहब आपकी जिप खुली हुई है.

एक भाई साहब हैं. अंधेरे हैं चले आओ कहां हो-  टाइप स्टाइल में - कहां आवाज़ दें तुमको वाले इंटेलेक्चुअल रोमांटिसिज्म का मज़ा लेने से ही नहीं आघाते. सारा अंधेरा है, काले सवाल है, सवालों के घेरे में सब हैं और आप भी. अपने को तो आप सवालों में खुद ही लाने की दरियादिली दिखाते हैं. वैसे, खुद को सवालों में ला देने से बचाव का सबसे मजबूत रास्ता निकल आता है. है ना ? फिर, आप मनमाफिक चीजें करने-कहने के लिए आज़ाद हो जाते हैं. आज़ादी के नियम आप तय करेंगे और आज़ाद मुल्क में जनता की परेशानी आपकी पेशानी पर ना झलके तो फिर लहू क्या है! मीडिया पर हमला हो तो आप सड़कों पर उतर आएं और किसी की पत्रकारिता को कंठलंगोट तक पकड़ लें . लेकिन, कोई कश्मीर की आजादी के खिलाफ बात ऊंची आवाज में कर ले तो वो अंधेरगर्दी है. जवाबदेही तय करने की जगह निशानदेही है.

आप लोकतंत्र के नाहक वाहक बन जाएं तो अच्छा और कोई देश की अखंडता को लेकर तैश में आ जाए तो गुस्ताखी. साहब, कभी ईडी की रिपोर्ट भी तो पढ लीजिए. सैकड़ों करोड़ रुपए जो कंपनी ने बाहरी देशों से गलत तरीके से अपने यहां ले आई, कई तरह का तिकड़म करके- वहीं आप काम करते हैं. ये गरीब गुरबों की ही तो पैसा होगा जिसको काले से सफेद करने का खेल आपके यहां खेला गया. आप कहें तो आरबीआई की वो रिपोर्ट भी रख दूं जिसमें उसने कई बार ये कहा है कि फलां कंपनी जिस तरीके से इतनी बड़ी रकम बाहर से अपने यहां ले आई उसमें बहुत कुछ काला लग रहा है.

नीरा राडिया की कंपनी वैष्णवी कम्यूनिकेशन का ही एक हिस्सा विट्कॉम आपकी कंपनी के एक चैनल का कारोबार देखता रहा . उसके बारे मेें भी पता करना चाहिए. नीरा राडिया और ए राजा की खास मित्र जो आप ही के यहां हैं, उनके साथ चाय तो पीते ही होंगे. उनसे भी पूछते कि कई तरह के प्रायोजित इंटरव्यू किस लिए किए गए. निशानदेही की बात तो मैं कर ही नहीं रहा, बस जवाबदेही के लिहाज से ही कभी ऊपरवालों से पूछ लेते - ये क्या कर रखा है ? बौद्धिक विलाप करके बौद्दिक विलास का सुख उठाने की लत खराब ही नहीं होती, खतरनाक भी होती है. टीवी के सामने बैठा दर्शक अगर ज़हर उगल रहा है तो उसकी वजहें भी थोड़ा ठीक से टटोलनी चाहिए.

मैं ठेंठ गांव से हूं और इस बात का दावा नहीं करता कि आखिरी पायदान पर खड़े आदमी का दर्द पूरी तरह महसूस करता हूं, मगर किसी से कम समझता हूं, ऐसा भी नहीं है.  उस आम आदमी के सवाल को किसी एजेंडे के तहत देखूं ऐसा गुनाह ना कभी किया और ना कर सकता हूं. दादरी मेरे लिए सवाल है तो मालदा भी है. गुजरात दंगा है तो सन ८४ औऱ भागलपुर भी दंगा ही है. सेक्यूलरिज्म के लिए गुजरात दंगे की लग्गी गिराऊं और ८४-भागलपुर को भूल जाऊं, मैं ऐसा नहीं कर सकता.

पत्रकार भला गरम क्यों नहीं होगा? क्या वो इस देश का नागरिक नहीं?  इस देश में होनेवाले भेदभाव, अन्याय, अत्याचार, लूट-खसोट, सांठगांठ, दंगा-फसाद पर वो क्यों बौखलाए नहीं?  वो माटी का माधव तो है नहीं!  इंसान है औऱ इस देश के प्रति उसकी भी कुछ तो नैतिक जिम्मेदारी है ही.
एक साहब हैं जिनको बोलने की आजादी औऱ विचारों की स्वतंत्रता से इतना लगाव है कि वो कश्मीर की आजादी औऱ पूर्वोत्तर राज्यों के संघर्षों की तरफदारी लोकतांत्रिक मर्यादा से जुड़े लगते हैं. मैं फिर कहता हूं संवाद के  लिये लोकतंत्र में किसी भी हद तक की गुंजाइश मांगना या पैदा करना जायज़ है लेकिन विरोध और आजादी की लक्ष्मणरेखा राष्ट्र और राज्य की प्रभुता के लिये जरुरी है. हां, तो उन साहब को बतौर पत्रकार और जिम्मेदार-ईमानदार पत्रकार कैश फॉर वोट वाली खबर के मामले पर देश के सामने असली तस्वीर रखनी चाहिए. आपने वो खबर दबा क्यों दी थी. राज-पथ पर किसी खास के लिए दीप जलाने से सर-देशवासियों का झुकाते हैं आप.

मैं आपकी इस बात से पूरी तरह सहमत हूं कि इस देश में एक कौम के लिए नारे लगानेवालों से समझौता नहीं किया जा सकता और राष्ट्रभक्ति का कोई सर्टिफिकेट दे ये भी बर्दाश्त नहीं किया जा सकता. लेकिन, बस इसी नाते मैं आपकी ईमानदारी पर यकीन कर लूं, ऐसा भी तो नहीं हो सकता. क्योंकि , मुझे ये पता है कि आपको एक खास दल में कभी कुछ अच्छा नहीं दिखता और एक खास परिवार में कभी कुछ खराब नजर नहीं आता. कभी परिवार, पार्टी, पक्षपात के लबादे उतारकर कैमरे का सामना कीजिए- हिंदुस्तान ज्यादा सराहेगा.

मीडिया के सामने संकट है. संकट ये है कि ज्यादातर तुर्रम खां पूंछ में आग लेकर अपनी अपनी लंका पर खड़े हैं और सोच ये रहे हैं कि आग दूसरे के यहां लगानी है. अपनी अपनी अंधेरगर्दी में ये लोग अंधे हुए पड़े हैं. ये कैसे हो सकता है कि आप इस देश की अखंडता की बात करें और भारत के टुकड़े करनेवालों ( भले ही मुट्ठीभर हों) की तरफदारी करें.  जो भागे हुए हैं उनकी तरफदारी भी करें. वे भगत सिंह या चंद्रशेखर आजाद तो है! हां, उनको इस देश की अदालतों में अपने लिये इंसाफ की खातिर लड़ने का पूरा अधिकार है. कन्हैया, मुमकिन है बेकसूर हो. लेकिन उसको अदालत से रिहा होने से पहले क्रांतिकारी का तमगा तो मत दीजिए.

एक मैडम ने शुक्रवार रात को लिखा कि आज देश को नींद कैसे आ सकती है- कन्हैया जेल में है. मैडम एक किसान अपनी झुलसी हुई फसल देखकर घर आता है, सामने जवान बेटी को देखता है, उसके हाथ पीले करने के सपनों को मरते देखता है औऱ फांसी लगा लेता है. उस खबर पर आपको नींद नहीं आती और आप उसपर कुछ लिखी होतीं तो मुझे लगता कि हिंदुस्तान का पत्रकार आपको मान जाना चाहिए. मुझे आप पर और आप जैसे उन तमाम पत्रकारों पर तरस आता है जो चमचमाती गाड़ियों में, ल्यूटियन जोन्स की तमाम तरह की बैठकों-दावतों में जाकर और अंग्रेजी में फांय फूंयकर हिंदुस्तान की समझ रखने का दावा करने लगते हैं. वैसे, तरस उन तमाम लोगों पर भी आता है जिनको हिटलर-मुसोलनी से नफरत है और स्टालिन-माओ के जुल्म सर्वाहारा की खातिर इंसाफ का तकाजा दिखते हैं.

हंगरी, पोलैंड, रोमानिया में मार्क्सवाद के नाम पर जो कुछ हुआ उसको कौन सही ठहरा सकता है. नक्सलियों का आतंकवाद अगर आपको बराबरी के हक के लिये सशस्त्र विद्रोह लगता है तो लानत है आपपर. जो गलत है वो गलत है. इंसान को दबाने कुचलने की परंपरा हो या फिर उसे दुत्कारने-फटकारने वाली मनुवाद सरीखी व्यवस्था या फिर जाति-धरम के नाम पर वोट का खेल खेलनेवाली सियासत तीनों को खुले मन से खारिज करने का साहस और नैतिकता मीडिया में जरुरी है.

अदालत में कन्हैया पर हमला हो या कारखाना मालिक के बेटे पर, आवाज दोनों के लिेये बराबर उठनी चाहिए. दिल्ली में पत्रकारों पर हमला हो तो सड़कों पर उतर आएं और देश के दूसरे हिस्सों में उनको पुलिस दौड़ा दौड़ाकर दोहरा कर दे तो महज खबर. इसलिए कि दिल्ली में प्वायंट जिसतरीके से बढ जाता है वैसा कहीं और के मामले पर नहीं बन सकता ? ये मेरा आरोप नहीं है, बस एक अदना-सा सवाल भर है.
कोई जातिवादी संज्ञा से चुनावी शो चलाए तो वो समाज का आईना है, बहन के नाम के आगे डॉट डॉट छोड़ दे तो बोल्ड एक्सपेरिमेंट है और कोई ऊंची आवाज में सवाल कर दे, एक वाजिब वीडियो दिखा दे तो मर्यादा और नैतिकता की सरेआम हत्या हो जाती है! हाहाकार मच जाता है. मैंने खबरों को तय करते समय, उनपर राय रखते समय, बहस के लिए उन्हें चुनते समय या फिर किसी मुद्दे के खिलाफ अभियान छेड़ते समय सिर्फ औऱ सिर्फ इंसान को देखा है. ना जात को ना कौम को ना पार्टी और ना पक्ष को. पक्षपात और पक्षधरता का अंतर हमेशा बनाए रखने में यकीन रखा. किसी के साथ गलत हो तो उसके साथ खड़ा होना पत्रकार का भी नैतिक धर्म है लेकिन उसके साथ इसलिए खड़ा हों कि उससे किसी का बनता या फिर किसी और का बिगड़ता है - तो ये पक्षपात है.

वक्त देश के पत्रकारों औऱ मीडिया के लिए चुनौती भरा है. खुद की धूल और गंध को झाड़कर खुले दिमाग और बड़े दिल से इस देश और समाज के लिये चलने-सोचने का है. मैंने जो विरोध किया, उसकी वजहें मुझे दुरुस्त लगीं. मुमकिन है आप मेरा भी करो. विरोध, विरोध के दायरे में ही अपनी पहचान रखता है जैसे आजादी, आजादी के दायरे में ही अपना मतलब रख पाती है.