यह ब्लॉग खोजें

शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2011

कुछ ग़ज़लें

(1)
इक राह तेरी याद सी , चलती है रातभर
इक साक़ी इक सुराही भी चलती है रातभर
चूल्हे की आग को लिये सदियां गुजार दीं
इक रोटी आसमान में चलती है रातभर
उसने भी चलो सीख लिया हंसने का सलीका
करवट बदल के यार वो , रोती है रातभर
मिटना कबूल क्या करे शबनम को इश्क है
सूरज के इंतजार में सजती है रातभर
फिर वही खुशबू है, बारिश, कागजों की कश्तियां
मासूम सी शरारत कोई , मचलती है रातभर

(2)
कभी यार, कभी फरिश्ता, कभी खुदा लगता है
गाढे वक्त में मददगार, क्या क्या लगता है
अपना सुना औऱ लिहाज भी नहीं रखा आपने
फरेब औरों का सुनना तो बड़ा अच्छा लगता है
अपने पसीने की पूरी कीमत मांगते हैं
हमारा ख़ून भी उन्हें सस्ता लगता है
शहर में सबकुछ मिलेगा,बोलिये क्या चाहिये
बाजार को मोटी जेबवाला अच्छा लगता है
साथ जीने मरने की कसमें पुरानी हो गयीं
लैला को मजनूं कहां अब अच्छा लगता है

(3)
मेरे दौर में ये कैसी राज़दारी है
ज़मीन हल्की है, हवा भारी है
गोलियों पर उसी ने नाम लिखा था
भीड़ में आज जिसकी तरफदारी है
तोड़ डाले बुतखाने के सारे खुदा जिसने
बुतपरस्तों से अब उसी की यारी है
इंसां जबसे मौत का सामान बन गया
कभी मुंबई,कभी रावलपिंडी, धमाका जारी है
दिहाड़ी से दोगुनी थाली हो गयी है
ये कैसी जम्हूरियत, कितनी मक्कारी है