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बुधवार, 10 फ़रवरी 2016

जेएनयू बज़रिए राष्ट्रद्रोह

जेएनयू में कल पाकिस्तान जिंदाबाद और कश्मीर को चाहिए आजादी के नारे लगे. अफज़ल गुरु की तीसरी बरसी पर कुछ छात्रों ने एक सांस्कृतिक शाम रखी. जो पर्चा तैयार किया गया उसमें सबसे ऊपर लिखा गया- मकबूल बट्ट और अफजल गुरु की न्यायिक हत्या के खिलाफ, कश्मीरियों के संघर्ष के समर्थन में आप आमंत्रित हैं. इस जमावड़े में पाकिस्तान जिंदाबाद और हमें चाहिए आजादी, कश्मीर को चाहिए आजादी के नारे पूरे उबाल के साथ लगाए गए. इसका विरोध एबीवीपी वालों ने किया और फिर बवाल बढता चला गया. आज इस मामले पर तमाम न्यूज चैनलोंं पर लंबी बहसें हुईं. जिन छात्रों ने जेएनयू में सांस्कृतिक शाम रखी थी उन्होंने न्योते में यह भी लिखा था कि-यहां एक कला प्रदर्शनी भी होगी जिसके ज़रिए कश्मीर के अधिग्रहण और वहां के लोगों के संघर्ष को बताया जाएगा. कश्मीर की आज़ादी औऱ अफज़ल-मकबूल की हिमायत करनेवाले, लोकतांत्रिक मूल्यों और नागिरक की आज़ादी के अधिकार का हवाला दे रहे हैं. ये वही छात्र हैं जिनके नाम न्योते में छपे हैं. सवाल ये है कि क्या लोकतांत्रिक मूल्यों और आजादी के अधिकार की अवधारणा में नागरिक के किसी भी हद तक जाने की छूट है ? क्या राष्ट्र की अखंडता और राज्य की प्रभुता से स्वतंत्र और स्वैच्छिक हैं लोकतांत्रिक मूल्य और आजादी के अधिकार ? मैं हमेशा से नागिरक के अधिकारों का मजबूत समर्थक रहा हूं और रहूंगा. उसे अपने हक और अपनी बेहतरी के लिये हर वाजिब आवाज उठाने, धरना देने, प्रदर्शन करने , आंदोलन तक करने का अधिकार है. उसे हक है कि वह देश के सबसे बड़े ओहदे पर बैठनेवाले यानी प्रधानमंत्री और मौजूदा व्यवस्था की नीतियों की धज्जियां उड़ा दे अगर - उसके या फिर जिन समुदायों-समूहों-वर्गों के हक की वो लड़ाई लड़ रहा है - उनके हितों का ख्याल नहीं रखा गया है. लोकतांत्रिक व्यवस्था में दुनिया का विश्वास इसलिए है कि वो नागरिक के कल्याण के सिद्दांत पर खड़ी होती है. देश के साधन-संसाधन का इस्तेमाल आखिरी पायदान पर खड़े आदमी के लिये ज्यादा करने का नैतिक और नीतिगत विचार इस व्यवस्था में निहित है. आरक्षण, संरक्षण, प्रोत्साहन, समायोजन के लिये जरुरी नीतियां इसी व्यवस्था में संभव हो पाती हैं. और सबसे बड़ी बात, नागरिक की आज़ादी की गारंटी लोकतंत्र ही देता है. लेकिन यह गारंटी सापेक्ष होती है. किसी भी शब्द का अर्थ निरपेक्षता में होता ही नहीं. अगर बेईमानी का संदर्भ नहीं हो तो ईमानादारी को स्थापित नहीं किया जा सकता, बुरा का भाव नहीं हो तो अच्छा को समझा ही नहीं जा सकता, ऐसे ही आजादी का मतलब तभी समझ में आ सकता है जबतक बंधनों को आपके सामने नहीं रखा जाए. परिंदे को कुदरत ने उड़ने के लिए पूरा आसमान दे रखा है, लेकिन उसकी हद वहीं तक है जहां तक हवा है. उसके आगे कुदरत भी उसकी मदद नहीं करती. अब कुछ उदाहरण देखिए- पाकिस्तान में भारत का झंडा लहराया गया, लहरानेवाले को गिरफ्तार किया गया और मुकदमा चल रहा है. जुर्म साबित होने पर दस साल की कैद मुकर्रर है. अब एक सभ्य मुल्क की मिसाल लीजिए. फ्रांस में आतंकवादी गतिविधि के चलते नागरिकता जा सकती है. हमारे यहां क्या है? जेएनयू जैसे प्रतिष्ठित संस्थान में पाकिस्तान के नारे लग रहे हैं और कश्मीर की आजादी की अंगराइयां ली जा रही हैं. देखिए कैसे तालियां बज रही हैं और हलक में जितनी ताकत है, उससे नारे लग रहे हैं- सुन लो मोदी, सुन लोग मुफ्ती - हम कश्मीर लेकर रहेंगे. इस पूरे आयोजन में राष्ट्र के खिलाफ तीन अपराध हैं, जिनपर बहसों के आगे बात जा ही नहीं रही है. कल बहसें रुक जाएंगी और ये नीम हकीम जम्हूरियत के नए उस्ताद और खतरनाक हो जाएंगे. पाकिस्तान के नारे हिंदुस्तान की ज़मीन पर जिस तरीके से लगाए जा रहे थे, वो पाकिस्तानपरस्ती की गवाही दे रहे थे. हमारा नागिरक, दुश्मन देश या पड़ोसी देश के नाम पर अपनी छाती चौड़ी कर रहा है. दूसरा, अफजल गुरु और मकबूल बट्ट की फांसी को न्यायिक हत्या बताया गया. यानी हमारे देश की सर्वोच्च न्यायालय पर आप हत्या का आरोप लगा रहे हैं. जिस सुप्रीम कोर्ट ने उन दोनों को लंबी कानूनी लड़ाई के बाद आतंकवादी साबित होने पर फांसी दी - उसके फैसले को हत्या मान रहे हैं? इसी देश में यह हुआ कि याकूब मेमन जैसे आतंकवादी की फांसी रोकने के लिए आधी रात अदालत लगवाई गई और कोर्ट ने बाकायदा याकूब की पैरवी करनेवालों को सुना. तीसरा, आप भारत मे कश्मीर के शामिल होने को कश्मीर का अधिग्रहण कह रहे हैं और उसके खिलाफ संघर्ष में देश के लोगों को ही लामबंद कर रहे हैं. ये तीनों बाते देशद्रोह के दायरे में आती हैं. ऐसे लोगों के खिलाफ सख्त से सख्त कार्रवाई होनी चाहिए. जिन लोगों ने देश को बनाने में दो पाई की भूमिका नहीं निभाई, समाज में किसी तरह का सहयोग नहीं दिया वे महज नागिरक होने के नाते मौलिक अधिकार और मानवाधिकार के नाम पर देश के वजूद को ही आंखें दिखा रहे हैं. हनुमंथप्पा अभी जीवन और मौत के बीच जंग लड़ रहे हैं. उनके साथियों को सियाचन की बर्फ लील गई. अभी जब मैं लिख रहा हूं- जम्मू कश्मीर से लेकर अरुणाचल तक हमारे जवान संगीन की तरह सीधे और सतर्क खड़े होंगे. दुश्मन की गोली कभी भी चल सकती है, उन्हें पता है लेकिन मुल्क की खातिर हर वक्त जान को जोखिम में डालकर सीमा की रक्षा करते हैं. उन जवानों के बारे में कितना जानते हैं ये लोग ? देश का किसान मरता है , उसके लिये कब नारे लगाए ? महिलाओं पर अत्याचार की हाड़ कंपा देनेवाली घटनाएं सामने आती हैं- कितनी बार इनलोगों का गुस्सा फूटा ? देश के आम आदमी के पैसे पर पलने-पढनेवाली ये जमात देश की एकता-अखंडता को ही चुनौती देगी ? और हम इन्हें उदारवादी, मानवतावादी , प्रगतिशील और नवोत्थानवादी कहकर इनको अगरबत्ती दिखाएंगे. इनको भारत माता की जय कहने में वैचारिक संकट लगता है, कश्मीरी पंडितो की पीड़ा पर बोलने में पहचान का संकट लगता है और कोई फिर ये कहे कि खुले दिमाग से हम देश और समाज के बारे में सोचनेवाले लोग है तो लगता है कि खुलेपन का इससे भद्दा मज़ाक नहीं हो सकता. आधे-अधूरे पढे, आठ-दस लाइनें रटे , दस-बारह बयानों को बटोरे ये ऐसी जमात है जिसको देश दुनिया की ढेले भर की समझ नहीं है. उसूल और नजरिए से ऐसी उखड़ी-उजड़ी जमात है जिसको कथित बुद्दिजीवी होने का चस्का लगा रहता है. झोलाझापों की नस्ल खत्म हो गई लेकिन ये उनके खतरनाक हो चले खंडहरों की तरह बचे हुए हैं. इस देश में विरोध की वजहें बहुत हैं और विरोध के नायक भी . दादरी की घटना पर देश का बड़ा वर्ग और खासकर मीडिया अखलाक के साथ खड़ा हुआ. लेखकों-साहित्यकारों ने अखलाक के साथ कन्नड़ लेखक कलबुर्गी की हत्या को जोड़कर अपने पुरस्कार लौटाए. मालदा पर भी विरोध हुआ. अन्ना हजारे की अगस्त क्रांति हुई- पूरी व्यवस्था हिल गई, मेधा पाटेकर ने सरदार सरोवर योजना के खिलाफ लंबी लड़ाई लड़ी , मणिपुर में सेना के असीमित अधिकारों के खिलाफ एरोम शर्मिला पिछले १५ साल से अनशन पर हैं और इस देश के बुद्दिजीवियों-नागरिकों का एक तबका उनके साथ खड़ा रहता है. इसी देश का सु्प्रीम कोर्ट नक्सलियों के लिये काम करने के आरोप में गिरफ्तार डाक्टर विनायक सेन को जमानत देता है और सर रिचर्ड एटनबरो उनको गांधी शांति पुरस्कार देत हैं. विरोध डाक्टर सेन की गिरफ्तारी के खिलाफ भी खूब हुआ और मैने खुद भी किया. हाल के वर्षों का सबसे अच्चा उदाहरण अरविेंद केजरीवाल हैं. अन्ना की अगस्त क्रांति के रास्ते चलकर राजनीति में उतरने और फिर सड़क पर सत्ता को सीधी चुनौती देने में अरविंद ने बेहिसाब ताकत लगाई. लोगों का भरोसा जीता और दिल्ली की सत्ता बदल दी. सारे के सारे विरोध राष्ट्र की एकता-अखंडता के दायरे में अपनी-अपनी तरफ से पूरी ताकत के साथ हुए. लेकिन जेएनयू में जो हुआ उसमें देश, समाज , परिवार या व्यक्ति के अधिकार की लड़ाई नहीं है बल्कि संप्रभु राष्ट्र भारत को सीधी चुनौती है. कुछ लोगों का तर्क है कि दरअसल अफजल गुरु या फिर मकबूल बट्ट महज नाम हैं , लड़ाई तो फांसी की सजा के खिलाफ है. ऐसे लोगों से सवाल ये होना चाहिए कि फांसी के खिलाफ खड़ा होने के लिये अफजल और मकबूल का नाम ही क्यों. आजाद हिंदुस्तान में अबतक जितनी फांसी हुई है उनमें से सिर्फ ५-७ फीसदी ही मुसलमान थे. बाकियों में से किसी का भी नाम आपको याद नहीं. दो ऐसे लोग जिनको इस देश की सबसे बड़ी अदालत ने आंतकवादी माना उनको आप अपनी क्रांति का नायक बनाना चाहते हैं? आप नारा लगाते हैं कि एक अफजल मारोगे, हर घर से अफजल निकलेगा! इस देश की नई नस्ल में आप अफजल की फसल काटना चाहते हैं? याद रखिए, ये वो विश्वविद्यालय है जिसके हर छात्र पर तीन लाख रुपए सरकार के खर्च होते हैं और वो रकम आम आदमी के टैक्स से आती है. यानी जिनके पैसों पर आप पढ रहे हैं उन्हीं के खिलाफ आप आग बो रहे हैं. इस देश के आम विश्विद्यालयों में पैसे के संकट के चलते बच्चे दर-दर की ठोकरें खाते हैं, कक्षाओं में फटेहाली पसरी रहती है, साधन-संसाधन का टोटा रहता है और आप मज़े में पढते हैं. इसलिए कि इस देश के कल को आप संवार सकें, इसलिए नहीं कि कल होकर इस देश को आपसे ही खतरा हो जाए. वैसे ऐसे छात्रों की संख्या जेएनयू में भी ज्यादा नहीं है लेकिन जितनी भी है इस चिंता के लिये काफी है कि देश के सर्वोत्तम शिक्षण संस्थानों में आजादी और मानवाधिकार के नाम पर भारत का भविष्य अपनी ही आस्तीन में सांप पाल रहा है.